बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस के बीच चल रही चुनावी लड़ाई ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव को एक चुनावी जंग में तब्दील कर दिया है। एक तरफ़ जहाँ बीजेपी की तरफ़ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की अगुवाई में बीजेपी अपनी पूरी ताक़त झोंक रही है, वहीं दूसरी ओर टीएमसी अपने सबसे जुझारू नेता ममता बनर्जी और प्रशांत किशोर की रणनीति के सहारे अपनी सत्ता बरकरार रखने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं।
क्या बंग की जंग में बीजेपी टीएमसी के क़िले में सेंध लगा पाएगी या सिर्फ़ हवा बनाने की कोशिश कर रही है और क्या अंत में तृणमूल कांग्रेस की ही बड़ी जीत होने वाली है?
कई ऐसे पहलू हैं जिससे ऐसा लगता है कि बीजेपी के लिए बंगाल चुनाव उतना आसान नहीं होने जा रहा है। आइए, बारी-बारी से विश्लेषण करते हैं-
1. ध्रुवीकरण का फेल होना
पश्चिम बंगाल में बीजेपी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में सीएए लागू करने का वादा कर साफ़ कर दिया है कि वह राज्य में अपने एजेंडे पर पूरी तरह क़ायम है और उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। पार्टी के चुनाव प्रचारक भी अपने अभियान में इस पर जोर दे रहे हैं। पर बीजेपी का ब्रह्मास्त्र (ध्रुवीकरण) अब तक ज़मीनी स्तर पर उतना कारगर होता नहीं दिख रहा है जितना बीजेपी के थिंक टैंक को उम्मीद थी। कुछ क्षेत्रों को छोड़ दें (मुर्शिदाबाद, मालदा, ब्रह्मपुर, हुगली) तो मुसलमान तबक़े का समर्थन ममता बनर्जी को एकतरफ़ा मिलता हुआ दिख रहा है। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण नंदीग्राम है जहाँ ममता को मुसलमान तबक़े का मत एकतरफ़ा मिल रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ हिंदू तबक़े में विभाजन साफ़ देखा जा रहा है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि अभी भी स्थानीय बंगालियों में ममता के प्रति झुकाव बना हुआ है।
2. ममता के लिए कांग्रेस का झुकाव
कांग्रेस और लेफ्ट उसी क्षेत्रों में ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जहाँ उन्हें जीतने की उम्मीद सबसे ज़्यादा है। कांग्रेस नहीं चाहती है कि उसके कारण ममता के मतों में विभाजन हो, खासकर अल्पसंख्यक तबक़े का, और इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि राहुल गांधी या कांग्रेस के किसी भी बड़े राष्ट्रीय नेताओं का बंगाल अब तक ना जाना। अधीर रंजन चौधरी, गनी खान चौधरी के सहारे कांग्रेस ने मालदा, मुर्शिदाबाद ब्रह्मपुर और दिनाजपुर तक अपने आप को सीमित कर रखा है। जबकि हक़ीक़त यह है कि कांग्रेस अभी भी बंगाल में मुख्य विपक्षी पार्टी है जिनके 44 विधायक हैं।
3. कप्तान के बिना चुनाव में उतरना
बीजेपी के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित न करना सबसे बड़ा नकारात्मक फ़ैक्टर साबित हो रहा है। यदि बीजेपी के पास ममता के मुक़ाबले कोई लोकप्रिय चेहरा होता तो मुक़ाबला और दिलचस्प होने की संभावना थी। बंगाल के लोगों के मानस में यह बात है कि ममता नहीं तो कौन?
4. बीजेपी की अंदरूनी लड़ाई
बंगाल बीजेपी की अंदरूनी कलह पार्टी के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द साबित होता दिख रहा है। पार्टी ने टीएमसी से आए क़रीब 150 नेताओं को इस बार टिकट दिया है जिससे पुराने कार्यकर्ताओं में रोष है।
5. बंगाल में बीजेपी का कमजोर होना
उत्तरी बंगाल की तुलना में बीजेपी दक्षिण बंगाल में अभी भी संगठनात्मक रूप से बहुत कमजोर है। 2019 लोकसभा चुनाव के परिणाम को भी देखेंगे तो दक्षिण बंगाल में बीजेपी का प्रदर्शन उतना बेहतर नहीं था जितना उत्तर बंगाल में। क़रीब 60 से 65 फ़ीसदी विधानसभा क्षेत्र दक्षिण बंगाल से आते हैं और वहाँ टीएमसी अभी भी अपनी पैठ बनाए हुए है। यदि बीजेपी दक्षिण के क़िले को फतह कर पाती है तो फिर परिणाम बीजेपी के पक्ष में हो सकते हैं।
6. ममता के प्रति महिलाओं का झुकाव
ममता के लिए आधी आबादी यानी महिलाओं का झुकाव टीएमसी की जीत में एक महत्वपूर्ण कारण बन सकता है। ममता सरकार ने ऐसी कई योजनाओं को सफलतापूर्वक धरातल पर उतारा है जैसे 'कन्याश्री 'जिससे महिलाओं का झुकाव ममता के प्रति देखा जा सकता है और इसका फ़ायदा पार्टी को मिलता दिख रहा है।
7. टीएमसी का वोट बैंक
ममता के जो समर्थक हैं वे अभी भी उनके साथ मज़बूती के साथ खड़े हैं। 2011, 2014, 2016 और 2019 के चुनावों में ममता के मतों में कोई गिरावट नहीं देखी गई है। 2019 लोकसभा चुनाव में भी टीएमसी को 43.5 फ़ीसदी के क़रीब मत मिले थे वहीं बीजेपी को 40 फ़ीसदी के आसपास और 2014 के लोकसभा और 2016 के विधानसभा के चुनाव में बीजेपी को मिले मतों को देखें तो साफ़ होता है कि बीजेपी के मतों में 6% की कमी आती है। जबकि विगत 10 से 12 विधानसभा चुनावों का आकलन करेंगे तो लोकसभा की तुलना में विधानसभा में बीजेपी के मतों में 6% से 24% तक की गिरावट देखी जाती है।
8. जाति फैक्टर
पश्चिम बंगाल के चुनाव में इस बार जाति बड़े फैक्टर के रूप में निकलकर आई है। इससे पहले पश्चिम बंगाल के चुनावों में ऐसा नहीं हुआ था। लेकिन इस बार एक ओर जहाँ मतुआ समुदाय बड़ा फैक्टर साबित हो रहा है, वहीं आदिवासी और कुर्मी समाज पर भी सभी की नज़र है। सीएए-एनआरसी पर ढुलमुल नीति और विधानसभा चुनाव में उचित हिस्सेदारी नहीं मिलने के कारण मतुआ समाज की बीजेपी के प्रति नाराज़गी बढ़ी है। मतुआ समाज के बड़े नेताओं में शुमार और बनगांव से बीजेपी सांसद शांतनु ठाकुर के पिता मंजूल कृष्ण ठाकुर ने बीजेपी पर वादाख़िलाफ़ी का आरोप लगाया कि उनके समाज से किसी को भी इस बार विधानसभा चुनाव में एक भी टिकट नहीं दिया।
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