इतिहास के प्रेतों को जगाया जा रहा है। औरंगज़ेब आलमगीर को तो सोने ही नहीं दिया गया है। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बार-बार उसे जंग के मैदान में खींच लाते हैं। जब वह सत्ता के बाहर थे तब भी और अब जब वह सत्ता में हैं तब भी उन्हें औरंगज़ेब चाहिए। कितनी बार पिछले एक-दो महीने में उसे मैदान में उतारा गया है, इसकी गिनती मुश्किल है। उसकी मिट्टी उसके वतन की ख़ाक बन गई है लेकिन भाजपा और संघ उसे बार-बार ज़िंदा करते हैं। हर बार उसपर वार करने के लिए।
लेकिन जैसा हमने कहा यह मरणोत्तर औरंगज़ेब है जो भाजपा को चाहिए। और वह ऐसी जंग में है जिसमें मुकाबला करने को खुद मौजूद नहीं।
वह तो उस जंगे मैदान का आदी रहा है जिसमें तलवारों से तलवारें टकराती थीं। लेकिन वह क्या सिर्फ जंग ही करता था? उसने आखिरकार हुकूमत भी की थी! और हुकूमत सिर्फ जंगों का सिलसिला न थी। लेकिन यह औरंगज़ेब तो भाजपा के किसी काम का नहीं। उस औरंगज़ेब की उन्हें कोई दरकार नहीं।
वह औरंगजेब इतिहास का है। और उसमें इतिहासकारों की दिलचस्पी है। और वह पेचीदा और परतदार व्यक्तित्व है जैसा उस दौर के हरेक शासक का होगा। उसके फ़ैसले और कार्रवाइयाँ एक दूसरे की विरोधी जान पड़ती हैं। यह कैसे मुमकिन है कि एक ही शासक हो जिसने एक तरफ मंदिरों को तोड़ा हो, वही दूसरी तरफ मंदिरों को भूमि और धन का अनुदान दे रहा हो और ब्राह्मणों को भी ! वह 'हिंदी' में कविता रच रहा हो जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश से आशीर्वाद भी माँग रहा हो!
इतिहासकार का श्रम इन परतों को, जो एक दूसरे में गुँथ गई हैं, समझने का श्रम है। हरबंस मुखिया ने ठीक ही लिखा है कि शासकों की हुकूमत को समझने के लिए उस पर धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, प्रशासनिक दबावों और इनके साथ उसके तनावपूर्ण रिश्ते को समझना पड़ता है। यह कभी भी स्थिर नहीं हुआ करता।
इतिहासकार इसीलिए न्यायाधीश नहीं होते। और इतिहास के पात्र भी तो एक तरह से किस्सों के किरदार हुआ करते हैं। किस्से दूसरों के होते हैं। तो बिना इन किस्सागो को जाने आप उसके बनाए किरदार को कैसे जान-समझ सकते हैं।
यह बात प्रायः सबके बारे में सच है। जैसा कुरोसावा ने रोशोमन में बतलाया, घटना घटते ही एक नहीं कई किस्सों में बदल जाती है जिसमें कौन प्रामाणिक है, यह तय करना बहुत मुश्किल ठहरता है। जो हो, मरणोत्तर जीवन के मामले में औरंगज़ेब को दूसरे शासकों के मुकाबले अधिक उम्र मिली है।बाकी शासकों को, जो गुजर गए, औरंगज़ेब का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसके बहाने उन्हें भी याद किया जाता है। शिवाजी को ही कौन याद करता ? गुरु तेग बहादुर या गुरुगोविंद सिंह या साहबजादों की याद भाजपा को क्योंकर आती अगर औरंगज़ेब न होता।
औरंगजेब अकेला नहीं है। राणा प्रताप की याद भी अकबर की वजह से ही की जाती है। और संघ गुरु नानक की याद भी बाबर के कारण करता है। सिख भी हैरान हो उठते हैं लेकिन संघ को कौन रोक सकता है?
महँगी पड़ी तुलना
लेकिन अभी तो शुक्रिया अदा करना होगा सम्राट अशोक को औरंगजेब का कि फिर से उनकी सुध ली जा रही है क्योंकि भाजपा और संघ के प्रिय एक नाटककार ने उस महान शासक की तुलना औरंगजेब से कर डाली है। लेखक का ख़याल यह है कि अशोक का आरम्भिक जीवन क्रूरता का था जैसे औरंगजेब का। और बाद में दोनों धार्मिक हो गए ताकि उनके खूँखार अतीत से लोगों का ध्यान हट जाए और उन्हें उनकी धार्मिकता के लिए याद रखा जाए। लेकिन यह तुलना नाटककार को महँगी पड़ रही है।
कहाँ अशोक और कहाँ औरंगज़ेब! यह कुछ कुछ ईश निंदा जैसा है। अशोक का अपमान है। बेचारे लेखक पर इस जुर्म के चलते उसी के दल के नेताओं ने एफ़आईआर दर्ज करवा दी है!
लेकिन इससे उनको छुट्टी मिल जाए, यह इतना भी आसान नहीं! आरोप है कि अशोक का यह अपमान इसलिए किया गया है कि वे एक पिछड़ी जाति के सम्राट थे। वर्णवादी भाजपा का असली चेहरा सामने आ गया है। भाजपा के नेता सफाई देते फिर रहे हैं कि इस लेखक के विचार से हमें क्या लेना देना! क्या अभी हमने सम्राट अशोक का भारी जश्न नहीं मनाया था! उनपर ताना कसा जा रहा है कि आपने तो तब किया था जब चुनाव सामने था और आपको पिछड़ी जाति के वोट चाहिए थे। जैसे उसी समय आपने नेहरू प्रेमी दिनकर की तस्वीर को भूमिहारों का वोट लेने के लिए माला पहनाई थी।
तो मांग यह है कि लेखक से सारे पुरस्कार वापस लिए जाएँ और उसपर और सख्त कार्रवाई की जाए! जो अशोक प्रेमी हैं, उन्हें भी इतिहास के अशोक से कोई लेना देना नहीं। वह तो रोमिला थापर या नयनजोत लाहिरी का सरदर्द है। उस अशोक को उद्घाटित करने के लिए उसके शिलालेखों को पढ़ना, उस पर लिखे सारे आख्यानों को पढ़कर जांच करना कि एक सम्राट अपने साम्राज्य की समस्याओं से अलग-अलग जगह निबटने की कैसे कोशिश कर रहा होगा।
वे ठीक ही कहती हैं कि बौद्ध इतिहास लेखन ने अशोक का महिमामंडन क्यों किया यह तो समझा जा सकता है लेकिन इस प्रकार के इतिहास लेखन के पीछे एक धर्म विशेष की अपनी महानता साबित करने के उद्देश्य के कारण यह दुर्घटना हो सकती है कि अशोक के सारे कार्यकलाप और सारे संदेशों को एक धर्म की वकालत में दिए गए दीर्घ प्रवचन के अंग मान लिया जाए। जबकि वह अपनी प्रशासनिक समस्याओं का समाधान इनके जरिए करना चाह रहा हो। या इससे उसकी प्रशासनिक नीति का पता चलता हो।
जो दुर्घटना अशोक के साथ हो सकती है या होती रही है, उससे ज़्यादा औरंगजेब के साथ हुई। आज मुसलमानों पर हमले को या उनके खिलाफ नफरत को जायज़ ठहराने के अकेले मकसद से औरंगज़ेब को एक सपाट चरित्र में बदल देना वैसे ही गलत है, जैसे अशोक के सारे निर्णय, सारे कार्य धार्मिक उद्देश्य से नहीं थे, वैसे ही औरंगज़ेब के निर्णयों और युद्धों का उद्देश्य इस्लाम का प्रचार या हिंदू विरोध न था। शायद औरंगज़ेब के समकालीन भी यह सुनकर हैरान रह जाते यहाँ तक कि शिवाजी भी।
दारा शिकोह की अध्येता सुप्रिया गाँधी ने ठीक ही लिखा है कि आज के धर्मनिरपेक्षता के पैमाने से दारा की जाँच गलत है। उसे औरंगज़ेब के सामने रखकर धर्मनिरपेक्ष ठहराना और औरंगज़ेब को सांप्रदायिक या इस्लामवादी कहना वास्तव में इतिहास पर आज के आग्रहों को आरोपित करके आज के युद्ध के लिए चरित्र गढ़ना है। वे लिखती हैं कि मौक़ा मिलता तो दारा भी बादशाह ही होता। उस वक्त वह कैसे फैसले लेता, इसकी कल्पना कठिन है।
जैसा नयनजोत लाहिरी ने अशोक पर अपनी किताब में लिखा है, अगर औरंगज़ेब या अशोक को मौक़ा मिलता तो वे भारतीय जनता पार्टी के लोगों को वे कहते जो एक व्यथित राजा ने अपने मित्र को कहा था, “इस ज़मीन और आसमान में उनके अलावा और भी चीज़ें हैं होराशियो,जिनकी कल्पना तुम्हारे दिमाग में हैं।”
भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार में तो सिर्फ एक ही कल्पना है, मुसलमान विरोध। उनकी शासन नीति में इसके अलावा और कुछ नहीं। इस वजह से औरंगज़ेब को वह हमेशा प्रतिपक्षी की तरह सामने रखती है।
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