इस वक़्त जब भारत के लोग अभिनन्दन शब्द का नया सरकारी अर्थ समझने की कोशिश कर रहे हैं और पाकिस्तान के लोग इस पर विचार कर रहे हैं कि पकड़े गए हिन्दुस्तानी फ़ौज़ी को छोड़ने की ‘उदारता’ बड़ी है या कश्मीर पर क़ब्जे की एक नातमाम जंग, सीमा के इस पार और उस पार से कुछ घरों से विलाप उठ रहा है। लेकिन यह विलाप राष्ट्रीय शोक का विषय नहीं बन पाता क्योंकि वह युद्ध में गोलियाँ चलाते लोगों की ‘शहादत’ नहीं है।
जब सीमा के इस पार पड़ी थीं लाशें
तब सीमा के उस पार पड़ी थीं लाशें
सिकुड़ी ठिठुरी अनजानी लाशें
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हम क्या रुख लेंगे यह इस पर निर्भर था
किसका मरने से पहले उनको डर था
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पैदल को हम केवल तब इज़्जत देंगे
जब देकर के बन्दूक उसे भेजेंगे
या घायल से घायल अदले-बदलेंगे
मारे जा रहे दोनों ओर के लोग
अल जज़ीरा लिखता है कि पाकिस्तान द्वारा भारतीय लड़ाकू पायलट अभिनंदन वर्तमान को भारत को वापस कर देने के बाद भी दोनों देशों के बीच गोलाबारी जारी है। भारत की सीमा के भीतर दो बच्चे और उनकी माँ की मौत हो गई। क्या हम यह जानना चाहेंगे कि वे हिंदू थे या मुसलमान? कुछ बच्चों के पिता गंभीर रूप से ज़ख़्मी हैं और अस्पताल में हैं। पकिस्तान की तरफ़ भी एक बच्चे और एक वयस्क के मारे जाने की बात सरकार ने बताई है। साथ ही दो फ़ौज़ी भी मारे गए हैं। मारे गए इन लोगों में से कोई भी किसी देश के लिए ख़बर नहीं है।
इस बीच कश्मीर में और मौतें भी हुई हैं और उन्हें दुर्घटना कहा जाएगा। लेकिन ध्यान देने पर मालूम होगा कि वे इस राष्ट्रवादी युद्धोन्माद का ही नतीजा हैं।
कश्मीर को मिलती है सज़ा
जम्मू-कश्मीर के ऊधमपुर ज़िले के चंदेह गाँव में शनिवार को एक बस गहरी खाई में जा गिरी जिसकी वजह से छह लोग मारे गए और बाक़ी घायल हो गए। ड्राइवर बस को एक छोटे और अंदरूनी रास्ते से ले जाने की कोशिश कर रहा था क्योंकि राजपथ पिछले 5 दिनों से बंद था। क्यों बंद था? क्योंकि युद्ध की आशंका की सज़ा हमेशा कश्मीर को इसी तरह दी जाती है। आवागमन के सारे रास्ते बंद कर दिए जाते हैं, इन्टरनेट की गति धीमी कर दी जाती है और दूसरी पाबंदियाँ भी लगा दी जाती हैं।
जिंदगी जीने की ज़िद नहीं छोड़ते
युद्ध के बीच भी लोग रोज़मर्रा की तरह जीने की जिद नहीं छोड़ते, यह अफ़सोस हम कर सकते हैं और कह सकते हैं कि वे अपनी इस मूर्खता के शिकार हुए हैं। हम, जो युद्ध से हमेशा ही सुरक्षित दूरी पर रहेंगे! हमारी रोजाना की ज़िंदगी पर कभी भी इसका ऐसा असर होने की आशंका हमें नहीं है। हम युद्ध को चुइंगम की तरह अपनी ज़ुबान के नीचे चुभलाते रह सकते हैं।
आश्चर्य नहीं कि जो सरहद के जितना दूर होता है, वह उतना ही युद्धाकांक्षी और युद्धभोगी होता है। शायद ही किसी देश का कोई सैनिक युद्ध चाहता हो।
कश्मीर में हुई मौतों को इसीलिए मुख्य भारत में ख़बर की इज्ज़त नहीं बख़्शी जाती। अगर इन्हें जगह मिलेगी भी तो इसलिए कि हम बता सकें कि पाक कितना क्रूर है, बिना यह बताए कि हमारे गोलों ने भी सरहद पार जानें ली हैं।
समझना होगा कश्मीरियों का दर्द
युद्ध की अस्वाभाविकता को समझने के लिए हर ऐसी मौत को हत्या कहना होगा। यह समझना होगा कि एक बड़ी आबादी, सरहद के इस पार और उस पार अपनी ज़िंदगी को हमेशा दो बमबारियों के बीच की दूरी की तरह नापती है, जैसा महमूद दरवेश ने बहुत पहले और बहुत दूर रहते हुए लिखा था। संदर्भ क़तई अलग है लेकिन कश्मीरी जन दरवेश को पढ़कर शायद आप अपना शायर मानें तो ताज्जुब नहीं होगा -
जब लड़ाकू जहाज़ गायब हो जाते हों, फ़ाख़्ताएँ उड़ती हैं
उजली-उजली आसमान के गालों को पोछती हुई
अपने आज़ाद पंखों से...ऊपर और ऊपर
फ़ाख़्ताएँ उड़ती हैं उजली-उजली, मैं मनाता हूँ
कि आसमान असली हो (दो बमों के बीच गुजरते हुए आदमी ने मुझसे कहा)
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