इतिहास के प्रेतों को जगाया जा रहा है। औरंगज़ेब आलमगीर को तो सोने ही नहीं दिया गया है। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बार-बार उसे जंग के मैदान में खींच लाते हैं। जब वह सत्ता के बाहर थे तब भी और अब जब वह सत्ता में हैं तब भी उन्हें औरंगज़ेब चाहिए। कितनी बार पिछले एक-दो महीने में उसे मैदान में उतारा गया है, इसकी गिनती मुश्किल है। उसकी मिट्टी उसके वतन की ख़ाक बन गई है लेकिन भाजपा और संघ उसे बार-बार ज़िंदा करते हैं। हर बार उसपर वार करने के लिए।
अब अशोक के साथ औरंगज़ेब की याद क्यों?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 24 Jan, 2022

भाजपा और संघ के प्रिय एक नाटककार ने अशोक की तुलना औरंगजेब से कर डाली है। लेखक का ख़याल यह है कि अशोक का आरम्भिक जीवन क्रूरता का था जैसे औरंगजेब का। और बाद में दोनों धार्मिक हो गए ताकि उनके खूँखार अतीत से लोगों का ध्यान हट जाए और उन्हें उनकी धार्मिकता के लिए याद रखा जाए। लेकिन यह तुलना नाटककार को महँगी पड़ रही है।
लेकिन जैसा हमने कहा यह मरणोत्तर औरंगज़ेब है जो भाजपा को चाहिए। और वह ऐसी जंग में है जिसमें मुकाबला करने को खुद मौजूद नहीं।
वह तो उस जंगे मैदान का आदी रहा है जिसमें तलवारों से तलवारें टकराती थीं। लेकिन वह क्या सिर्फ जंग ही करता था? उसने आखिरकार हुकूमत भी की थी! और हुकूमत सिर्फ जंगों का सिलसिला न थी। लेकिन यह औरंगज़ेब तो भाजपा के किसी काम का नहीं। उस औरंगज़ेब की उन्हें कोई दरकार नहीं।