प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ में नायक ‘होरी’ की मौत एक ‘त्रासदी’ है। लेकिन उससे भी त्रासद यह है जिस गाय को वह कभी अपनी आमदनी से न खरीद सका, और उसी चाह में मर भी गया, उसकी मौत के बाद ‘समाज’ उसी गाय को खरीद कर उसे दान देने की परंपरा के उसके ‘कर्तव्य’ के लिए बाध्य करने की कोशिश करता है। गोदान की त्रासदी तो होरी की पत्नी धनिया द्वारा इस ‘कर्तव्य’ को नकारने से ख़त्म हो जाती है लेकिन भारतीय नागरिकों की त्रासदी ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है।
जनता के अधिकारों की जगह ‘कर्तव्य पथ’ क्यों?
- विमर्श
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- 11 Sep, 2022

जिस राजपथ पर कोई भी अधिकार की बात कर सकता था, जहां किसानों, मजदूरों और छात्रों ने कई बार विरोध के अपने अधिकार को पुष्ट किया, उसका नाम बदलकर ‘कर्तव्य’ पथ क्यों किया गया? जानिए इसके क्या मायने हैं।
भारत और भारत के नागरिकों की त्रासदी यह है कि जब देश के 85 करोड़ नागरिक सरकारी राशन पर जीवन व्यतीत कर रहे हों, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के चलते हजारों नागरिक हर रोज मारे जा रहे हों, न जाने कितनी गर्भवती महिलाओं का प्रसव अस्पतालों के बाहर सड़क पर होता हो, कमजोर अवसंरचना के कारण सरकारी अस्पतालों में लगी लाइन और प्राइवेट अस्पतालों में सोने के दाम पर मिलने वाला इलाज कई भारतीयों को प्रतिदिन बीमारी से पहले हताशा से मार रहा हो, बेरोजगार प्रतिदिन सड़कों पर लाठियाँ खा रहे हों, जिन छात्रों से देश का निर्माण होना है, सरकार उन्हीं के लिए आयोजित होने वाली प्रतियोगी परीक्षाएँ भी ईमानदारी से न करवा पा रही हो, तब यह मानना पड़ेगा कि सरकार द्वारा अपने नागरिकों को, उनके कर्तव्यों को याद दिलाने की सनक; वास्तव में नागरिकों के अधिकारों को नकार देने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है।