पश्चिम बंगाल की राजनीति में मुसलिम वोटों को लेकर मारामारी शुरू हो ग़यी है। पहले असदउद्दीन ओवैसी और अब राज्य के फुरफुरा शरीफ़ दरगाह के पीरज़ादा अब्बास सिद्दीक़ी ने ऐलान किया है कि वे अपनी पार्टी बना चुनाव लड़ेंगे। ये वही पीरजादा सिद्दीक़ी हैं, जो भारतीय जनता पार्टी को 'देश का दुश्मन' क़रार देते आये हैं।
अब सवाल यह है कि उनकी नई राजनीतिक मुहिम से क्या बीजेपी को फायदा पँहुचाने के लिये है? क्या वे ममता को कमज़ोर करने के लिये यह काम कर रहे हैं या फिर उनके इरादे कुछ और हैं? क्या मुसलमान वोटर वाकई ममता को छोड उनकी पार्टी को वोट भी देगा, यह भी बडा सवाल है?
2,200 मसजिदों पर नियंत्रण
2,200 मसजिदों पर सीधे या परोक्ष नियंत्रण रखने वाले फुरफुरा शरीफ़ की मोर्चेबंदी से राज्य के सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का मुसलमान वोट बिखरेगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह सबकुछ इस पर निर्भर करता है कि अब तक राजनीति और धर्म को अलग रखने वाला मुसलिम समुदाय इस पर क्या राय बनाता है।
पश्चिम बंगाल का मुसलमान वोटर अब तक धर्मगुरुओं के आदेश पर वोट नहीं देता आया है और न ही किसी धर्मगुरु ने इस तरह का कोई फ़तवा अब तक जारी किया है। लेकिन यदि धर्मगुरु स्वयं चुनाव के मैदान में उतर जाएँ तो क्या होगा, लोगों की निगाहें इस पर टिकी हैं।
क्यों अहम है फुरफुरा शरीफ़?
राजधानी कोलकता से लगभग 45 किलोमीटर दूर हुगली ज़िला स्थित फुरफुरा शरीफ़ का स्थान राज्य के मुसलमानों के बीच महत्वपूर्ण इसलिए है कि यहाँ हज़रत अबू बक़र सिद्दीक़ी की मज़ार है, जो पश्चिम बंगाल के मुसलमानों के लिए अज़मेर शरीफ़ के बाद सबसे अहम है। उनके पाँच बेटों की मज़ारें भी यहीं है, जिन्हें 'पंच हुज़ूर किब्ला' कहा जाता है।
अबू बकर सूफ़ी संत तो थे ही, उन्होंने सामाजिक उत्थान के लिए भी काम किया था। उन्होंने अनाथालय, मदरसा, लड़कियों के लिए स्कूल और मसजिदें बनवाई थीं। लड़कियों की शिक्षा के लिए पहला स्कूल सिद्दीक़ा हाई स्कूल उन्हीं का शुरू किया हुआ था।
हज़रत अबू बक़र सिद्दीक़ी ने एक नए समंप्रदाय की नींव डाली थी, जिसका नाम है 'सिलसिला-ए-फुरफुरा शरीफ़'। यहाँ हर साल मार्च महीने के 5,6, और 7 तारीख को मुसलमानों का जमावड़ा होता है, जिसमें लाखों लोग भाग लेते हैं।
फुरफुरा शरीफ में 1375 में मुक़लिश ख़ान की बनवाई एक मसजिद भी है, जहाँ हर साल उर्स के मौके पर लाखों मुसलमान जमा होते है।
फुरफुरा शरीफ़ की कामयाबी इसमें भी है कि इसके अपने संप्रदाय सिलसिला-ए-फुरफुरा शरीफ़ के अलावा दूसरे मुसलमान भी इससे जुड़े हुए हैं। राज्य के लगभग 2,200 मसजिद प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इससे जुड़े हुए हैं।
इसका नतीजा यह है कि फुरफुरा शरीफ़ का प्रभाव हुगली के अलावा उत्तर चौबीस परगना, दक्षिण चौबीस परगना, कोलकाता, हावड़ा और दिनाजपुर ज़िलों के मुसलमानों पर भी है। इन ज़िलों में लगभग 90 विधानसभा सीटें हैं।
किसे वोट करते हैं मुसलमान?
यहाँ मुसलमानों की तादाद 30 प्रशिशत के आसपास है। इस इलाक़े में तृणमूल कांग्रेस का अच्छा खासा असर है और वह सबसे बड़ी पार्टी है। किसी समय इस पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी का दबदबा था, लेकिन उसके पराभव के बाद तृणमूल कांग्रेस का कब्जा हो गया है, या यूं कह सकते हैं कि वहाँ तृणमूल कांग्रेस के प्रभाव बढ़ने के कारण सीपीआईएमएस का पराभव हुआ।
पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से के ज़िलों मालदा, मुर्शिदाबाद, रायंगज, उत्तर दिनाजपुर और दक्षिण दिनाजपुर में कांग्रेस का असर पहले से ही रहा है। यह वह इलाक़ा है जहाँ से ए. बी. ए. गनी ख़ान चौधरी, प्रियरंजन दासमुंशी और अब अधीर रंजन चौधरी हैं, जो लोकसभा में कांग्रेस के नेता भी हैं। कांग्रेस को उखाड़ कर वहाँ सीपीआईएम ने कब्जा जमाया और उसे उखाड़ने की कोशिश तृणमूल कांग्रेस कर रही है, लेकिन उसे आंशिक कामयाबी ही मिली है।
क्यों नाराज़ हैं पीरज़ादा?
तृणमूल के लिए पश्चिम बंगाल के दक्षिणी इलाक़े के मुसलमान ही सबसे पक्के वोटर हैं। लेकिन फुरफुरा शरीफ़ के पीरज़ादा अब उसे बिखेरने में लगे हैं। उनकी शिकायत है कि तृणमूल कांग्रेस ने मुसलमानों को वोट बैंक समझा, उनका वोट हासिल करने के लिए ऐसे कदम उठाए, जिससे ऐसा लगा कि मुसलमानों का तुष्टीकरण हुआ है, लेकिन वाकई में मुसलमानों के हाथ कुछ नहीं आया, वे आज भी पहले की स्थिति में ही हैं।
पीरज़ादा का कहना है कि कांग्रेस और सीपीआईएम समेत सभी राजनीतिक दलों ने मुसलमानों का इस्तेमाल किया, लेकिन सबसे अधिक नुक़सान तृणमूल कांग्रेस और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की वजह से हुआ है।
वे उदाहरण देते हैं कि उन्होंने ममता बनर्जी से मुलाक़ात कर गुजारिश की कि एनआरसी के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट जाएं, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया।
मुसलमानों की पार्टी क्यों?
पीरज़ादा अब्बास सिद्दीक़ी का कहना है कि जब एनआरसी जैसे मुद्दे पर किसी पार्टी ने उनका साथ नहीं दिया तो उन्होंने सोचा कि किसी दल को वोट देकर जितवाने से बेहतर है कि खुद अपनी पार्टी हो ताकि किसी के पास हाथ नहीं फैलाना पड़े। यहीं से उनके मन में पार्टी गठित करने का विचार आया।
फुरफुरा शरीफ़ के पीरज़ादा की निगाह सिर्फ मुसलमान वोटरों पर ही नहीं, दलितों और आदिवासियों पर भी है। इसलिए वे अपनी पार्टी शुरू करने के बाद छोटी-छोटी आठ पार्टियों को लेकर एक मोर्चा बनाना चाहते हैं।
इस मोर्चे में ऑल इंडिया मजलिस-ए-मुत्तहिदा-मुसलिमीन (एआईएमआईएम) भी होगा। इसके नेता असदउद्दीन ओवैसी ने अब्बास सिद्दीक़ी से मुलाक़ात भी की है। यह मोर्चा लगभग 90 सीटों पर चुनाव लड़ सकता है, जिसमें 40-45 सीटों पर पीरज़ादा की अपनी पार्टी उम्मीदवार उतारेगी।
सवाल यह है कि फुरफुरा शरीफ़ के पीरज़ादा की राजनीतिक अपील का क्या असर होगा। धार्मिक मामलों में तो लोग उनकी बात सुनते हैं, पर क्या वे वोट भी उनके कहने पर देंगे?
जो लाखों लोग लोग उर्स के मौके पर फुरफुरा शरीफ़ में जमा होते है, क्या वे पोलिंग बूथ पर लाइन लगा कर पीरज़ादा की पार्टी को वोट भी देंगे?
धर्मगुरु के कहने पर देंगे वोट?
पश्चिम बंगाल की राजनीति कुछ साल पहले तक धर्मगुरुओं से संचालित नहीं होती थी। यहां के मुसलमान किसी इमाम के कहने पर वोट नहीं देते थे। दिल्ली की जामा मसजिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी का जब 1980 के दशक में देश के मुसलमानों पर दबदबा था या ऐसा वे दावा करते थे, उस समय भी उनके कहे मुताबिक पश्चिम बंगाल के मुसलान वोट नहीं करते थे।
1980 के जिस आम चुनाव में इमाम बुखारी ने कांग्रेस को वोट देने की अपील मुसलमानों से की थी, जिसे फ़तवा कह कर प्रचारित किया गया था, उसमें पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से 40 पर वाम मोर्चा उम्मीदवारों की जीत हुई थी। उसके बाद 1982 के विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चा को 52 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे और सीपीआईएम को अकेले बहुमत मिल गया था।
मुसलिम तुष्टीकरण?
ममता बनर्जी ने सत्ता में आने के बाद सीपीआईएम के मुसलिम आधार को तोड़ने के लिए कई ऐसे कदम उठाए, जिसे लेकर बीजेपी उन पर मुसलिम तुष्टीकरण का आरोप लगाती है।
इमामों के वेतन, मसजिदों और वक़्फ़ बोर्ड के लिए आर्थिक अनुदान जैसे कदमों से आम मुसलमानों को भले ही बहुत फ़ायदा नहीं हुआ हो लेकिन यह संकेत तो गया कि सरकार उन्हें खुश करना चाहती है। शायद ममता बनर्जी भी यही चाहती थीं कि इस तरह का संकेत मुसलमानों में जाए।
ममता बनर्जी ने राजनीतिक रूप से कट्टर मुसलिम संगठनों से हाथ मिलाया और उनके नेताओं को आगे बढ़ाया। इसका एक उदाहरण हैं सिद्दीकुल्ला चौधरी, जो जमीअत-उलेमा-ए-हिंद के हैं। वे तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुए, बर्दवान के मंगलकोट से चुनाव लड़ा और राज्य सरकार में मंत्री हैं।
कट्टरपंथी मुसलिम संगठनों से नज़दीकी
ये वही सिद्दीकुल्ला चौधरी हैं, जिनके संगठन जमीअत-उलेमा-ए-हिंद ने बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन के ख़िलाफ़ बड़ा आन्दोलन चलाया था। उसका नतीजा यह हुआ था कि वाम मोर्चा के बड़े कैडर तक तसलीमा को दी गई सुरक्षा वापस लेने का दबाव पार्टी पर बनाने लगे और अंत में तसलीमा को पश्चिम बंगाल छो़ड़ना पड़ा। वे वहाँ से जर्मनी चली गईं। फ़िलहाल तसलीमा दिल्ली में रहती हैं, बीजेपी की सरकार उनका वीज़ा बढ़ाती रहती हैं और वे उसके हर मुद्दे पर चुप्पी साधे रहती हैं।
यह भी सही है कि ममता बनर्जी ने ऐसे कदम भी उठाए, जिससे आम मुसलमान को फ़ायदा होता हो। उन्होंने नौकरी व शिक्षा में पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण की सिफ़ारिश को लागू किया, अंग्रेजी माध्यम के मदरसे खुलवाए, मदरसों व वक्फ़ बोर्ड को अब तक का सबसे बड़ा अनुदान दिया। पर उसका ज़मीनी स्तर पर नतीजा दिखने में समय लगेगा। फिलहाल उन्हें मुसलिम जमातों का सामना करना है।
पश्चिम बंगाल में कट्टरपंथी मुसलिम संगठनों को चारा-पानी ममता सरकार ने ही दिया और वे अब अधिक हिस्सेदारी की माँग कर रहे हैं। ऐसे में चुनाव के ठीक पहले यदि एआईएमआईएम पश्चिम बंगाल के मुसलमानों के दरवाजे पर दस्तक देता है या फुरफुरा शरीफ़ के पीरज़ादा मुसलमानों के लिए अलग पार्टी बनाते हैं तो इसकी भी ज़िम्मेदारी ममता बनर्जी पर ही जाती है। लेकिन ये मुसलमान वोटर अंत में क्या करेंगे, वे ममता दीदी के साथ रहेंगे या किसी मुसलिम संगठन का हाथ थामेंगे, इसका फ़ैसला अभी करना जल्दबादी होगी।
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