नसीरुद्दीन शाह के कुछ सेकेंड के एक बयान पर हजारों शब्द और कई घंटे सर्फ़ किए जा चुके हैं। इससे उनके सामाजिक महत्त्व का पता चलता है। नसीर साहब जैसे लोगों की बात को समाज सुनने लगे तो उसका भला ही होगा। दुर्भाग्य कि आज के भारत का समाज ऐसा नहीं रह गया है। हम किसी को तभी सुनते हैं जब वह हमारे आग्रह, पूर्वग्रह को पुष्ट कर रहा हो। इसलिए नहीं कि उसका जीवन सोचने के काम में गया है, इसलिए उसे सुनना ज़रूरी है, भले ही उससे हमें तकलीफ हो, भले ही वह हमारी पसंद के ख़िलाफ़ हो। कितना ही बड़ा बौद्धिक क्यों न हो, अगर वह हमारे आग्रह से अलग कुछ कहता है तो हम अपने आग्रह पर सोचने के बजाए उसपर टूट पड़ते हैं। नसीर साहब भी इसके शिकार हुए हैं और हो रहे हैं। अभी कुछ वक़्त पहले उन्होंने भारत में मुसलमानों की असुरक्षा को लेकर अपनी चिंता और तकलीफ जाहिर की थी तब उनपर चौतरफ़ा हमला हुआ था। सिनेमा जगत् से भी बहुत कम आवाज़ें उनके समर्थन में खड़ी हुई थीं। राजनेताओं और उद्योग जगत् के लोगों ने यह ज़रूरी भी नहीं समझा कि नसीर साहब के ख़िलाफ़ जो घृणा अभियान चलाया जा रहा है, उसकी वे आलोचना करें। उन्हें इसका सामना करने के लिए अकेला छोड़ दिया गया।
नसीरुद्दीन शाह की सलाह में दिमाग़ी आलस है
- वक़्त-बेवक़्त
- |
- |
- 6 Sep, 2021

नसीरुद्दीन शाह के संक्षिप्त वक्तव्य में भारतीय इस्लाम, मध्यकालीन बर्बरता, धार्मिक सुधार, आदि को लेकर जो नसीहत दी गई है, वह एक साथ कई बातों को कह देने की जल्दबाज़ी का नतीजा है और सुचिंतित नहीं है। वह इस्लाम और मुसलमानों को लेकर समाज में व्याप्त पूर्वग्रह को और गाढ़ा ही करती है।