“ऑश्वित्ज़ के बाद कविता लिखना बर्बरता है।” थियोडोर अडोर्नो का यह वाक्य अक्सर इस रूप में ग़लत उद्धृत किया जाता रहा है: “ऑश्वित्ज़ के बाद कविता लिखना नामुमकिन है।” दिलचस्प यह है कि यह विकृत वाक्य इतना लोकप्रिय हो गया कि ख़ुद अडोर्नो ने एक तरह से इसके लिए अपनी ज़िम्मेवारी कबूल करते हुए बाद में संशोधन किया और लिखा,
भारत और हिटलर के ऑश्वित्ज़ में कितना फ़ासला बचा है?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 27 Jan, 2020

ऑश्वित्ज़ एक क़त्लगाह का नाम है। भारतीय साहित्य, विशेषकर हिंदी साहित्य में उसकी स्मृति है। ऑश्वित्ज़ में कैद और अनिवार्य हत्या की प्रतीक्षा कर रहे लोगों में से जो बचे रह गए थे उन्हें आज से 75 साल पहले, 27 जनवरी, 1945 को सोवियत संघ की लाल सेना ने मुक्त किया। 75 साल बाद जर्मनी और यूरोप उसी यहूदी विरोधी घृणा को फिर से पनपते देख रहा है। लेकिन ऑश्वित्ज़ एक दूसरे रूप में शायद पूरी दुनिया में है।
“अनंत पीड़ा को भी व्यक्त होने का उतना ही अधिकार है जितना एक यंत्रणा झेल रहे इंसान को चीखने का, इसलिए यह कहना शायद ग़लत था कि ऑश्वित्ज़ के बाद आप कविता नहीं लिख सकते।”
अडोर्नो ने लेकिन अपने मूल प्रश्न को छोड़ा नहीं। इसके बाद वह लिखते हैं, “लेकिन एक कम सांस्कृतिक प्रश्न उठाना ग़लत न होगा (और वह यह है) कि क्या ऑश्वित्ज़ के बाद जीते जाना संभव है, ख़ासकर उसके लिए जो संयोगवश बच निकला हो, जिसे क़ायदे से मार डाला जाना चाहिए था! उसके बचे रहने भर के लिए वह ठंडी उदासीनता ज़रूरी है जो बोर्जुआ आत्म का बुनियादी उसूल है, जिसके बिना कोई ऑश्वित्ज़ हो ही नहीं सकता था; यह वह अंतिम अपराध बोध है जो उससे बिंध गया है जो छोड़ दिया गया था।”