वर्षांत के विश्राम के बाद ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के पथिक फिर चल पड़ेंगे। अब तक के आखिरी पड़ाव दिल्ली से आगे कश्मीर की तरफ। साढ़े तीन महीने पहले जब राहुल गाँधी के नेतृत्व में यात्रा शुरू हुई थी तो इसे उपहास, विस्मय, तिरस्कार के साथ देखा गया। बड़े, व्यापक पहुँचवाले मीडिया के मंचों ने इसकी उपेक्षा की। धीरे-धीरे, चलते चलते इस यात्रा ने उनका भी ध्यान खींचना शुरू किया जो इस पर कोई चर्चा नहीं करना चाहते थे। लेकिन इस समय भी बात राहुल गाँधी तक सीमित रखने की कोशिश की गई।
भारतीय राजनीति को संवैधानिक दायरे में ला पाएगी भारत जोड़ो यात्रा?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 2 Jan, 2023

भारत जोड़ो यात्रा की चुनौती एक प्रकार से हम सबकी चुनौती है। अरसे से हम सब रणनीतिक भाषा बोलते आए हैं। हम सबने स्वयं धर्मनिरपेक्षता के मूल्य के प्रति लापरवाही बरती है। हमने बहुसंख्यकवाद से कभी न कभी समझौता किया है। उसे समाज में स्वीकार्यता प्रदान की है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमारे लिए सम्माननीय रहा है। हमने झूठ भी बोला है और उसके साथ समझौता भी किया है।
रोज़ाना 23 से 25 किलोमीटर चलना क्या संभव है? राहुल गाँधी की तेज़ रफ़्तार, उनकी दाढ़ी और फिर उनकी टी शर्ट: इन पर बहस करके उन सवालों को छिपाने की कोशिश की गई जिनको पूछते हुए और जिनका जवाब खोजते हुए ही ये यात्री चल रहे हैं।
यात्रा कांग्रेस पार्टी का आयोजन है। इसके नेता राहुल गाँधी हैं। इस वजह से यह कहना बेमानी होगा कि यात्रा राजनीतिक नहीं है। भारत में राजनीति की प्रभावकारिता चुनाव में उसके प्रदर्शन से मापी जाती है। जब दो राज्यों में चुनाव होनेवाले थे तब कांग्रेस पार्टी का इस यात्रा में अपनी ऊर्जा लगाना कितना बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय था? ऐसा नहीं है कि काँग्रेस के नेताओं ने इस पर नहीं सोचा होगा। लेकिन चुनाव के ऊपर यात्रा को तरजीह देने का अर्थ ही यह है कि कांग्रेस किसी भी कीमत पर चुनाव जीत लेने में यकीन नहीं करती। राजनीति अगर मनोवैज्ञानिक तिकड़म तक सीमित रह जाए तो वह मूल्यहीन है।