“मेरा बच्चा कहता है कि अब वापस हिंदुओं के बीच नहीं जाना,” तनाव से तमतमाते चेहरे वाली उस महिला ने कहा। मैंने पूछा, बच्चा कहाँ है। वह वहीं था। थोड़ा शर्माता हुआ। और भी बच्चे थे। “मैं भी हिंदू हूँ,” मेरा कहने को जी चाहा। कह नहीं सका। उससे पूछा, क्यों। उसने ‘जय श्री राम’ के नारे के साथ तिलक लगाए हुए, भगवा गमछा डाले गुंडों की भीड़ अपनी गली में देखी थी। उनके दरवाजों पर डंडे बजाती हुई, गालियाँ देती हुई। पीड़ित अपनी छतों पर थे। ये दंगाई मुसलमानों को ख़त्म कर देने की धमकी दे रहे थे।
“हम तुम्हें आज़ादी देंगे,”, “इसको तुम्हारा कब्रिस्तान बना देंगे।” “लो, आज़ादी लो।” पीड़ित 100 नंबर पर फ़ोन करते रहे। पुलिस नहीं आई। फिर किसी जानकार की मदद से दो पुलिसवाले पहुँचे। उनमें से कुछ अँधेरे में छतों से कूदीं, कुछ छिपते-छिपाते निकलीं। शिव विहार से जान बचाने को भागे हज़ारों मुसलमानों में ये सिर्फ 20-22 थीं। मुस्तफ़ाबाद में अलग-अलग परिवारों ने इन्हें शरण दी थी। दिल्ली सरकार इनके लिए नहीं थी। उदारमना हिंदू धर्म के लोग नहीं थे। आख़िरकार, हममज़हब लोगों ने ही इन्हें पनाह दी।
आपके हिंदू पड़ोसी क्या कर रहे थे? हमने पूछा। इसका उत्तर कहीं जटिल था। उन्होंने कहा, ‘‘पहले तो वे साथ-साथ बाहर खड़े रहे।’’ फिर उन्होंने कहा, ‘‘हम नहीं बचा सकते। तुम बच नहीं सकते।’’ जब ये लोग ख़ुद डंडे लेकर अपने घरों, दुकानों के पास खड़े हुए तो वे नाराज़ हो गए और कहा, ‘‘डंडे लेकर क्यों खड़े हो? दुकानें तो तुम्हारी बचने वाली नहीं हैं।’’
जिन्होंने हमला किया, वे बाहरी थे। लेकिन जिन्होंने मकान पहचानवाए, वे कौन थे? कौन कह रहा था, अरे-अरे ये हिंदू घर हैं, ये मुल्ले का है? वह तो बाहरी नहीं ही होगा।
शिव विहार मुसलमानों से खाली हो चुका है। 6500 वोटर हैं हमारे, एक ने कहा। इसका मतलब तकरीबन 15-16000 मुसलमान होंगे। वोट वाली बात बार-बार सुनी। इसलिए कि सज़ा इन्हें आम आदमी पार्टी को वोट देने की दी गई। लेकिन वह पार्टी जो इनके वोट से सरकार में आई, उसके मंत्रियों ने, विधायकों ने इनका फ़ोन उठाने से इनकार कर दिया।
‘‘किया है तो भुगतो। आज़ादी लो’’
फ़ोन न सरकारी पार्टी ने उठाया, न पुलिस ने। जब पुलिस ने उठा लिया तो कहा, ‘‘किया है तो भुगतो। आज़ादी लो।’’ या फिर फ़ोन बजता रहा। हर कोई फ़ोन का रिकॉर्ड दिखाने को आतुर। “क्या करें सर? मैं तो उस पार्टी की नेशनल काउंसिल में हूँ। हमारे मंत्री ने हमारा फ़ोन नहीं उठाया।” यह कहते हुए उस नौजवान मुसलमान के होठों पर जो मुस्कान थी, वह कैसी थी? वह रसूखदार है। उसके पास मुख्यमंत्री, सारे मंत्रियों के नंबर हैं। वह उन्हें सीधे फ़ोन कर सकता है। लेकिन बस इतना ही। जैसे मुसलमान की औकात बस वोट देने की है! उसके बाद उसे रहना गुंडों की मर्जी पर है। जब तक वे नहीं चाहते, वह सुरक्षित है। जब-जब वे चाहेंगे, उसे अपने ही वतन में पनाहगुजीर बनना पड़ेगा।
यह दिल्ली का उत्तर-पूर्वी इलाक़ा है। हम मुस्तफ़ाबाद में हैं। गलियों में कंधे छिल रहे हैं। लगता है हर कोई सड़क पर है। लेकिन हम एक बड़े घर के भीतर इन औरतों और बच्चों से बात कर रहे हैं। उस बच्चे से भी जिसने हमलावरों को देखा था।
हम बात कर रहे हैं। बातों में दुहराव है। लेकिन हर कोई बात करना चाहता है। बार-बार! जैसे जो तकलीफ है, वह बोलने से कुछ कम हो जाएगी।
आज इतवार है। महिलाएं मंगलवार को अपने घरों से निकली थीं। अभी तक उन्हीं कपड़ों में हैं। “अच्छा! कुछ साथ नहीं लेकर निकलीं?” हममें से एक ने पूछा। पूछते ही हमारे ही कानों को यह सवाल खटका। “जान बचाते कि कपड़े उठाते,” भर्त्सना के साथ एक ने जवाब दिया।
“मर्द कहाँ हैं?”। पार्क गए हैं, फ़ॉर्म भरने को। ऐसी हिंसा के बाद मुआवज़े की एक रस्म होती है। मुआवज़ा। भरपाई! किस-किस की, कितनी? घर में क्या-क्या होता है जिसकी लिस्ट बनाई जा सके। जो हमसे बात कर रही थी, हम नहीं चाहते थे कि वे रोएँ लेकिन आंसुओं का अपना गतिशास्त्र है। सहानुभूति का एक संकेत, और वे बाँध तोड़ देते हैं। हमारे पास कितना वक्त है? कितनी जगह और हैं शिव विहार के लोग? किन-किन गलियों में मुस्तफाबाद के? सब कुछ सुनते हुए हम अचानक व्यस्त हो उठते हैं।
हम औरतों से बात कर रहे हैं। मुसलमान औरतों से। कोई पर्दा नहीं है। अचानक क्यों मुझे यह बात ध्यान में आई? एक बुजुर्गवार आते हैं। औरतें बिस्तर पर जगह बना देती हैं। उनके कुरते की जेब से बीड़ी का खुला पैकेट झाँक रहा है। कंधे झुके हुए हैं, काँपती हुई आवाज़ में बोले - “सब कुछ ख़त्म हो गया।”
दिलासा एक बहुत कमजोर चीज़ है। वह दुःख को कितना कम कर सकता है? मैं खुद को इस लायक नहीं मानता कि उन्हें भरोसा दिला सकूं। आखिर जब उनसब पर हमला हो रहा था, तो हम कोई बेख़बर न थे! हमें हर तरफ़ से ख़बर मिल रही थी। लेकिन हम कुछ न कर सके थे! फिर अब दिलासा? राहत?
स्थानीय जिम्मेदार लोग खड़े हैं। वे बताते हैं कि और कहाँ-कहाँ लोग हैं। किन-किन गलियों में। फराह पूछती हैं कि क्या औरतों से बदसलूकी की गई। वे औरतों से अलग से बात करना चाहती हैं। एक घर में कुछ औरतें हैं, एक बूढ़ी औरत धीरे-धीरे आती हैं। संकरा-सा गलियारा है। “कहीं बैठ लें?” “पराया घर है बेटी! हम कैसे बुला लें?” सो वे बाहर बैठती हैं।
टेंपो आ-जा रहे हैं। राहत सामग्री लेकर। कोई अमरोहा का है, कोई निजामुद्दीन से आया है। नौजवान लड़कियाँ और लड़के भटक रहे हैं। वे स्थानीय नहीं हैं। कुछ जामिया के हैं, कुछ जेएनयू के। कुछ आईआईटी के। मुसलमान और ग़ैर मुसलमान। ये किस रिश्ते से यहाँ आए हैं? डॉक्टर आए हैं और वकील भी। वह जो रिश्ता है दर्द का वह क्यों कुछ को ही ज़रूरी मालूम पड़ता है अपने वजूद के लिए और बाकियों को नहीं?
क्या वापस जाना चाहेंगे? चाहेंगी? यह कैसा सवाल है? ज़िन्दगी भर की कमाई लगाकर घर खड़ा किया। ऐसे कैसे छोड़ दें? जाएँगे लेकिन सुरक्षा हो तब तो! सुरक्षा लेकिन कब तक? जब तक माहौल ठंडा न हो। कौन देगा सुरक्षा? वही पुलिस जिसने 100 नंबर पर फ़ोन का जवाब नहीं दिया था?
क्या वह पुलिस सुरक्षा देगी जिसने अपने किए को भुगतने को कहा था? अगर वह बदल भी गई हो तो वह कितने दिन चौकसी करेगी? जब तक पड़ोसी सुरक्षा न दें तब तक सुरक्षा कैसे होगी? उस बच्चे की बात दिमाग में घूम रही है। राकेश शर्मा की फ़िल्म ‘फ़ाइनल सॉल्यूशन’ का वह मुसलमान बच्चा याद आ जाता है 2002 का। आज 2020 है। उसकी उम्र क्या होगी अब? 2002 की कितनी लम्बी उम्र है?
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