हमारे अधिकतर न्यायाधीश शेक्सपियर को तो उद्धृत करते हैं लेकिन जय शंकर प्रसाद का शायद ही उन्हें पता हो। हो या न हो, अधिकार को सांसारिक दायरे में इस्तेमाल करने वाले कब उसकी सारहीनता का अनुभव कर पाते हैं।
उत्तर-पूर्व भारत का अविभाज्य अंग अवश्य होगा लेकिन उसकी चिंताओं से राष्ट्रीय नींद में कोई ख़लल नहीं पड़ता।
शिलाँग टाइम्ज़ की इस हिमाक़त पर उच्च न्यायालय की भृकुटि तन गई और मुखीम और उनके अख़बार की प्रकाशक शोभा चौधरी को अदालत की तौहीन करने के चलते अदालत के उठने तक एक कोने में बैठने और एक हफ़्ते के भीतर दो-दो लाख रुपये का जुर्माना भरने की सज़ा सुनाई गई। फ़ैसला देने वाली पीठ में ख़ुद न्यायमूर्ति सेन थे। यह इत्तफ़ाक़ ही है कि जिस दिन शुक्रवार को यह फ़ैसला सुनाया गया, न्यायमूर्ति सेन उस दिन रिटायर भी हो रहे थे। अदालत
जब अपने फ़ैसले पर उठे सवाल का फ़ैसला भी आप ख़ुद करें तो वह किस प्रकार न्याय है, इसे समझना सामान्य बुद्धि के परे है। लेकिन इस फ़ैसले का मतलब कहीं अधिक गंभीर है। यह नागरिकों के आलोचना के अधिकार पर ही कुठाराघात है।
बहादुर संपादक हैं मुखीम
मुखीम हमारे देश की गिनी-चुनी महिला संपादकों में से एक हैं। साथ ही यह कहना होगा कि वे कुछ बहुत ही बहादुर संपादकों में से एक हैं। मुखीम हमारे लिए क़ीमती हैं। वह अपने समाज की भी सख़्त आलोचक हैं। जनतांत्रिक मूल्यों को लेकर उनकी प्रतिबद्धता हमारे राष्ट्रीय संपादकों में शायद ही देखी जाती है। उनकी यह प्रतिबद्धता साहसिक भी है क्योंकि इसके चलते वह हमला भी झेल चुकी हैं।
यह सब कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए, अभी उच्च न्यायालय ने जो उनके और उनकी प्रकाशक के साथ किया है, उसकी आलोचना के लिए। मुखीम न्यायालय के निर्णय की आलोचनात्मक रिपोर्ट करके सिर्फ़ अपने धर्म का निर्वाह कर रही थीं।
मुखीम को उनके काम के लिए दंड दिया जाए, यह किसी तरह क़बूल नहीं होना चाहिए। क्या पत्रकारों की संस्थाएँ, जिनमें एडिटर्स गिल्ड भी शामिल है, इस पर ज़ुबान खोलेंगी?
जो लोग अदालत और संविधान को खुलेआम चुनौती देते घूम रहे हैं, उन्हें उनकी ओर से सम्मानित किया जाता रहा है। इससे क्या अदालत की शान बढ़ती है?
‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने का दिया था बयान
अभी हाल में इन्हीं न्यायमूर्ति सेन ने एक दूसरे प्रसंग में राय ज़ाहिर की थी कि भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बन जाना चाहिए था। यह उनके अवकाश प्राप्ति के कुछ दिन पहले का बयान था। इस ख़याल के साथ वे किस प्रकार न्याय कर रहे होंगे, यह एक दूसरा विचारणीय विषय है। क्या इसकी आलोचना होने पर भी अदालत की अवमानना होगी?
इन प्रश्नों से अलग, अदालतों को अपने व्यवहार और आंतरिक जीवन में जनतांत्रिकता और पारदर्शिता की ओर बढ़ना चाहिए। इससे उनके ऊपर समाज का विश्वास बढ़ेगा।
पैट्रिशिया मुखीम हमारे समाज के जीवन के लिए प्राणवायु जैसी हैं। उन्हें ख़ामोश करने की कोई भी कोशिश हमारे लिए ऑक्सीजन रोकने की तरह ही है। मुखीम के ख़िलाफ़ इस फ़ैसले की आलोचना होनी ही चाहिए।
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