पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का एलान कर न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी के दाँव को उलट दिया है, बल्कि उसे उसी के जाल में फँसा दिया है। नंदीग्राम आन्दोलन से उभरे शुभेंदु अधिकारी को बड़े धूमधाम से पार्टी में लाने वाले अमित शाह को अब यह सोचना होगा कि वह वहाँ ममता बनर्जी को कैसे रोकें। लेकिन सबसे बुरी स्थिति तो तृणमूल छोड़ कर बीजेपी में जाने वाले इस नेता की होगी जिसके लिए अब अपनी सीट बचाना भी मुश्किल होगा। उन्हें पार्टी में लाकर इतराने वाली बीजेपी अब उस व्यक्ति की उपयोगिता पर विचार करे, जो अपनी मौजूदा सीट बचा पाएंगे, इस पर भारी संदेह है।
तृणमूल में हड़कंप
हाल फिलहाल तक मुख्यमंत्री के ख़ास माने जाने वाले अधिकारी ने जब 8 जनवरी को अमित शाह की मौजूदगी में बीजेपी में शामिल होने का एलान किया तो मेदिनीपुर ज़िले के तृणमूल कार्यकर्ताओं में हड़कंप मचा। हालांकि कुछ दिन पहले तक जिस पार्टी की आलोचना करते नहीं थकते थे, उसमें शामिल होने का उनका कार्यक्रम फीका रहा, क्योंकि उन्होंने एलान तो किया था एक लाख कार्यकर्ताओं के मौजूद होने का, पर यह संख्या 10 हज़ार की भी नहीं थी।
यह विडंबना ही है कि शुभेंदु अधिकारी ने ममता बनर्जी पर परिवारवाद और अपनी उपेक्षा का आरोप उस समय लगाया जब उनके अलावा उनके पिता और भाई सांसद थे और एक दूसरा छोटा भाई कांथी म्युनिसपैलिटी का चीफ़ कौंसिलर है।
बीजेपी की रणनीति
दरअसल पश्चिम बंगाल बीजेपी की यह सुनियोजित रणनीति है कि वह तृणमूल कांग्रेस के लोगों को तोड़े क्योंकि उसका अपना कोई बड़ा जनाधार नहीं रहा है। राज्य विधानसभा में उसके अभी भी तीन ही विधायक हैं। शुभेंदु अधिकारी उपयुक्त इसलिए हैं कि पूर्व मेदिनीपर ज़िले में उनकी पकड़ है। वे ख़ुद नंदीग्राम से विधायक हैं, उनके पिता शिशिर अधिकारी काँथी से और भाई दिव्येंदु अधिकारी तमलुक से सांसद हैं।
शुभेंदु अधिकारी इस इलाक़े के बड़े नेता के रूप में उस समय उभरे जब ज़बरन ज़मीन अधिग्रहण के राज्य सरकार के अभियान के ख़िलाफ़ बड़ा आन्दोलन चलाया गया था। चौपट हो चुके उद्योग धंधों और बर्बाद हो चुके उद्योगों में जान फूकंने के मक़सद से बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार नई औद्योगिक नीति पर चल रही थी। इसके तहत मेदिनीपुर ज़िले में एक स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन बनाने की योजना थी।
नंदीग्राम से कैसे उभरे शुभेंदु?
इंडोनेशिया के सलीम समूह ने एक केमिकल हब विकसित करने में दिलचस्पी दिखाई थी और इसके लिए 10 हज़ार हेक्टेअर भूमि उसे दी जानी थी। लेकिन जब वहाँ भूमि अधिग्रहण अभियान शुरू हुआ तो ऊँची कीमत मिलने के बावजूद माओवादी गुटों ने उसका विरोध किया। भूमि रक्षा समिति को माओवादियों का समर्थन प्राप्त था।
उसके बाद वहाँ ख़ूनी संघर्ष शुरू हुआ, जिसमें माओवादियों के नियंत्रण वाले भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के लोगों ने सत्तारूढ़ सीपीआईएम के सदस्यों को मार-पीट कर उनके घरों से भाग दिया और उनके गाँवों पर कब्जा कर लिया। जनवरी 2007 से मार्च 2007 तक वह ऐसा इलाक़ा बन गया, जहाँ पुलिस घुस नहीं सकती थी।
इसके बाद पुलिस वालों के साथ मिल कर सीपीआईएम के कैडरों ने नंदीग्राम और उसके आसपास के इलाक़े में 14 मार्च, 2017 को भारी उत्पात मचाया, जिसमें 14 लोग मारे गए।
टीएमसी-सीपीआईएम संघर्ष
भूमि रक्षा समिति और भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति में माओवादी कार्यकर्ताओं की भरमार थी, लेकिन पुलिस कार्रवाई होने के बाद माओवादियों को पीछे हटना पड़ा और उनकी जगह तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने ली। भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति टीएमसी के हाथ में चली गई।
उसके बाद भी सीपीआईएम और इस समिति के लोगों के बीच हिंसा चलती रही, जिसमें दोनों ही पक्षों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हिंसा की, मार-पीट की, ज़मीन और गाँवों पर कब्जा किया।
कम्युनिस्टों का गढ़ था मेदिनीपुर
अब जहाँ पूर्व मेदिनीपुर और पश्चिमी मेदिनीपुर ज़िले हैं, उस समय एक मेदिनीपुर ज़िला ही था। वह आज़ादी के बाद से ही सीपीआई का गढ़ था, वहां से इंद्रजीत गुप्ता और गुरुदास दासगुप्ता जैसे नेता हुए थे। बाद में वह इलाक़ा सीपीआईएम के हाथ चला गया और लक्ष्ण सेठ इसके नेता थे। लेकिन नंदीग्राम आन्दोलन के ज़रिए उस इलाक़े में कम्युनिस्टों को चुनौती मिल रही थी और यह काम तृणमूल कांग्रेस कर रही थी।
ममता बनर्जी ने जब ज़मीन अधिग्रहण का विरोध किया तो वहाँ के लोग पहले से ही सीपीआईएम कैडर और ख़ास कर लक्ष्मण सेठ के लोगों से परेशान थे।
भूमि सुधार के बाद जो नई पढ़ी बनी थी, भले ही उसकी पहली पीढ़ी को सीपीआईएम से फ़ायदा हुआ था, पर मौजूदा नई पीढ़ी सरकार से नाराज़ थी। तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी में उन्हें अपना विरोध दर्ज कराने का ज़रिया दिखा।
शुभेंदु का उभरना
शुभेंदु अधिकारी उस नेता के तौर पर उभरे जो सीपीआईएम कैडरों की हिंसा का तुर्की ब तुर्की जवाब दे रहे थे। ममता बनर्जी पार्टी की सुप्रीमो थीं, बड़ा चेहरा थीं, वे उस तरह सड़क पर उतर नहीं सकती थीं, वह काम शुभेंदु अधिकारी और उनके लोगों ने किया। नतीजा यह हुआ कि वे उसे पूरे इलाक़े के बड़े नेता के रूप में उभरे।
बाद में धीरे-धीरे तृणमूल कांग्रेस पूरे इलाक़े में फैलती चली गई। आज स्थिति यह है कि पूर्व मेदिनीपुर ज़िले के 19 और पश्चिमी मेदिनीपुर ज़िल के 16 विधानसभा क्षेत्रों में, सब पर तृणमूल कांग्रेस का कब्जा है। वहाँ कुछ जगहों पर सीपीआईएम तो कहीं कहीं कांग्रेस दूसरे नंबर पर है। बीजेपी बहुत पीछे है।
बीजेपी की नज़र 34 सीटों पर
बीजेपी का यह मानना रहा है कि यदि वह शुभेंदु अधिकारी को अपनी ओर ले आती है तो दोनों ज़िलों पर उसका कब्जा हो जाएगा और इस तरह 34 विधानसभा सीट उसकी झोली में आ गिरेंगी। बीजेपी के इस सोच के पीछे यह सच्चाई है कि दिव्येंदु और शिशिर अधिकारी के रूप में दो लोकसभा सीटें उसके हाथ लग जाएंगी। शुभेन्दु का सबसे बड़ा जनाधार है ही।
बीजेपी का यह सच ग़लत इसलिए नहीं था कि खुद बीजेपी के कार्यकर्ता निराश हो चले थे और मझोले स्तर के नेता पार्टी छोड़ने का मन बना रहे थे। ममता बनर्जी ने पाँसा पलट दिया है।
यदि ममता ख़ुद नंदीग्राम से चुनाव लड़ेंगी तो शुभेंदु अधिकारी बुरी तरह फंस जाएंगे क्योंकि ममता बनर्जी के करिश्माई व्यक्तित्व का तोड़ उनके पास ही नहीं, पूरे पश्चिम बंगाल में किसी के पास नहीं है।
सीपीआईएम के लिए जादवपुर जैसे सुरक्षित सीट से सोमनाथ चटर्जी जैसे दिग्गज़ नेता को 1984 में हराने वाली ममता बनर्जी ने मुड़ कर नहीं देखा ओर उसके बाद से एक भी चुनाव नहीं हारी हैं।
शुभेंदु की मुश्किलें
यदि शुभेंदु अधिकारी नंदीग्राम से ही चुनाव लड़ते हैं तो उनका जीतना मुश्किल है और यदि वे किसी दूसरी सीट को चुनते हैं तो उनकी प्रतिष्ठा को ठेस लगेगी। इसके अलावा दोनों ज़िलों में जो 34 विधानसभा सीटें हैं, उन पर सब पर टीएमसी का कब्जा है। लेकिन यह वह टीएमसी है, जिसका नेतृत्व ममता बनर्जी करती हैं।
ये सीटें ममता बनर्जी के प्रभाव क्षेत्र में हैं या शुभेंदु अधिकारी के, इसका जवाब अभी नहीं मिल सकता। अधिकारी अपने बल बूते इसमें से कितनी सीटें टीएमसी से छीन कर बीजेपी की झोली में डाल पाएंगे, उनकी उपयोगिता इससे तय होगी।
टीएमसी की ख़ामी
टीएमसी की राजनीति की एक बड़ी ख़ामी यह है कि उसका कोई विशिष्ट राजनीतिक दर्शन नहीं है, जो उसे दूसरी दलों से अलग करता हो। जिस कांग्रेस को तोड़ कर यह पार्टी बनाई गई, उसकी नीतियों से तृणमूल की कौन नीति कितनी अलग है, इसका जवाब टीएमसी का कोई बड़ा नेता भी शायद ही दे सके।
ऐसे में इसके कैडरों की राजनीति बिल्कुल निजी फ़ायदे पर टिकी होती है, यदि वह फ़ायदा बीजेपी से मिल रहा तो उसमें किसी को जाने में क्या दिक्क़त है। ऐसे में टीएमसी के लोगों का बीजेपी में जाना बड़ी बात नहीं है। इससे शुभेंदु अधिकारी का काम आसान हो जाता है, उन्हें बस लोगों को यह बताना होगा कि बीजेपी के शासन में वह किसे कितना लाभ पहुँचा पाएंगे।
व्यक्तित्व आधारित राजनीति
लेकिन टीएमसी की राजनीति की एक और अजीब बात है कि वह पूरी तरह ममता बनर्जी के करिश्माई व्यक्तित्व पर टिकी हुई है। उस पार्टी में वही सबकुछ हैं, सारे फ़ैसले वे लेती हैं, दूसरे लोगों में काम का बंटवारा वे करती हैं, सारा टिकट वे देंगी, ज़िला ही नहीं, ब्लॉक स्तर तक के नेता उन्हें जानते हैं, उनके प्रति वफ़ादार हैं।
लेकिन इस राजनीति का कमज़ोर पक्ष यह है कि ममता बनर्जी की छत्रछाया से बाहर निकल कर उनके कार्यकर्ता कुछ नहीं हैं, उनका निजी व्यक्तित्व बहुत अपील नहीं करता है।
शुभेंदु के तरकश के तीर
शुभेंदु अधिकारी के साथ दिक्क़त यह है कि वे ममता बनर्जी पर हमला करते वक़्त उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी पर चोट कर सकते हैं, उन पर वसूली करने का आरोप लगा सकते हैं, पर ख़ुद ममता पर आरोप लगाना मुश्किल होगा। खुद बीजेपी ने एक वीडियो अपनी वेबसाइट पर डाल रखा था जिसमें शुभेंदु के भ्रष्ट होने और पैसे लेने के बारे में बताया गया था। लेकिन उनके बीजेपी में शामिल होने के बाद वह वीडियो हटा दिया गया।
शुभेंदु अधिकारी बीजेपी में शामिल भले हो गए हैं, लेकिन वे उसकी नीतियों पर बहुत कुछ नहीं बोल पाएंगे। वे एनआरसी का समर्थन नहीं कर पाएंगे, सीएए पर आक्रामक रुख नहीं अपना सकते।
वे मुसलमानों के ख़िलाफ़ चाह कर भी नहीं बोल पाएंगे। इसी तरह शुभेंदु अधिकारी 'जय श्री राम' के नारे पर वोट नहीं माँग सकते क्योंकि वहाँ के समाज में वह नहीं है।
ऐसे में शुभेंदु अधिकारी ममता बनर्जी के दाँव से फँस गए है, यह तो कहा ही जा सकता है। इसी तरह बीजेपी को यह सोचना होगा कि शुभेंदु अधिकारी उनके लिए कितने कारगर होंगे।
शुभेंदु का कैरियर दाँव पर
शुभेंदु यदि चुनाव हार गए तो उनका राजनीतिक कैरियर ही ख़त्म हो सकता है, लेकिन यदि उन्होंने ममता बनर्जी को हरा दिया तो बीजेपी में हीरो बन जाएंगे। ममता बनर्जी के लिए यह चुनाव बेहद चुनौतीपूर्ण है, अपने निकट के सहयोगी के इस तरह साथ छोड़ने पर उनकी स्थिति समझी जा सकती है।
एक कुशल नेता की तरह सामने आकर लड़ने की नीति अपनाते हुए ममता बनर्जी ने खुद एक जोखिम उठाया है। इससे पूरे राज्य के कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार होगा, मेदिनीपुर की सभी सीटों पर टीएमसी की स्थिति मजबूत होगी। पार्टी छोड़ कर भाग रहे या भागने का मन बना चुके नेता एक बार सोचेंगे। इसलिए ममता ने सोची- समझी रणनीति के तहत ही दाँव खेला है। यह दाँव कितना सही बैठा, यह तो चुनाव के बाद ही पता चल पाएगा।
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