22 जनवरी विजय और पराजय, दोनों का ही दिन है। यह बहुसंख्यकवाद के बल की विजय और धर्मनिरपेक्षता की पराजय का क्षण है। यह भारत के प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता के प्राण हरण का क्षण भी है। राज्य की सारी संस्थाएँ अपने सारे संसाधनों के साथ राम मंदिर के उद्घाटन में जुटी हुई हैं और प्रधानमंत्री ख़ुद उसका नेतृत्व कर रहे हैं। यह सब देखते हुए भारत को धर्मनिरपेक्ष कहना सिर्फ़ ख़ुद को भुलावा देना है।
विडंबना यह है कि इस क्षण को एक विराट जनतांत्रिक क्षण कह सकते हैं।आख़िर गली गली, घर-घर धनुषधारी राम की छवि के साथ भगवा पताकाएँ लहरा रही हैं। दुकानों में और विश्वविद्यालयों में इस क्षण के स्वागत और उत्सव का उल्लास महसूस किया जा सकता है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि 22 जनवरी, 2024 के लिए देशव्यापी जनगोलबंदी की गई है। जिनकी उम्र 50 से अधिक है, वे याद कर सकते हैं कि राम शिला यात्रा के समय और फिर 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद को गिराने के लिए इसी तरह की व्यापक जन गोलबंदी की गई थी। राम मंदिर के उद्घाटन के इस क्षण को इसलिए एक जनतांत्रिक भ्रम का क्षण कह सकते हैं।
जनतांत्रिक भ्रम इसलिए कि जनता स्वेच्छा से अपने अधिकार, और उसमें मात्र उसका वोट देने का अधिकार नहीं है, पवित्रता की भावना की कल्पना का अधिकार भी शामिल है, एक दल या संगठन के हवाले कर रही है।किसने यह सोचा था कि एक दिन लघु राम विराट नरेंद्र मोदी की उँगली पकड़कर अपने ‘जन्मस्थल’ पर जा रहे होंगे। यह किसने सोचा था कि राम को चिरशिशु में तब्दील कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक अनंत काल के लिए उनके अभिभावक बन बैठेगें? राम कभी बालिग़ न हो पाएँगे और उनकी तरफ़ से सारे फ़ैसले आर एस एस और भारतीय जनता पार्टी के लोग करेंगे।
इसलिए भी यह जनतांत्रिक भ्रम है कि इस क्षण में जहाँ सारे सांप्रदायिक भेदों को पाट कर एक हिंदू जन का निर्माण किया गया है, वहीं भारतीय जन कम से कम आज के लिए दो ऐसे हिस्सों में खंडित हो गया है जिनमें किसी प्रकार की संवेदनात्मक एकता नहीं है। वह है हिंदुओं और मुसलमानों के बीच का विभाजन। इस क्षण के उल्लास से हिंदुओं के एक बडे हिस्से में उत्तेजना की जो लहर उठी है उसने उनके संवेदनतंत्र को इस कदर सुन्न कर दिया है क्योंकि वे अपने पड़ोसी मुसलमानों की तकलीफ़ को महसूस नहीं कर पा रहे हैं।
आज का दिन एक साथ उल्लास का और भय का दिन है। मेरे एक मित्र ने मुझे कल रात लिखा, “खैर, पिछले कुछ समय में कई तरह के फर्क देखने सुनने को मिले हैं जैसे लिबास में, भोजन में, रंगों में आदि आदि, इसी तरह अब छुट्टी में भी फर्क होता महसूस किया हमने... एक ओर विजय, शौर्य, जश्न और उत्साह की छुट्टी तो दूसरी ओर डर और भय की छुट्टी…..!!”
यह तारीख़ बिना एक याद के पूरी नहीं होती
“आज की तारीख भारतीय इतिहास में एक अहम मोड़ के रुप में लंबे समय तक जानी जाएगी, जैसा कि 6 दिसंबर1992 को याद रखा जाता है ...!! अब से लगभग 31 साल पहले 1992 के आस पास पुरानी दिल्ली में मेरे घर से सटे पड़ोस में हिन्दू समाज के लोग रहते थे (बचपन में उनके बच्चों के साथ मैं खेलता भी था) पर अब (2024 में) नहीं, वह उस जगह से बहुत पहले जा चुके हैं, वह कहां गए ये पता नहीं! मेरे मन में 6 दिसंबर 1992 के रोज़ की कुछ धुंधली यादें ज़िंदा हैं …. उस रोज़ भी हमारे मोहल्ले (पूरानी दिल्ली) की संकरी गलियों में सन्नाटा, रंज, दुख और ख़ौफ़ का माहौल था और हमारे बड़े/बजुर्ग अमन की दुआ करते दिखते थे और आज के समय भी मुसलमान डर व भय में हैं, आज से कई रोज़ पहले से मुस्लिम समाज में ये बातें गर्दिश में हैं कि 22 जनवरी के आस पास कहीं यात्रा नहीं करनी है, घर से दूर नहीं जाना है या परिवार के साथ घर में ही समय बिताना है, सबर और अमन के साथ...!! फर्क ये है कि उस समय (6 दिसंबर 1992) अपनों से बड़ों से सबर/अमन बारे सुनते थे और अब हम-उमरों से वही सुना जा रहा है!!”
एक दूसरे ने लिखा, “ आज रात हॉस्टल में जैसे ही 12 बजा, वैसे ही जय श्रीराम (के नारे लगने लगे) वे लोग बोल नहीं रहे थे, चिल्ला रहे थे, मेरे रूम के दरवाज़े पीट पीटकर कह रहे थे कि हम मुस्लिम हैं, यह कैसा इंडिया है ?”
ऐसे हिंदुओं की संख्या बढ़ती जा रही है जो जय श्री राम बोलकर सामने वाले से भी जबरन जय श्री राम बुलवाना चाहते हैं। वे हिंदू कोई और थे और किसी और काल के थे जो नाम जाप से सुख लाभ किया करते थे।एक नये हिंदू का जन्म हुआ है जिसने राम के नाम को नारे में बदल दिया है। या मेरा यह कहना ग़लत है। इस हिंदू का जन्म 1990 के पहले हुआ था जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने राम शिला यात्रा शुरू की थी और लाल कृष्ण आडवाणी टोयोटा गाड़ी को रथ का भेस दे यात्रा पर निकले थे। मुझे पटना में उस यात्रा के पहुँचने का माहौल याद है। भगवा पट्टा बाँधे ‘रामभक्त’ गाड़ियों पर डंडे बजाकर और मोटरसाइकिल सवार लोगों से जबरन जयश्री राम बुलवा रहे थे। अब यह हिंदू वयस्क हो गया है।
उसी वक्त से यह तब्दीली हुई कि अपने धर्म के पालन का अर्थ हो गया दूसरों के माथे पर जबरन ‘जय श्री राम’ का ठप्पा गोद देना।
आम तौर पर किसी के धार्मिक उत्सव में दूसरों के लिए आमंत्रण का भाव रहता है।बड़े दिन के केक और ईद की सेवई का इंतज़ार हिंदुओं को रहता है। क्या यही बात ‘राम नवमी’ या किसी भी धार्मिक अवसर के साथ दूसरों के रिश्ते के बारे में कही जा सकती है? हिंदू उत्सव क्यों दूसरों के लिए आशंका और भय के कारण बन गए हैं, क्या हिंदू समाज इस पर कभी विचार करेगा?
“
क्या हिंदू समाज इस पर कभी विचार करेगा कि अयोध्या के इस नए राम मंदिर के उत्सव में वह अकेला है? कि उसका यह उत्सव दूसरों के लिए भय का स्रोत है? क्या वह कभी सोच पाएगा कि वह कैसा उत्सव है जिसमें दूसरे अपने घरों के कपाट बंद कर लें? वह उत्सव है या अपने वर्चस्व के उन्माद का प्रदर्शन है?
लेकिन यह विचार की नहीं, विजयोत्सव में मदहोश हो जाने की घड़ी है। क्या इस क्षण कुछ भी विसंवादी कहा जा सकता है? कहा जाना चाहिए? कहे जाने पर क्या वह सुना भी जाएगा?
लेकिन नहीं सुना जाएगा, इस आशंका से क्या वह जो कहा ही जाना चाहिए, कहा न जाए? लेखकों का तो यह भाग्य ही है कि प्रायः उन्हें सुना नहीं जाता। आख़िर हमारे एक पूर्वज ने, जिनका नाम व्यास था, व्याकुल होकर कहा ही था,
ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते।।
( मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकार कर कह रहा हूँ, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से मोक्ष तो सिद्ध होता ही है, अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं तो भी लोग उस का सेवन क्यों नहीं करते !) महाभारत, स्वर्गारोहण पर्व , पाँचवाँ अध्याय, श्लोक संख्या - 62)
एक समय आता है, जब पुकार सुनी नहीं जाती है। व्यास की तरह ही 1947 में गाँधी ने कहा था, “मैं वही हूँ एक समय जिसकी बात पर लाखों लोग खड़े हो जाते थे, लेकिन आज मेरी कोई नहीं सुनता।”
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व्यास भी पराजित थे और गाँधी भी। और पराजित आज हम भी हैं। लेकिन जैसे गाँधी ने यह स्वीकार करते हुए कि अहिंसा पराजित हुई है, कहा था कि उनके देश के लोग उसका पालन नहीं कर पाए, इससे अहिंसा का सिद्धांत ग़लत नहीं होता, देशवासी अवश्य उसकी कसौटी पर खोटे साबित हुए हैं, वैसे ही आज धर्मनिरपेक्षता ग़लत साबित नहीं हुई है, उसकी कसौटी पर समाज का बड़ा हिस्सा खोटा साबित ज़रूर हुआ है।
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