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‘बुलडोजर’ कानून व्यवस्था में कैसा निवेश, कैसा अमृत महोत्सव!

ज्यादा वक़्त नहीं गुजरा है जब दिसंबर में जारी ‘सुशासन सूचकांक-2021’ में उत्तर प्रदेश राज्य को ग्रुप-B में शामिल कुल आठ राज्यों में से पाँचवाँ स्थान प्राप्त हुआ था। यह सुशासन सूचकांक 10 संकेतकों पर आधारित है। विभिन्न संकेतकों में उत्तर प्रदेश की स्थिति और भी ज्यादा चिंताजनक है। सार्वजनिक स्वास्थ्य नाम के संकेतक में उत्तर प्रदेश का अंतिम अर्थात 8वां स्थान है। जबकि कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र, आर्थिक सुशासन, सार्वजनिक बुनियादी ढाँचा अवसंरचना एवं जनसुविधा, तथा सामाजिक कल्याण एवं विकास जैसे महत्वपूर्ण एवं नागरिक केंद्रित संकेतकों में उत्तर प्रदेश नीचे से दूसरे स्थान अर्थात 7वें स्थान पर रहा। इससे पहले सूचकांक की आलोचना का खेल रचा जाए यह बात जानना ज़रूरी है कि सुशासन सूचकांक का विकास, प्रशासनिक सुधार एवं लोक शिकायत विभाग ने राष्ट्रीय सुशासन केंद्र, नई दिल्ली तथा सुशासन केंद्र, हैदराबाद के तकनीकी सहयोग से किया है। 

दिसंबर, 2021 में ही पीएम मोदी द्वारा योजना आयोग को विस्थापित करके बनाई गई संस्था, नीति आयोग, ने स्वास्थ्य सूचकांक जारी किया था। इसका शीर्षक है- “स्वस्थ राज्य, प्रगतिशील भारत रिपोर्ट”। 2018 से हर साल जारी होने वाली इस रिपोर्ट में नीति आयोग ने पाया कि उत्तर प्रदेश इस स्वास्थ्य सूचकांक में अंतिम पायदान पर है। यह रिपोर्ट इसलिए अहम है क्योंकि इसमें राज्य सरकार के पास कोविड के दौरान फैली अव्यवस्था से बचने का मौका नहीं है। उसका कारण यह है कि यह रिपोर्ट कोरोना के शुरू होने के पहले आंकड़ों पर आधारित है। अर्थात यह उन आंकड़ों को प्रदर्शित करती है जो यह बताते हैं कि जब देश में कोरोना शुरू होने वाला था तब उत्तर प्रदेश की स्थिति क्या थी। 24 संकेतकों पर आधारित यह सूचकांक विश्व बैंक के तकनीकी सहयोग तथा केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के परामर्श से तैयार किया गया है।

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नीति आयोग का स्वास्थ्य सूचकांक और इसके बाद आई कोरोना की व्यापक लहर यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि गंगा के किनारे कपड़े से ढकी हजारों नागरिकों की लाशें सरकारी असमर्थता और इन्कॉम्पिटेन्स का परिणाम थीं।

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट, 2021 के अनुसार देश में कुपोषित बच्चों की कुल संख्या का लगभग 40% अकेले उत्तर प्रदेश में है। सरकार चाहे तो इनकार कर सकती है लेकिन कुपोषण से होने वाली मौतें इस बात की गवाह हैं कि प्रदेश की हालत अच्छी नहीं है। 2020 में आगरा में हुई एक 5 साल की बच्ची की मौत इसका प्रमाण है। 5 साल की यह बच्ची कुपोषण और बीमारी से मर गई। हो सकता है देश के प्रधानमंत्री को यह ‘छोटी सी’ घटना न पता चली हो लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मामले का संज्ञान लेकर तत्काल उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर इस मुद्दे पर जवाब माँगा था। बच्ची के मरते ही और मुख्य सचिव को पत्र जाते ही हाहाकार मच गया। बच्ची के परिवार वालों को तत्काल आवास योजना से घर दिया गया (पहले नहीं मिला था), घर में शौचालय बनवाया गया (पहले नहीं था), अनाज, फल, सब्जी, तेल सब कुछ दिया गया। बिजली का बकाया बिल भरा गया, बैंक खाता खुलवाया गया (पहले नहीं था), आधार बनवाया गया, जो पहले नहीं बना था। लेकिन यह सब तब हुआ जब 5 साल की वो बच्ची अपनी जान कुपोषण और बीमारी से गंवा चुकी थी। 

ताज्जुब की बात तो यह कि आगरा जोकि 2018 में खुले में शौच मुक्त हो चुका था वहाँ 2020 में इस बच्ची के घर में शौचालय नहीं उपलब्ध था। यह विरोधाभास डरावना है और महिला बाल विकास मंत्रालय के उत्तर प्रदेश को लेकर कुपोषण संबंधी दावे की पुष्टि करता है। साथ ही इससे कुछ महत्वपूर्ण सवालों का भी जन्म होता है। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गाँधी तो मान चुके थे कि ऊपर से निकला एक रुपया 15 पैसे बनकर नीचे पहुंचता है। पर क्या देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह मानेंगे कि उनकी फ्लैग्शिप योजना जिसमें वो खुले में शौच मुक्त भारत को देखना चाहते थे, वह वास्तव में 15% व्यावहारिकता के साथ ही लागू हो पाई है। 

लखनऊ, कानपुर और आगरा जैसे बड़े और पर्यटन शहरों में आज भी सुबह वह दृश्य दिख जाएगा जिससे प्रधानमंत्री का खुले में शौच मुक्त भारत का सपना बिखरा हुआ दिखता है।

बात बिल्कुल साफ है कि प्रधानमंत्री जी के दावों और भारत के निचले तबकों की बिगड़ती स्थिति में कोई साम्य नहीं है। इसके बावजूद पीएम मोदी ने लखनऊ में आयोजित यूपी इन्वेस्टर्स समिट 3.0 में कहा कि “उत्तर प्रदेश ही देगा भारत की विकास गाथा को गति” तो इसे चुनाव की तैयारी से अधिक कुछ नहीं समझना चाहिए। वो शायद ही कभी भारत के प्रधानमंत्री बनकर माइक के सामने जाते होंगे। उनका जो स्वरूप लोगों के सामने है उसमें वो एक पार्टी के ऐसे नेता नजर आते हैं जिसे चुनाव पसंद हैं, रैलियाँ पसंद हैं, नये नारे और शब्द विन्यास का शौक है। यदि उन्हें सच का शौक होता, और वो एक प्रधानमंत्री की हैसियत से उत्तर प्रदेश की जनता के सामने आते तो निश्चित ही वो उत्तर प्रदेश की पुलिसिंग में हो रही गिरावट को लेकर चिंता जाहिर करते। भारतीय पुलिस फाउंडेशन की स्मार्ट पुलिसिंग सूचकांक, 2021 में उत्तर प्रदेश 29 राज्यों में से 28वें स्थान पर है। जब प्रदेश के उच्च पुलिस अधिकारी अपराधियों (साबित नहीं) के घरों पर बुलडोजर चलाने की बात प्रेस ब्रीफ़ में खुलेआम कर सकते हैं तब इसका मतलब साफ़ है कि उन्हें न तो इंडियन पीनल कोड से मतलब है और न ही क्रिमिनल प्रोसीजर कोड से। कानून की वर्दी कानून से इतर जाकर कार्य करे तो चिंता होनी चाहिए न कि इन अधिकारियों में ‘सिंघम’ खोजने की प्रथा चलनी चाहिए।

yogi up investors summit 2022 amid law and order challenges - Satya Hindi

भारत के प्रधानमंत्री को कुछ सूचकांक बहुत प्यारे लगते हैं जैसे काफी सालों तक उनका प्रिय सूचकांक ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ रहा है जिसमें भारत लगातार आश्चर्यजनक छलाँगे लगाते हुए बहुत सारे पायदान ऊपर चढ़ा। लेकिन अफसोस ये कि इसको जारी करने वाली संस्था विश्व बैंक को इस सूचकांक में इतनी विसंगतियाँ दिख गईं कि उन्होंने इस सूचकांक को निकालना ही बंद कर दिया। इस तरह की घटना शायद ही पहले कभी घटी हो। इन्वेस्टर्स समिट के दौरान प्रधानमंत्री जी का नया पसंदीदा सूचकांक वर्ल्ड रीटेल इंडेक्स है। क्योंकि इस सूचकांक में भारत को पूरी दुनिया में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ है। लेकिन प्रधानमंत्री कभी भी लोकतंत्र सूचकांक (46वां स्थान), वैश्विक भुखमरी सूचकांक (101वां) और प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (150वां) का ज़िक्र नहीं करते। अपनी कमियों को उजागर करना थोड़ा मुश्किल काम है। और अभी वो इस मुश्किल काम के लिए तैयार नहीं हैं।

इन्वेस्टर्स समिट के दौरान बहुत से उद्योगपतियों ने हिस्सा लिया। इसमें बिड़ला समूह के चेयरपर्सन कुमारमंगलम बिड़ला भी थे। बिड़ला ने कहा कि- यूपी जितना निवेश पिछले कुछ सालों में पा चुका है उतना तो यहाँ पिछले दो दशकों में भी नहीं आया। हो सकता है साल दर साल बिड़ला की संपत्ति बढ़ रही हो, अंबानी और अडानी वैश्विक अरबपतियों की सूची में चमक रहे हों लेकिन भारत का निचला तबका आज भी धूल से लिपटा लू और ठंड में अपनी जान दे देता है। जो बच गए हैं उनकी जान महंगाई ले लेगी। ऐतिहासिक बेरोजगारी और महंगाई के इस दौर में उद्योगपतियों के मुँह से ऐसी झूठी बातें अच्छी नहीं लगतीं। पता नहीं किस स्वप्न लोक में जी रहे हैं ये उद्योगपति।

उद्योगपतियों को नीति आयोग द्वारा जारी की गई राष्ट्रीय बहुआयामी सूचकांक की रिपोर्ट पढ़नी चाहिए और महसूस करना चाहिए कि जिस यूपी में खड़े होकर, करोड़ों रुपए खर्च करके इन्वेस्टर्स समिट आयोजित की गई है वह देश के तीन शीर्ष सबसे गरीब प्रदेशों में से एक है।

उत्तर प्रदेश में लगभग 38% आबादी बहु आयामी गरीबी से पीड़ित है।

गरीबों के बीच करोड़ों रुपये ख़र्च करके आयोजित एक समारोह में हवाई ‘सकारात्मक’ बातें करने से पहले देश के इन प्रतिष्ठित उद्योगपतियों को स्वयं से सवाल करना चाहिए कि क्या इनके द्वारा किया गया निवेश ऐसे तरीके से किया गया है कि भले ही उनकी जेब थोड़ी कम भरे पर देश का गरीब सप्ताह में एक बार हरी सब्जी खा सके। फल, दूध, दही आदि के बारे में तो सरकार और उद्योगपतियों दोनों से आशा नहीं है। 

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स्वयं की पीठ थपथपाना आसान है लेकिन जनसरोकार के अहम मुद्दों पर वास्तविक प्रदर्शन करना मुश्किल है। एनएसएसओ के आँकड़े बताते हैं कि शीर्ष 5% अमीर, निचले 5% गरीबों से 9 गुना अधिक धनराशि सिर्फ़ खाने में खर्च करते हैं। गरीब को सिर्फ आटा और चावल नसीब हो जाए यही बहुत है लेकिन अमीरों को फल, दूध, माँस सब चाहिए। आंकड़ों के अनुसार अमीर अनाजों में ज्यादा पैसे नहीं खर्च करते। लेकिन ये शीर्ष अमीर गरीबों से 3.5 गुना अधिक पैसा दालों पर खर्च करते हैं (दालों के दाम ऐतिहासिक रूप से ज्यादा हैं)। यही 5% अमीर भारतीय, निचले 5% गरीब भारतीयों की अपेक्षा 14.5 गुना अधिक पैसा अंडा, मछली, माँस आदि में खर्च करते हैं। दूध के उत्पादन में भारत दुनिया का शीर्ष राष्ट्र है, पर गरीबों को पर्याप्त दूध नहीं मिल पाता, यहाँ के अमीर, दूध पर गरीबों की तुलना में लगभग 24 गुना अधिक पैसा खर्च करते हैं। ताजे फल तो गरीब की टोकरी में है ही नहीं। शायद ही साल में कभी कभार कोई फल खाने को मिल जाता हो। शीर्ष 5% अमीर ताजे फलों में, निचले 5% गरीबों की अपेक्षा 61 गुना अधिक पैसा खर्च करते हैं। यह अंतर सिर्फ अंतर नहीं अपराध है। ऐसे में गरीब को देश और प्रदेश में होने वाले निवेश से क्या लेना देना।           

गरीबों की आकांक्षाओं को 5 किलो अनाज तक सीमित कर देना, आजादी के 75 सालों बाद भारत का लक्ष्य नहीं हो सकता। यह कैसा ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ है जिसमें 85 करोड़ लोग सरकारी और निम्नस्तरीय अनाज पर निर्भर हैं?

पेट की भूख शांत करने के लिए लंबी लाइन, बीमार होने पर अस्पतालों में लंबी लाइन और सरकारी नीतियों के तुगलकपन के कारण लंबी लाइनों में लगा भारत वो भारत नहीं जिसकी कल्पना आजादी के बाद की गई थी। देश के पहले प्रधानमंत्री, जवाहर लाल नेहरू को अंग्रेजों द्वारा लूटा गया भारत मिला था। ईंट दर ईंट रखते हुए उन्होंने एक एक करके धीरे धीरे देश का संस्थागत विकास किया। लेकिन आज जो भारत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिला है वह तो 21वीं सदी की शुरुआत से ही उड़ान भर रहा था। लेकिन नीतिगत कमजोरी, उदारता की कमी तथा संस्थागत ‘उतार’ के कारण देश ठिठक गया है। उसे ठीक करने की जिम्मेदारी वर्तमान नेतृत्व की है। 

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नेतृत्व को सच का सामना करने की आदत डालनी चाहिए। कुपोषित गरीब, झुलसी हुई त्वचा और दूध, घी, फल, सब्जियां खाए चेहरों की संख्या में भारी अंतर देश के हित में नहीं है। अच्छा भोजन, संतुलित आहार लग्जरी नहीं हक होना चाहिए। सरकार अगर इस दिशा में सोचती तो अच्छा होता। यह कोई छिपी बात नहीं कि हजारों करोड़ के इनवेस्टमेंट का दावा करने वाले उद्योगपति अक्सर अपनी प्रतिबद्धता से कम ही निवेश करते हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि प्रतिबद्धता पूरी की जाएगी तब भी निवेश से पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि निवेश का लाभ सबसे पहले और सबसे ज्यादा उन तक पहुंचे जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। अक्सर उद्योगपति निवेश के साथ रोजगार का आंकड़ा जोड़ देते हैं लेकिन क्या कभी सरकारी स्तर पर इसकी जांच की गई कि वास्तव में उतना रोजगार उत्पन्न हुआ या नहीं? और क्या उस रोजगार की प्रकृति गरिमापूर्ण है या नहीं? इसके साथ ही निवेशकों के हित भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। निवेशकों को सोचना चाहिए कि अरबों रुपए निवेश किए जाने वाले प्रदेश में बुलडोजर प्रेरित और भय आधारित कानून व्यवस्था क्या कभी उदार अर्थव्यवस्था को जन्म नहीं दे पाएगी? उद्योगपतियों को सरकार से एक धर्मनिरपेक्ष और उदार प्रशासन की मांग करना चाहिए और बिना इसके निवेश के लिए हाँ नहीं करनी चाहिए। शायद इतने से ही वो इस देश के सामाजिक हित में अपना योगदान दे सकें।    

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वंदिता मिश्रा
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