दार्शनिक रमीम जहांबेगलू को भारत के बुद्धिजीवियों से निराश देखकर निराशा हुई। वे करन थापर से ईरान में औरतों के विद्रोह के विषय में बात कर रहे थे। वे दुखी थे कि ईरानी औरतों के मुक्ति संघर्ष के प्रति भारतीय बुद्धिजीवी एकजुटता नहीं दिखला रहे हैं। उनकी निराशा कितनी गहरी थी, यह उनकी देह भंगिमा से जाना जा सकता था।
क्या ईरान के हिजाब आंदोलन के प्रति उदासीन हैं भारत के बुद्धिजीवी?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 10 Oct, 2022

ईरानी जन की आज़ादी की जद्दोजहद में दुनिया ने उन्हें अकेले नहीं छोड़ा है। चारों तरफ़ से, यूरोप हो या अमरीका, उनके लिए आवाज़ें उठ रही हैं। मात्र बुद्धिजीवी नहीं, जनता के अलग-अलग तबके इस संघर्ष को विजयी देखना चाहते हैं। यह कहा जा सकता है कि ईरानी जनता का संघर्ष अगर इतना लंबा चल पा रहा है तो इसका एक कारण यह अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता भी है।
हम जानते हैं कि ईरान की औरतों का आज़ादी का आंदोलन सिर्फ़ औरतों का विद्रोह नहीं है। इसमें पुरुष भी शामिल हैं। नैतिकता की रक्षा करनेवाली ईरानी पुलिस ‘गश्ते इरशाद’ की ज़बर्दस्ती के कारण मारी जानेवाली युवती मासा अमीनी कुर्द थी।
इस तथ्य को उभार कर भी ईरानी हुकूमत ईरानियों को मासा के साथ हुए अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े होने से नहीं रोक सकी। राष्ट्रीयता से ऊपर है अपनी जान, अपनी और अपनी आज़ादी का उसूल, सड़क पर मौजूद ईरानी जनता पूरी दुनिया को यही बतला रही है।