पूरे देश में आग लग गई है। इस बार नौजवान सड़कों पर हैं। बदहवासी में सरकारी दफ़्तरों, रेल गाड़ियों पर अपना ग़ुस्सा उतारते हुए। तोड़ फोड़ और आगजनी करते हुए। पत्थर चलाते हुए। ये दृश्य देखकर सरकार और सरकार के पत्रकार सकते में हैं। ये सब अचानक कहाँ से निकल पड़े? ये इतने क्रुद्ध क्यों हैं? उससे भी पहले सवाल यह है कि ये हैं कौन? क्या इन्हें पत्थरबाज कहा जा सकता है? पत्थरबाज संज्ञा है या विशेषण?
पत्थरबाज तो वे होंगे जिनका शौक या जिनकी आदत पत्थर चलाने की है। वह संज्ञा या विशेषण तो हमारी मीडिया ने इस देश के ख़ास इलाके या समुदाय के लिए निर्धारित कर दी है। ये नौजवान तो उनमें से नहीं हैं। लेकिन जो वे कर रहे हैं, वे हमारे अभिजन कभी नहीं करते।
फिर ये कौन हैं और इन्हें क्या कहें? तीन रोज़ पहले तक इनके हाथ में न पत्थर थे, न डंडे और लाठियां। ये सब गाँवों, क़स्बों में जाड़ा, गर्मी हो या बरसात, सुबह-शाम दौड़ते ही जाते थे। एक कभी न ख़त्म होने वाली सड़क पर ये दौड़ रहे थे, एक ऐसी मंज़िल की ओर जो कभी न कभी आएगी, इस विश्वास या आशा के बल पर ये इस अनंत दौड़ में शामिल थे। कब आएगी, उसका पता इन्हें न था।
अग्निपथ और अग्निवीर में अग्नि शब्द की उदात्तता के झाँसे में नौजवान नहीं आए। उन्हें सरकार की यह तिकड़म ऐसी आग की तरह दीखी जो उनके अतीत, वर्तमान और भविष्य को झुलसा ही नहीं देगी बल्कि राख कर देगी।
गुमराह करने की पुरानी शिकायत
सरकार फिर अपनी पुरानी शिकायत दुहरा रही है। यह कि देश को आगे ले जाने की उसकी क्रांतिकारी इच्छा को ये नादान नौजवान समझ नहीं पा रहे। या यह कि ये तो भोले-भाले हैं, सर झुकाए दौड़ते जानेवाले। विद्रोह तो इनके खून में नहीं। ज़रूर इन्हें किसी ने गुमराह कर दिया है। वैसे ही जैसे खेतीवाले कानूनों के बाद किसानों को गुमराह किया गया था या इस सरकार के आने के तुरत बाद भूमि अधिग्रहण के कानून के खिलाफ लोगों को भ्रमित कर दिया गया था या नागरिकता के कानून के बाद मुसलमानों को कुछ षड्यंत्रकर्ताओं ने गुमराह किया था।
सरकार समाज के जिस तबके का भला करना चाहती है, वह अपना भला चाहता ही नहीं। या फिर विपक्ष या छिपे हुए षड्यंत्रकर्ता उसका भला होने नहीं देना चाहते। इसीलिए ये नौजवान इस योजना का लाभ समझे बिना सड़क पर निकल आए हैं।
लेकिन इसका उत्तर सरकार के पास नहीं है कि उम्मीदवारों के आंदोलन के शुरू होते ही उसने योजना में परिवर्तन क्यों शुरू कर दिया। पहले इस साल के लिए उम्र सीमा में छूट, फिर दूसरे मंत्रालयों की तरफ़ से वायदे पर वायदे कि एक बार फ़ौज़ में चार साल काम कर लेने के बाद उनकी नौकरियों में इन्हें प्राथमिकता दी जाएगी। यानी हर जगह इनके लिए आरक्षण होगा।
आंदोलन की तीव्रता और उग्रता से घबरा कर मंत्रीगण ऊटपटाँग बयान भी दे रहे हैं कि ‘अग्निवीरों’ को हज्जाम, प्लमंबर, बिजली मिस्त्री, चौकीदार जैसे काम दिए जाएँगे। भारतीय जनता पार्टी के एक नेता ने आश्वासन दिया कि पार्टी दफ़्तर के लिए सुरक्षा गार्ड चुनते समय अग्निवीर को प्राथमिकता देंगे। इंदिरा गाँधी खुला विश्वविद्यालय ने इनके लिए अलग से पाठ्यक्रम की घोषणा की जिसके ज़रिए अग्निवीरों को कुछ हुनर दिए जाएँगे।
ये सब वायदे हैं। अलावा इसके कि नौजवानों के लिए उसके पास क्या काम हैं, उनकी सूची से मालूम होता है कि सरकार इन्हें किस नज़र से देखती है। यह भी कि इस सरकार के बाक़ी वायदों की तरह ही वे वायदे ही क्यों नहीं रह जाएँगे, इसका कोई उत्तर नहीं है। इससे यह भी स्पष्ट नहीं है कि इस योजना का उद्देश्य आख़िर क्या है। क्या वह फ़ौज को और जवान और चुस्त बनाने के मक़सद से बनाई गई है, पेंशन आदि का पैसा बचाने के लिए उसे सोचा गया है या इन नौजवानों को इन कामों के लिए सेना का प्रशिक्षण देना इसका मक़सद है। क्या यह सब कुछ है और शायद कुछ भी नहीं है।
सरकार की किसी भी बात पर भरोसा कैसे करें? अभी दो रोज़ पहले सरकार के मंत्री और भाजपा के नेता कह रहे थे कि अग्निपथ से एक छोटा हिस्सा ही बहाल होगा, बाक़ी नियमित बहाली चलती रहेगी।लेकिन इन पंक्तियों के लिए लिखे जाते वक्त यह पढ़ा कि अब सारी बहालियाँ इसी रास्ते होंगी? क्या यह अप्रत्यक्ष रूप से धमकी है और एक तरह से प्रत्याशियों पर दबाव डाला जा रहा है कि उनके पास इसे क़बूल करने एक अलावा और कोई चारा नहीं है?
लेकिन जैसा कुछ लोग कह रहे हैं कि फ़ौज वह आख़िरी जगह है जहाँ सरकार सारे रोज़गार को ठेके पर ला देने के प्रयोग की समाज से स्वीकृति की जाँच कर रही है। इसके अलावा ‘अग्निवीर’ की बहाली की जो नीति बनाई गई है, उसे सेना में काम कर चुके और उसे अच्छी तरह जाननेवाले ख़तरनाक मानते हैं क्योंकि वह फ़ौज के ढाँचे और उसकी संरचना को पूरी तरह छिन्न भिन्न कर देगी।
यह सरकार जो पिछले आठ सालों से सेना और सैनिक का जाप करते हुए हर किसी को नीचा दिखला रही थी अब यह कह रही है कि आख़िर सैनिकों पर इतना खर्च क्यों किया जाए।
अगर हम कम पैसे में फ़ौजी बना सकते हैं तो फिर नियमित बहाली क्यों? ठेके पर, अस्थायी क्यों नहीं? उसे मालूम है कि इस देश में हमेशा ऐसे लोगों की तादाद काफ़ी होगी जो दूसरों की सामाजिक सुरक्षा की माँग को ज़्यादती मानते हैं। वह चाहे नोटबंदी से हुई तबाह हुए लोग हों या कोरोना के समय बेसहारा जन, उनकी सरकार से सहारे की माँग ढेरों लोगों को नागवार गुजरी थी।
ऐसे जनमत के बल पर ही शायद सर्वोच्च न्यायालय ने भी सड़क पर उस वक्त भटक रहे मज़दूरों की आर्थिक सहायता की माँग को ठुकरा दिया था। इसलिए ताज्जुब नहीं कि इस वक्त सड़क पर अपने क्रोध में जल रहे इन नौजवानों की नियमित बहाली और सामाजिक सुरक्षा की माँग कई लोगों को बेतुकी मालूम पड़े।
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