2 अक्टूबर की शाम भी ढल रही है। विश्वविद्यालय परिसर में सन्नाटा था। आज हमें विभाग या विश्वविद्यालय की तरफ़ से कोई बुलावा भी नहीं आया। 2 अक्टूबर को राजकीय अवकाश है न ? फिर बुलावा क्यों?
8 साल पहले की बात है। भारत में एक नया सवेरा हुआ था। लाल क़िले से घोषणा हुई कि भारत में स्वच्छता अभियान चलाया जाएगा। इस राजकीय अभियान के लिए गाँधी से बेहतर “ब्रांड ऐंबेसेडर” और कौन हो सकता था ?
उनके विचारों से विरोध के बावजूद स्वाधीनता के पहले स्वच्छता का उनका संदेश सत्ता को रास आ गया था। आख़िर यह भारत है। वही भारत जिसमें राम के प्राणांतक आक्रमण के कारण मृत्यु की प्रतीक्षा करते रावण से शिक्षा लेने के लिए राम ने लक्ष्मण को भेजा था। जब रावण से सीखा जा सकता था तो गाँधी से भी सीखा ही जा सकता है।
इसीलिए जैसा हमने लिखा, कुछ राष्ट्रप्रेमियों ने दिल्ली के क़रीब ही तब कहा था कि गाँधी की हरकतें अगर ऐसी ही रहीं तो उन्हें भी ख़ामोश करना पड़ सकता है! और वह तो कर दिया गया। लेकिन जैसा गाँधी ने चेताया था, वे कब्र से भी बोलेंगे। और वे बोल रहे हैं। वह आवाज़ परेशान न करे, इसलिए उसे दबाने के लिए रामधुन के साथ झाड़ू लगाई जा रही है।
तो जिन्होंने गाँधी की हत्या के विचार का प्रचार किया और फिर उस पर दीवाली मनाई, उन्होंने गाँधी की प्रिय झाड़ू उठा ली। इससे गाँधी से असहमति के बावजूद उनके प्रति इन लोगों की उदारता का पता चलता है। उनके जन्मदिन को ‘स्वच्छता दिवस’ घोषित करने से बड़ी उदारता और क्या हो सकती थी भला!
सो, विभाग से फ़ोन आया कि हम सबको 2 अक्टूबर को आना है। स्वच्छता अभियान में हिस्सा लेना है। पूछा, क्या अवकाश रद्द कर दिया गया है! कहा गया कि यह सवाल हम लिखकर पूछें। हमने जवाब दिया कि आप जब हमें लिखकर आने को नहीं कह रहे तो हम क्यों लिखकर पूछें । दुबारा फ़ोन नहीं आया। लेकिन अगले दिन ढेर सारी तस्वीरें प्रसारित की गईं। विश्वविद्यालय के गाँधी भवन पर झाड़ू भरा ट्रक आया। विभागाध्यक्षों और संकायाध्यक्षों में झाड़ू के लिए प्रतियोगिता हुई, ऐसा बतलाया गया। हर विभाग से तस्वीरें प्रसारित की गईं जिनमें अध्यापकगण झाड़ू लिए सफ़ाई का अभिनय करते देखे जा सकते थे।
उसके कोई हफ़्ता भर पहले शहर के एक दूसरे विश्वविद्यालय में जाना हुआ। वहाँ मिट्टी के मैदान में, जिसमें घास का तिनका न था, छात्र मनोयोग से झाड़ू से धूल उड़ाते दीखे। मालूम हुआ कि वह 2 अक्टूबर का पूर्वाभ्यास था और कुलपति उसका निरीक्षण करने खुद आने वाले थे। मैंने अपने मित्र से कहा कि गाँधी से जुड़े दिन के नाम पर ये करने की क्या ज़रूरत है। सफ़ाई के नाम पर धूल उड़ाना अहमकपन नहीं तो और क्या था!
मात्र मूर्खता ही नहीं, पाखंड और झूठ। गाँधी और उनकी स्मृति का सबसे बड़ा अपमान है उनके नाम पर झूठ और पाखंड करना। लेकिन हम सब यही कर रहे थे। और इस धोखे के नाटक में अपने छात्रों को भी शामिल कर रहे थे।
राष्ट्रीय स्तर पर इस नाटक के सूत्रधार ख़ुद प्रधानमंत्री थे।लंबी विदेश यात्रा से लौट कर सुबह सुबह उन्होंने अपने नाज़ुक हाथों से झाड़ू पकड़ा और सड़क को स्वच्छ किया। हमारे कुलपति ने गाँधी की प्रतिमा के साये में प्रधानमंत्री की इस प्रतिबद्धता की भूरि भूरि प्रशंसा की। उनके दफ़्तर ने तलवार की तरह झाड़ू धारण किए, उनकी तस्वीरें प्रसारित कीं।
योगा डे
यह सब एक बहुत बड़ा झूठ था। और यह उस संस्थान में किया जा रहा था जिसका उद्देश्य जीवन के हर क्षेत्र में सत्य का संधान करना है। जो स्वच्छता दिवस को किया गया, वही “योगा डे” के दिन दुहराया गया। इस नाटक के पक्ष में तर्क दिया गया कि भले ही हाँ सब कुछ नाटक हो लेकिन उद्देश्य या संदेश तो अच्छा है न! गाँधी के साधन और साध्य की एकता की बस बात की बात है!
8 साल गुजर गए हैं। अब संस्थान 2 अक्टूबर और स्वच्छता के इस नाटक को भी भूल गए हैं। किसी कुलपति, किसी मंत्री, किसी प्रधानमंत्री की झाड़ू के साथ तस्वीर जारी करना आवश्यक नहीं समझा गया है। इस बीच अनेक नए दिवस, नए नाटक प्रस्तावित किए जा चुके हैं। सारे संस्थान, विश्वविद्यालय समेत उनमें व्यस्त हो गए हैं। इस साल गाँधी के जन्मदिन पर सरकार ने सबको खादी का इस्तेमाल करने का आह्वान किया है। उसी सरकार ने जिसने अभी दो महीना पहले आदेश जारी किया था कि राष्ट्र ध्वज के खादी में होने की अनिवार्यता समाप्त की जाती है। सरकार को विश्वास है कि इन दोनों घोषणाओं में उसकी जनता को कोई अंतर्विरोध नहीं दीखेगा।
बहुत सारे लोग गाँधी के बारे में इस देश में व्याप्त गलतफहमियों पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं। वे कहते हैं कि हमें सच बतलाना चाहिए लेकिन जब हम जान बूझ कर झूठ और पाखंड का अभ्यास करते हैं तब गाँधी से जुड़ी ग़लतफ़हमियों को दूर करने से क्या लाभ होगा?
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