“…मर्यादा मत तोड़ो तोड़ी हुई मर्यादा
नेताजी हमसे पूछते हैं, तुमने मर्यादा का कौन सा मान कायम किया?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 25 Jan, 2021

एक राज्य की मुख्यमंत्री ने देश के प्रधानमंत्री को मर्यादा का ध्यान दिलाया। अवसर बड़ा था। सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती का। एक ऐसे व्यक्ति के स्मरण का जिसने खुद को देश के लिए क़ुर्बान कर दिया। ऐसे व्यक्ति की स्मृति ही एक मर्यादा बाँध देती है। आपके बेलगाम आवेग, आपकी आत्मग्रस्तता को कुछ क्षणों के लिए ही सही, नियंत्रित करती है। हमारी वाणी, हमारी देहभंगिमा सब उस अवसर से मानो अनुशासित होने लगती है।
कुचले हुए अजगर-सी
गुंजलिका में कौरव-वंश को लपेटकर
सूखी लकड़ी-सा तोड़ डालेगी।”
‘अंधा युग’ मर्यादाओं के टूटने और उन्हें जान बूझकर तोड़े जाने से पैदा होने वाली त्रासदी की कथा है। पहले अंक में पहली ही पंक्ति है:
“टुकड़े टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा”
‘स्थापना’ अंश में अंधा युग के अवतरित होने के बारे में लिखा गया है:
“यह अंधा युग अवतरित हुआ
जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं।”
“एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की” है, लेकिन वह भी उलझी हुई। युद्ध के बाद जो बच गए हैं, वे “पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित” हो चुके हैं।
मर्यादाओं के अवसान के ही साथ
“भय का अंधापन, ममता का अंधापन
अधिकारों का अंधापन जीत गया”
और उसके साथ ही
“जो कुछ सुंदर था , शुभ था, कोमलतम था
वह हार गया।...”