सितंबर 2020 में बने तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे किसान आन्दोलन ने एक बार फिर से किसानों की खुदकुशी के मुद्दे को बीच बहस में ला दिया है।
देश की 70 प्रतिशत आबादी के खेती-किसानी पर निर्भर रहने के बावजूद क्यों कोई सरकार उनकी मूलभूत समस्याओं का समाधान खोजने में गहरी दिलचस्पी नहीं लेती है या अब तक समाधान ढूंढ नहीं पायी है।
60 हज़ार करोड़ के क़र्ज़ से क्या हुआ?
मनमोहन सिंह सरकार ने पूरे देश के किसानों के लिए कृषि ऋण माफ़ी चलाई थी और उस पर लगभग 60 हज़ार करोड़ रुपए खर्च किए थे। उसके बावजूद कृषि-ऋण की समस्या का समाधान क्यों नहीं हुआ और उसके बाद भी किसानों की आत्महत्या का सिलसिला क्यों नहीं रुका, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य, सब्सिडी और दूसरे उपायों के बावजूद किसानों को उपज का उचित मूल्य क्यों नहीं मिल पाता है, क्यों वे कृषि के लिए क़र्ज़, उपज की कीमत नहीं मिलने से घाटा, घाटा पाटने के लिए क़र्ज और क़र्ज़ चुकाने के लिए एक और क़र्ज़ में उलझते चले जाते हैं?
2,96,438 आत्महत्याएँ
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार, 1995 से 2018 तक 2,96,438 किसानों ने आत्महत्या की हैं। सबसे ज़्यादा 18,241 मामले 2014 में पाए गए। किसानों के आत्महत्या के मामले में सबसे बुरी स्थिति महाराष्ट्र की है। इस राज्य में 1995 से अब तक 60,750 किसानों ने आत्महत्या की। उसके अलावा ओडिशा, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ व दूसरे राज्यों में भी ये हादसे हुये हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े यह भी दर्शाते हैं कि आकार और आबादी के हिसाब से देश के दो सबसे बड़े राज्य बिहार और उत्तर प्रदेश में किसानों की आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र, केरल और पुद्दुचेरी की तुलना में 10 गुणे कम हैं।
नहीं बच सका पंजाब!
कृषि के मामले में देश का सबसे खुशहाल राज्य पंजाब भी इससे नहीं बच सका। वहाँ भी किसानों ने बड़ी तादाद में ख़ुदकुशी की हैं। ज़ी न्यूज़ के अनुसार, पिछले 10 साल में पंजाब में 3,500 किसानों ने आत्महत्या की, जिनमें से 97 प्रतिशत सिर्फ मालवा क्षेत्र के मामले हैं।
मालवा वह इलाक़ा है, जहाँ कपास, गेहूं और चावल की खेती मुख्य रूप से होती है।
बढ़ती ख़दकुशी!
इसके मुताबिक़, 2003 में पंजाब में 26 किसानों ने आत्महत्या की थी, लेकिन यह आँकड़ा 2014 में बढ़ कर सालाना 98 हो गया। पंजाब में आत्महत्या करने वाले ये सभी किसान सिख थे, उनमें से 97 प्रतिशत सामान्य वर्ग के थे, यानी अनुसूचित या पिछड़ी जातियों के नहीं थे।मुनाफ़े की खेती
इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि धान की खेती के मामले में किसानों को प्रति एकड़ 38,443 रुपए मिले थे, जबकि उन्होंने प्रति एकड़ 12,211 रुपए खर्च किए थे, यानी वे मुनाफ़े की खेती कर रहे थे।
गेहूं पर प्रति एकड़ 9761 रुपए का खर्च पड़ा, जबकि आमदनी 28,601 रुपए की हुई, यानी इसमें भी किसानों को फ़ायदा ही हुआ।
लेकिन कपास की खेती करने वालों का हाल बुरा पाया गया। शोध से पता चला कि प्रति एकड़ कपास की खेती पर 7190 रुपए का खर्च बैठा, लेकिन किसान को सिर्फ 3,376 रुपए ही मिले।
छोटा किसान, बड़ा क़र्ज़!
लेकिन इन किसानों ने बड़े-बड़े क़र्ज़ ले रखे थे। लगभग 37 प्रतिशत किसानों ने सहकारी बैंकों से औसतन 95,000 रुपए का क़र्ज़ लिया था। इसके अलावा 57 प्रतिशत किसानों ने सरकारी संस्थाओं से ऋण लिए थे, जिसमें से ज़्यादातर ने 4.33 लाख रुपए का क़र्ज़ लिया था।
इस अध्ययन में पाया गया कि किसानों की खुदकुशी की बड़ी वजह क़र्ज़ थी, ख़ास कर साहूकारों से लिए गए क़र्ज़। इसके अलावा आमदनी का दूसरा विकल्प नहीं होना भी एक कारण था।
यह हाल उस राज्य पंजाब का है, जिसे हरित क्रांति का रोल मॉडल माना जाता है। यह वह राज्य है, जहाँ के किसान संपन्न हैं।
ख़ुदकुशी क्यों?
यह भी संयोग नहीं है कि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन में ऐसे ही किसान सबसे ज़्यादा हैं। वे पंजाब के हैं, सिख हैं, क़र्ज में डूबे हुए हैं, मझोले और सीमांत किसान हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़, खुदकुशी के जितने मामले हैं, उनमें से 11.2 प्रतिशत किसानों के हैं।
क्या कहना है अर्थशास्त्रियों का?
भारत सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार और विश्व बैंक के अर्थशास्त्री अरविंद पानगढ़िया का मानना है कि इनमें से सिर्फ 25 प्रतिशत ख़ुदकुशी खेती से जुड़े कारणों से हुई हैं। कृषि-ऋण और दूसरे कारणों से ज़्यादा आत्महत्याएँ हुई हैं।
2014 में हुए एक अध्ययन से यह पता चलता है कि कॉफ़ी, कपास जैसे नकद फसल करने वाले छोटे किसान जिनके पास एक हेक्टेयर या उससे कम ज़मीन है, ऐसे लोगों में खुदकुशी के अधिक मामले पाए गए।
2012 में विदर्भ में हुए एक शोध से पता चलता है कि क़र्ज, फसल का खराब होना, फसल की कम कीमत, नशाखोरी, तनाव और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों की वजह से अधिक खुदकुशी के मामला सामने आए। इसके पहले 2004 और 2006 में किए गए अध्ययन से यह बात सामने आई कि क़र्ज़, खराब फसल, फसल की कम कीमत, कम आय और आय के वैकल्पिक साधन नहीं होने से किसानों ने आत्महत्या की।
जयति घोष, प्रभात पटनायक और उत्सा पटनायक जैसे मशहूर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि कृषि क्षेत्र के सुधार, निजीकरण व भूमंडलीकरण किसानों की आत्महत्या की मूल वजहें हैं।
क़र्ज़ चुकाने के लिए क़र्ज़
कई समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि महाराष्ट्र में होने वाली आत्महत्याओं का संबंध जेनेटिकली मोडीफ़ाइड (जीएम) फसलों से भी है। जेनेटिकली मोडीफ़ाइड उन फसलों को कहते हैं जिनकी डीएनए संरचना में बदलाव कर दिए जाते हैं।
इसे इस रूप में समझा जा सकता है कि महाराष्ट्र में किसानों ने जीएम फ़सलों के लिए गाँवों के सूदखोरों से क़र्ज़ लिए, जो बहुत ही ऊँची दरों पर मिले, कई मामलों में यह ब्याज दर सालाना 60 प्रतिशत तक थी।
पैसे समय पर नहीं चुकाने की स्थिति में इन सूदखोरों ने कम कीमत पर फसल बेचने को मजबूर किया, नतीजा यह हुआ कि किसानों की लागत भी नहीं निकली। उस घाटे को पाटने के लिए उन्होंने फिर क़र्ज़ लिए और उस क़र्ज़ को चुकाने के लिए एक और क़र्ज़।
इस तरह किसान क़र्ज़ के ऐसे जाल में फँसते चले गए जहाँ से निकलना मुमकिन नहीं हुआ।
जीएम क्रॉप
इनवायरनमेंटल साइंस यूरोप ने एक अध्ययन में पाया कि बी. टी. कॉटन भारत में लाने की वजह से पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा और किसानों की स्थिति में भी गुणात्मक सुधार नहीं हुआ। इसे किसानों की ख़ुदकुशी से जोड़ा गया, लेकिन कुछ दूसरे शोधकर्ताओं ने यह भी कहा कि इसे साबित करने के लिए पर्याप्त आँकड़े नहीं हैं और यह सिर्फ अनुमान पर आधारित है।
यह तो साफ़ है कि ज़्यादातर किसानों ने क़र्ज़ के जाल में फँस कर ही आत्महत्या की है। उनकी फसल खराब हो गई, उन्हें फसल की उचित कीमत नहीं मिली, आय का दूसरा कोई साधन नहीं था, वे तनावग्रस्त हो गए और घातक कदम उठा लिया।
तो क्या क़र्ज़ माफ़ी से इस तरह की आत्महत्याएं रोकी जा सकती हैं? अगली कड़ी में इस पर नज़र डालेंगे।
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