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‘सम्पूर्ण असफलता’ की प्रतिनिधि है मोदी सरकार!

13 अक्टूबर को श्रीराम जन्मभूमि ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने देश भर के महत्वपूर्ण लोगों (VIPs) से अपील करते हुए कहा, ‘मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों, राजदूतों और यात्रा और सुरक्षा संबंधी प्रोटोकॉल का आनंद लेने वाले सभी लोगों को 22 जनवरी को अयोध्या नहीं आना चाहिए। हम या स्थानीय प्रशासन उनका स्वागत नहीं कर पाएंगे।’ अपनी इस अपील के बाद उन्होंने यह भी नहीं बताया था कि 22 जनवरी को ऐसा क्या होने वाला है। लेकिन 25 अक्टूबर आते आते तक सबकुछ साफ़ हो गया जब ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय समेत कुछ और सदस्यों ने पीएम मोदी से मिलकर उन्हें 22 जनवरी को राम मंदिर के उद्घाटन का निमंत्रण दे दिया। अब घटनाओं को आपस में जोड़ा जा सकता था। अब यह अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि VIPs को 22 जनवरी को अयोध्या न आने की अपील के पीछे क्या कारण थे? 

संभवतया ये सब ‘तारीख के चुनाव’ से अधिक ‘चुनाव की तारीख’ के मद्देनजर तैयार किया गया कार्यक्रम नज़र आ रहा है जिसमें कोशिश यह की जा रही है कि राम मंदिर के उद्घाटन के दिन ‘शो’ और ‘शो-रनर’ दोनों ही चीजें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द ही घूमें। ताकि देश और दुनिया के तमाम हिन्दू वोटर यह जान सकें कि 21वीं सदी में ‘राम की स्थापना’ नरेंद्र मोदी द्वारा ही की गई है। ताकि हिन्दू वोटरों को यह संदेश दिया जा सके कि अगर नरेंद्र मोदी फिर से प्रधानमंत्री बनते हैं तो भारत की पहचान और हिन्दू पहचान आपस में एक हो जाएंगी। किसी अन्य वीआईपी जैसे राहुल गाँधी और उद्धव ठाकरे के आते ही शो की लाइट उन पर भी जाकर टिक सकती है इससे हिन्दू वोटरों के मन में कांग्रेस को लेकर बिठाई गई हिन्दू विरोधी छवि को नुक़सान पहुँच सकता है। और ऐसी कोई भी चीज जो कांग्रेस को मज़बूत करेगी उससे पीएम मोदी प्रसन्न नहीं हो सकते क्योंकि इससे उनके आगामी चुनाव में जीत के सपने और पीएम बनने की लालसा पर तलवार लटक सकती है। पीएम मोदी को आमंत्रण देने आना और उनका भावुक हृदय से उसे स्वीकार कर लेना घटनाओं के क्रम के रूप में नहीं बल्कि पटकथा के रूप में देखा जाना चाहिए।

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भारत में यदि राम मंदिर का उद्घाटन किसी को करना चाहिए था तो वो हैं शंकराचार्य। देश की चार प्रमुख पीठों के सभी शंकरचार्यों से बेहतर कौन व्यक्ति हो सकता है जो भारत में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधि होता? शंकराचार्य जिन्होंने 8वीं-9वीं शताब्दी के दौरान, प्रबल बौद्ध और जैन धर्माचार्यों के नीचे बिखर रहे हिन्दू धर्म को न सिर्फ़ एक नई पहचान दी बल्कि उपनिषद की विरासत का उपयोग करके एक प्रबुद्ध दार्शनिक आधार भी दिया। हिन्दू धर्म को ठोस संस्थागत रूप देने वाले शंकराचार्य ही थे जिन्होंने अपने वेदान्त दर्शन और ब्रह्मसूत्र भाष्य के माध्यम से हिन्दू धर्म को चोटी पर बिठाया। ऐसी संस्था को ही राममंदिर के उद्घाटन के अवसर पर होना चाहिए था। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता कि भारत में राम को राजनैतिक चश्मे से देखने की बाध्यता समाप्त हो जाती। राममंदिर भी स्थापित होता और नए सिरे से राम भी, लेकिन दुर्भाग्य से पीएम मोदी को आमंत्रण देते ही यह अवसर सदा के लिए हाथ से निकल गया। अब राम राजनीति के केंद्र में सिमटेंगे और उन्हें संभवतया जनता के हृदय में वो विस्तार न मिल पाए, जिसके वो हकदार हैं।

एक समय अपने भाषणों में ‘हिन्दुत्व’ को मुद्दा तक मानने से इनकार करने वाले पीएम मोदी आज इसी मुद्दे को लेकर ही चुनाव में जाना चाहते हैं क्योंकि उनका गवर्नेंस का तथाकथित गुजरात मॉडल केंद्र में पहुंचते ही दम तोड़ चुका है। अब धर्म के अतिरिक्त उन्हें और उनके दल को कुछ और नहीं सूझ रहा है। चाहे महिलाओं को संरक्षण देने का मामला हो या अल्पसंख्यकों का भरोसा जीतने का या फिर देश में सौहार्द्र और शुचितापूर्ण बिजनेस का माहौल बनाने का, पीएम मोदी लगभग हर मोर्चे पर ठिठके नज़र आ रहे हैं। और अब जबकि भारत को फिलिस्तीन के साथ खड़ा होना चाहिए था तब जॉर्डन के द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासभा में लाए गए युद्ध विराम के प्रस्ताव से भारत ने दूरी बनाकर अपनी विदेशनीति और मानवता दोनों को पीछे धकेल दिया है।

केंद्र की सत्ता में बने रहने की कुंजी लोकसभा चुनाव हैं और चुनाव को जीतने की एक महत्वपूर्ण चाभी राजनैतिक पार्टी के पास धन की उपलब्धता है। धन की उपलब्धता वृहद स्तर पर औद्योगिक घरानों से होती है और जब देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने आपके लिए और आप उनके लिए हाजिर हों तब यह सहज ही अहंकार हो सकता है कि आपके हाथ से सत्ता कभी दूर नहीं जाएगी। 
इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट यह बता रही है कि कैसे गौतम अडानी के नेतृत्व वाला अडानी समूह भारत के आर्थिक संसाधनों पर एक तरफा कब्जा करता जा रहा है। पीएम मोदी के नेतृत्व में देश का औद्योगिक मॉडल और औद्योगिक इकोसिस्टम एक उद्योगपति और उसकी प्रगति को समर्पित हो चुका है।

वर्तमान सरकार धार्मिक आयोजनों और चुनाव के लिए धार्मिक नैरेटिव के पीछे क्या छिपा रही है उसे समझने की जरूरत है। रिपोर्ट के अनुसार, आज से 10 साल पहले, जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बने थे तब गौतम अडानी की कंपनी अडानी पोर्ट्स, सिर्फ पश्चिमी भारत के एक छोटे से हिस्से तक सीमित थी लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से आज स्थिति यह हो चुकी है कि अडानी पोर्ट्स भारत की 5,422 किमी लंबी तटरेखा के औसतन प्रत्येक 500 किमी पर अपनी उपस्थिति बना चुका है। अर्थात आज भारत के तटीय क्षेत्र के हर 500 किमी पर आपको अडानी पोर्ट्स आसानी से दिख जाएगा। देश का 25% यानी एक चौथाई कार्गो शिपिंग क्षेत्र अकेले अडानी की कंपनी के पास है, पिछले 10 सालों में अडानी पोर्ट्स में कारोबार (मिलियन टन में) चार गुना बढ़ गया, जबकि 2001 में उनके पास, मुँदरा के रूप में सिर्फ एक ही बड़ा पोर्ट था। कार्गो क्षेत्र में कंपनी का मार्केट शेयर जो 2013 में मात्र 9% था वह 2023 में लगभग 24% के स्तर पर पहुँच चुका है।

रिपोर्ट के अनुसार कंपनी का पोर्ट्स क्षेत्र में इतना बड़ा फायदा वास्तव में केंद्र सरकार के अंतर्गत आने वाले पोर्ट्स में अडानी की बढ़ी हुई हिस्सेदारी से हुआ है क्योंकि इसी दौर में केंद्र सरकार की कार्गो पोर्ट में हिस्सेदारी लगातार घटी है। केन्द्रीय वित्त मंत्रालय के एक उच्च अधिकारी के अनुसार ‘ये चिंता का विषय है’। केंद्र सरकार के अपने अधिकारी कह रहे हैं कि अवसंरचना क्षेत्र का एक इतना बड़ा हिस्सा एक व्यक्ति के पास नहीं जाना चाहिए था, आज नहीं तो कल यह ‘समस्या बन सकता है’। स्वयं जहाजरानी मंत्रालय, जिसके अंतर्गत पोर्ट्स काम करते हैं, के एक अधिकारी ने कहा है कि अभी भले ही अडानी पोर्ट्स फायदे में चल रहे हो लेकिन भविष्य में ये ‘बड़ा खतरा’ बन सकते हैं।

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पिछले 10 सालों के दौरान देश की संपत्ति और संसाधन एक व्यक्ति और कंपनी के पास एकत्रित होते रहे और सरकार ने कुछ नहीं किया। ये कैसे हुआ होगा? अचानक अडानी पोर्ट्स इतना सक्षम कैसे बन गया होगा? पीएम मोदी जिन्होंने ‘चौकीदार’ बनने का दावा किया था उनसे पूछा जाना चाहिए कि उनकी नाक के नीचे यह सब कैसे चलता रहा? यदि यह उनके देखरेख में किया जा रहा है तब तो यह देश के साथ किया गया छल है और अगर यह उनकी अनदेखी की वजह से हो रहा है तो यह उनकी अक्षमता को प्रदर्शित करता है जिसे अब स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग, जिसकी स्थापना प्रतिस्पर्धा अधिनियम-2002 के आलोक में की गई थी, एक सशक्त संस्था है जिसे 1991 में हुए आर्थिक सुधारों को सही तरीक़े लागू करने और व्यावसायिक शुचिता को भारतीय औद्योगिक इकोसिस्टम में स्थापित करने के लिए लाया गया था। 2013-14 तक यह आयोग सशक्त तरीके से भारतीय कंपनियों में उपज रही मोनोपोली की प्रवृत्तियों को रोकता रहा लेकिन इसके बाद से यह गूगल और एप्पल जैसी विदेशी कंपनियों के ऊपर फाइन लगाने वाली संस्था मात्र बनकर रह गया। अडानी जैसी कंपनी ‘राजनैतिक प्रश्रय’ पाकर भारतीय प्रतिस्पर्धा को ठेंगा दिखाती रही और यह संस्था राजनैतिक दबाव में एक ठोस कदम भी उठा सकने में नाकाम रही। यही कारण है कि विदेशी शॉर्ट सेलर फर्म ‘हिंडनबर्ग रिसर्च’ ने अडानी की कंपनी में कमियों का जखीरा खोल दिया। विदेशी अख़बारों- फाइनेंशियल टाइम्स और गार्जियन ने आँख खोल देने वाली रिपोर्ट्स प्रकाशित कीं लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार टस से मस नहीं हुई। और अब इंडियन एक्सप्रेस जैसे भारतीय अखबार भी विश्लेषण करने को बाध्य हो रहे हैं, रिपोर्ट बना रहे हैं और केंद्र सरकार के अधिकारी अपना नाम न बताने की शर्त पर यह बता रहे हैं कि कैसे एक व्यक्ति को पूरी भारत सरकार, भारत के संसाधनों को सौंपने में लगी हुई है। प्रतिस्पर्धा आयोग के पूर्व चेयरपर्सन ने कहा कि “अडानी पोर्ट्स के शेयर चुपचाप तरीके से लगातार बढ़ रहे हैं। बिना नोटिस में आए किसी एक उद्योगपति का इस तरह से बढ़ना समस्या बन सकता है, …सरकार और प्रतिस्पर्धा आयोग को इस पर नजर रखनी चाहिए”।

महत्वपूर्ण अधिकारी और संस्थाएं अपनी चिंताएं जाहिर कर रहे हैं, डर रहे हैं कि कहीं ये सब भारत के औद्योगिक विकास को बाधित न कर दे लेकिन सरकार को कोई चिंता नहीं है। 
‘हिन्दू वोटर’ और ‘राम मंदिर’ के आयोजन के पीछे अपनी अक्षमता और असफलताओं को छिपाने की ‘भव्य’ कोशिश की जा रही है। मुझे पक्के से नहीं पता लेकिन कोई भी यह आसानी से बता सकता है कि राम मंदिर के उद्घाटन के कुछ दिन के अंदर ही तथाकथित ‘निष्पक्ष’ ‘संवैधानिक संस्था’ भारतीय निर्वाचन आयोग लोकसभा चुनावों की घोषणा कर देगा। अगर ऐसा होता है तब भी हमपर यह दबाव रहेगा कि यह माना जाए कि चुनाव आयोग बिना दबाव के काम कर रहा है और भारत में चुनाव निष्पक्ष ही होते हैं। लेकिन क्या यह सही है?
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अधिकारियों को ‘रथ-प्रभारी’ और जनता को राम मंदिर के निर्माण के लिए एक दल/एक व्यक्ति और एक विचारधारा का ‘आभारी’ और साथ ही एक उद्योगपति को देश का ‘प्रमुख औद्योगिक कार्यकारी’ बनाने की कोशिश की जा रही है। क्या हर चीज को ‘एक’ करने का नारा लगाने वाले पीएम मोदी देश के संसाधनों को ‘एक व्यक्ति’ के हवाले करने की भी योजना बना रहे हैं? एक दिन भी ईडी और सीबीआई गौतम अडानी के ठिकानों पर छापा डालने नहीं गई लेकिन जिन लोगों ने गौतम अडानी और पीएम मोदी के संबंधों पर प्रकाश डालने की कोशिश की उनकी या तो संसद सदस्यता चली गई या फिर वो किसी अन्य मामले में जेल चले गए या फिर उन्हें अन्य मामलों की आड़ में फँसाया जाने लगा। 

मुझे सिर्फ़ इतना पता है कि जो लोग भारत में ‘मोनोपोली’ को बढ़ावा दे रहे हैं, भ्रष्टाचार को धर्म की आड़ में प्रश्रय दे रहे हैं और चुनाव को धर्म की गोद में डालने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें यह अंदाजा नहीं है कि 75 सालों के विकास के बाद भारत का लोकतंत्र और इसके नागरिक ‘धार्मिक आयोजनों’ की आड़ में तैयार की जा रही ‘राजनैतिक ताजपोशी’ को झटके से उतार फेंक सकते हैं। शायद 2024 का चुनाव का परिणाम कुछ ऐसा ही संदेश देने वाला है।     

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वंदिता मिश्रा
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