“…मर्यादा मत तोड़ो
तोड़ी हुई मर्यादा
कुचले हुए अजगर-सी
गुंजलिका में कौरव-वंश को लपेटकर
सूखी लकड़ी-सा तोड़ डालेगी।”
‘अंधा युग’ मर्यादाओं के टूटने और उन्हें जान बूझकर तोड़े जाने से पैदा होने वाली त्रासदी की कथा है। पहले अंक में पहली ही पंक्ति है:
“टुकड़े टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा”
‘स्थापना’ अंश में अंधा युग के अवतरित होने के बारे में लिखा गया है:
“यह अंधा युग अवतरित हुआ
जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं।”
“एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की” है, लेकिन वह भी उलझी हुई। युद्ध के बाद जो बच गए हैं, वे “पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित” हो चुके हैं।
मर्यादाओं के अवसान के ही साथ
“भय का अंधापन, ममता का अंधापन
अधिकारों का अंधापन जीत गया”
और उसके साथ ही
“जो कुछ सुंदर था , शुभ था, कोमलतम था
वह हार गया।...”
राम राम क्यों हैं?
सारी मर्यादाएँ रक्षणीय नहीं होतीं। राम की त्रासदी थी वैसी मर्यादाओं की रक्षा करने की जिन्हें तोड़ दिया जाना चाहिए था। बालि की हत्या हो, या सीता का निष्कासन या शम्बूक की हत्या, ये सब कुछ मर्यादाओं की रक्षा के लिए ही किए गए थे। इसीलिए राम एक त्रासद चरित्र हैं।
‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ एक विडंबनापूर्ण विशेषण है। फिर भी राम राम इसलिए हैं कि कष्ट उन्होंने उठाया, वनवास का वरण उन्होंने किया। गाँधी के लिए वे सबसे आकर्षक काव्यात्मक कल्पना इसीलिए हैं कि आत्मत्याग, कष्ट के अंगीकार के कारण वे उदात्तता की प्रतिमूर्ति हैं।
महाभारत में ऐसा उदात्त चरित कौन है? सभी के सभी किसी न किसी समय मर्यादा के उल्लंघन के अपराधी हैं। इसीलिए महाभारत होता भी है। एकलव्य हो या कर्ण, दोनों के साथ छल किया जाता है। गांधारी कृष्ण को क्षमा नहीं करतीं क्योंकि जैसा वे विदुर को कहती हैं,
“जिसको तुम कहते हो प्रभु
उसने जब चाहा
मर्यादा को अपने हित में बदल दिया।
वंचक है।”
बलराम अपने अनुज कृष्ण की इस अवसरवादिता से क्षुब्ध हैं और गांधारी का शाप तो कृष्ण की मृत्यु का कारण ही बनता है। जैसे राम, वैसे ही कृष्ण, दोनों को इसका अहसास है कि उन्होंने क्या किया। मर्यादा के उल्लंघन का दंड है, उसका विधान है, लेकिन तब तक काफी कुछ नष्ट हो चुका होता है।
मर्यादा के साथ गरिमा का भाव जुड़ा हुआ है। जो मर्यादा की रक्षा नहीं कर सकता, वह गरिमा के भाव से भी वंचित रहता है। क्षुद्रता उसका स्वभाव बन जाती है।
प्रधानमंत्री को मर्यादा का ध्यान दिलाया
एक राज्य की मुख्यमंत्री ने देश के प्रधानमंत्री को मर्यादा का ध्यान दिलाया। अवसर बड़ा था। सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती का। एक ऐसे व्यक्ति के स्मरण का जिसने खुद को देश के लिए क़ुर्बान कर दिया। ऐसे व्यक्ति की स्मृति ही एक मर्यादा बाँध देती है। आपके बेलगाम आवेग, आपकी आत्मग्रस्तता को कुछ क्षणों के लिए ही सही, नियंत्रित करती है। हमारी वाणी, हमारी देहभंगिमा सब उस अवसर से मानो अनुशासित होने लगती है। अवसर की आभा में कुछ देर के लिए क्षुद्र आत्माएँ भी आलोकित हो उठती हैं।
लेकिन ऐसे लोग होते हैं जिन्हें यह बोध व्यापता नहीं। इसका प्रमाण मिला 23 जनवरी, 2020 को कोलकाता में जब संस्कृति मंत्रालय ने नेताजी की 125वीं जयंती का कार्यक्रम आयोजित किया, जिसमें राज्य की मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री दोनों ही अतिथि थे। जब ममता बनर्जी बोलने खड़ी हुईं तो श्रोताओं के बीच से, जो अब श्रोता कम और दर्शक ज्यादा हो गए हैं, हुल्लड़बाजी शुरू हो गई। ’जय श्री राम’ के नारे लगाए जाने लगे। उद्घोषक उन हुडदंगियों से अनुरोध करते सुनाई देते हैं कि वे मुख्यमंत्री को बोलने दें। कैमरा उन हुल्लड़बाजों के चेहरे देखता है। आप देख सकते हैं कि वे विघ्न पैदा करके कितने आनंदित हैं!
ये हुड़दंगी जिसकी जनता हैं, वह मंच पर इस बीच निर्विकार बैठा दीखता है। मुख्यमंत्री ने इस बदतमीजी पर अपनी नाराज़गी जाहिर की। कहा कि यह किसी पार्टी का नहीं, सरकार का कार्यक्रम है।
उसमें किसी को आमंत्रित किया जाए तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन यहाँ जो किया गया उसे बेइज्जती कहा जाएगा, इसलिए वे कुछ नहीं बोलेंगी।
हुड़दंगी समर्थकों को नहीं रोका मोदी ने
ममता ने ‘जय हिन्द, जय बांग्ला’ के अभिवादन के साथ अपनी बात ख़त्म कर दी। लेकिन उसके पहले उन्होंने अपनी मर्यादा का पूरा निर्वाह किया। प्रधानमंत्री की सबसे मुखर विरोधी होने के बावजूद उन्होंने इस कार्यक्रम के कोलकाता में आयोजन के लिए उन्हें धन्यवाद दिया। उसके पहले वे उनके साथ मंच तक आईं, यानी कार्यक्रम की पूरी मर्यादा का ममता ने पालन किया। लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री को मर्यादा का ध्यान भी दिलाया।
ममताजी का विरोध आवश्यक था। हम ऐसे समय हैं जब हर तरह की मर्यादा छिन्न- भिन्न हो रही है। यह ख़तरा है कि समाज भूल ही जाए कि कुछ सामाजिक और राजनीतिक मर्यादाएँ होती हैं। आप मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री हो सकते हैं, लेकिन आप राज्य या देश के मालिक नहीं हैं। आपकी मर्ज़ी क़ानून की जगह नहीं ले सकती। कोई राजनीतिक दल सत्ता में तो सरकार का मतलब उस दल की हुक़ूमत नहीं है।
हु़ड़दंगियों को निमंत्रण
‘द टेलीग्राफ’ अख़बार ने बतलाया कि केंद्र सरकार के इस कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र प्रायः भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को दिए गए थे, जिन्होंने अपने समर्थकों को कार्यक्रम में भर दिया। ये ही वे थे जो बीजेपी का नारा “जय श्री राम” लगा रहे थे।
यह कहने की ज़रूरत नहीं कि यह नारा कोई ममताजी के अभिनंदन के लिए नहीं लगाया जा रहा था। यह नारा उनको हूट करने के लिए लगाया गया था। इसका हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं और न ही राम से।
यह सीधे-सीधे अपने वर्चस्व, या गाँधीजी के 1947 के शब्द लेकर कहें तो गुंडागर्दी का ऐलान है।
यह नारा मुसलमानों और बीजेपी के राजनीतिक विरोधियों को नीचा दिखलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
ममता बनर्जी ने बिना लाग- लपेट यह बात कई बार कही है। और यहाँ वे सही हैं। इस नारे को बर्दाश्त करने का अर्थ है मानवीय मर्यादा को धूल- धूल होते देखना।
प्रधानमंत्री से उम्मीद क्यों?
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में इस अमर्यादित व्यवहार के लिए अपनी जनता की तम्बीह नहीं की। यह भी हो सकता था कि जब मुख्यमंत्री ने अपना क्षोभ जाहिर किया और बिना बोले चली आईं तो वे उनसे अनुरोध करते कि वे बोलें। लेकिन उन्होंने यह नहीं किया। उनके माथे पर शिकन भी नहीं पड़ी। इसके लिए तो बड़प्पन चाहिए! शमशेर के अनुसार, ‘अगर वह नहीं है तो नहीं है। उसकी उम्मीद क्या!’
इसका अर्थ स्पष्ट है। नेता और उसकी जनता के बीच का रिश्ता प्रकट है। जनता को मालूम है कि उसकी असभ्यता को नेता का समर्थन प्राप्त है। भले ही वह कई मजबूरियों के चलते मौन समर्थन ही क्यों न हो!
उसे मालूम है कि जो उनका व्यवहार है वही नेता का मूल व्यवहार है। ताज्जुब नहीं कि अपने वक्तव्य में उनके नेता ने अपनी ही डींग हाँकी मानो सुभाष बाबू को याद करके उन्हीं पर कृपा की जा रही हो।
कहा जाता है कि जनता अपनी मर्यादा की शिक्षा नेता से लेती है। जब सरकारी तौर पर जनता को मास्क लगातार लगाए रखने के लिए कहा जा रहा हो, जब कोरोना वायरस के संक्रमण से लाखों मौतें हो चुकी हों और उसका ख़तरा बना हुआ हो, तब नेता बिना मास्क के चेहरा और दाढ़ी पर हाथ फेरता दीखे, जबकि उसके चारों ओर सबने मास्क लगा रखा हो तो नेता की अपनी जनता को यही सन्देश मिलता है कि क़ानून वास्तव में नेता की मनमर्जी है। उसके लिए जब कोई मर्यादा नहीं तो फिर उसकी जनता के लिए क्यों हो!
नेताजी को बनाया बहुसंख्यकवादी राजनीति का प्रतीक
सबको मालूम है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस में बीजेपी की दिलचस्पी का मुख्य कारण हाल में होने वाला पश्चिम बंगाल का विधान सभा का चुनाव है। वे उन्हें अपनी सैन्यवादी और बहुसंख्यकवादी राजनीति का प्रतीक बनाना चाहते हैं। जिस सुभाष के मुख्य सहयोगी सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज़ हों, जिसने ‘भारत माता की जय’ को नहीं, ‘जय हिन्द’ को अपना मुख्य नारा बनाया, जिसने गाँधी को राष्ट्रपिता कहा और आज़ाद हिंद फौज में नेहरू ब्रिगेड कायम की, जिसकी आज़ाद हिन्द फौज़ का नारा हो ‘इत्तेहाद, ऐतमाद, कुर्बानी’, जिस आज़ाद हिंद फौज़ के लिए वकालत करने को नेहरू ने लाल किले में आख़िरी बार वकील का काम किया हो, उस सुभाष को बहुसंख्यकवादी घृणा और हिंसा की राजनीति का प्रतीक बना दिया जाए, इससे मालूम होता है कि इस देश की कल्पना का कितना क्षरण हुआ है।
बिना इस कल्पना के शिथिल हुए मर्यादा का टूटना मुमकिन नहीं है। हम जब बड़े क्षणों के समक्ष होते हैं, महानता के साहचर्य में होते हैं तो हमें उसका कुछ स्पर्श मिलता है और वे हमें अपनी लघुता से ऊपर उठने की चुनौती देते हैं।
गाँधी हों, या नेहरू या सुभाष या आंबेडकर, ये सब हमसे पूछते हैं कि तुमने मर्यादा का कौन सा मान कायम किया।
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