loader
रुझान / नतीजे चुनाव 2024

झारखंड 81 / 81

इंडिया गठबंधन
56
एनडीए
24
अन्य
1

महाराष्ट्र 288 / 288

महायुति
233
एमवीए
49
अन्य
6

चुनाव में दिग्गज

कल्पना सोरेन
जेएमएम - गांडेय

जीत

पूर्णिमा दास
बीजेपी - जमशेदपुर पूर्व

जीत

बिना चर्चा के क़ानूनों का ‘आना-जाना’: संसदीय लोकतंत्र में घुन

1990 में एक लंबे अंतराल के बाद अर्जेन्टीना में एक के बाद एक लोकतान्त्रिक सरकारों का आना शुरू हुआ। अब पहले का वह दौर खत्म हो चुका था जब कभी लोकतान्त्रिक तो कभी सैन्य सरकारों का शासन आया करता था। लेकिन नई आने वाली लोकतान्त्रिक सरकारों ने भी पूर्ववर्ती सैन्य सरकारों द्वारा बर्बाद किए गए संस्थानों, जैसे-न्यायपालिका, आदि को पहले की तरह ही चलाया जाना ठीक समझा। 

अर्जेन्टीना का प्रमुख राजनैतिक दल पेरॉनिस्ट पार्टी के आगामी राष्ट्रपति कार्लोस सौल मेनेम थे जो कहने को तो एक लोकतान्त्रिक पार्टी के उम्मीदवार थे लेकिन उन्होंने पहले से कार्यरत सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को कभी प्रलोभन देकर तो कभी डरा धमका कर इस्तीफा देने पर बाध्य करने की कोशिश की। एक मामला है; जब राष्ट्रपति सौल मेनेम ने सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश जस्टिस कार्लोस फे को अम्बेस्डर बनाने का प्रस्ताव दिया। जस्टिस फे ने जवाब में अपनी लिखी किताब ‘जस्टिस एण्ड एथिक्स’ की एक कॉपी उन्हें भेजते हुए साथ में एक नोट भी भेजा जिसमें लिखा था “सावधान! यह किताब मैंने लिखी है”।

ताज़ा ख़बरें

यह सच है कि जस्टिस फे अर्जेन्टीना में जिस न्यायपालिका को बचाने की कोशिश कर रहे थे वह वर्षों पहले से कब्रिस्तान में थी। आने वाले समय में राष्ट्रपति कार्लोस मेनेम ने संविधान संशोधन करके अपनी पसंद के चार अन्य न्यायाधीशों को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त कर दिया और इस तरह उसने लगभग हमेशा के लिए वो दरवाजे बंद कर दिए जिससे कभी भविष्य में इस संस्था को अस्पताल पहुँचाया जा सकता था।

जस्टिस कार्लोस फे ने अपनी सीमाओं में रहकर भरपूर कोशिश की और हमेशा की तरह इतिहास इन कोशिशों को याद रखेगा। लेकिन क्या भारत में भी कोशिश हो रही है ताकि संस्थाओं के औचित्य को बनाए रखा जा सके? 

भारत में इस समय सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई राज्यसभा के सदस्य हैं, उनके नेतृत्व वाली पीठ ने वर्षों से चले आ रहे अयोध्या विवाद पर 9 नवंबर, 2019 को अपना निर्णय सुनाया था। इस निर्णय के एक सप्ताह बाद 17 नवंबर को वो सेवानिवृत्त हो गए और अगले 5 महीनों में ही 19 मार्च 2020 को उन्हें राज्यसभा की सदस्यता की शपथ लेते हुए देखा गया।

जस्टिस गोगोई की आत्मकथा ‘जस्टिस फॉर द जज’ आगामी 8 दिसंबर को रिलीज के लिए तैयार है। आशा है कि वो इस पुस्तक में ज़रूर यह बताएँगे कि उन्होंने वो प्रयास क्यों नहीं किया जो अर्जेन्टीना के जस्टिस फे ने किया था। 

ऐसी ही एक आशा पहले वरिष्ठ पत्रकार रहे और वर्तमान में राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह जी से है कि वो भी अपनी आत्मकथा लिखेंगे और बताएंगे कि राज्यसभा के उपसभापति के रूप में जो ज़िम्मेदारी उन्हें संविधान ने दी, उसे निभाने में वो कमजोर पड़ते क्यों दिख रहे हैं।

20 सितंबर, 2020 के राज्यसभा के उस वीडियो को आसानी से किसी भी वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म पर देखा जा सकता है जिसमें माननीय उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह जी विपक्ष की मत विभाजन की मांग को नकारते हुए ध्वनिमत से विवादास्पद तीन कृषि क़ानूनों को पारित करते देखे गए। अपने लिए अवमानना के ख़तरे को स्वीकारते हुए भी मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि ये वही क़ानून हैं जिसने देश भर के लाखों किसानों को दिल्ली के विभिन्न बॉर्डर्स पर एक वर्ष से भी अधिक समय के लिए सड़क पर रहने के लिए बाध्य कर दिया। ये वही क़ानून हैं जिनकी वजह से 700 से अधिक किसानों की आंदोलन के दौरान मौत हो गई (सरकार के अनुसार उनके पास उन किसानों की मौत का आँकड़ा नहीं है)।  

parliament debate ahead of passed three farm laws - Satya Hindi

तीन कृषि क़ानून विवाद

क़ानून अच्छे थे या बुरे, किसानों के भले के लिए थे या उद्योगपतियों के भले के लिए, सरकार की मंशा अच्छी थी या शोषणकारी इसका जवाब जानने के लिए भारत के संविधान में संसद के माध्यम से ‘चर्चा का प्रावधान’ है। संसदीय चर्चा किसी क़ानून या अन्य मुद्दे के विभिन्न पक्षों को विभिन्न जनप्रतिनिधियों के माध्यम से जनता के समक्ष प्रस्तुत करती है ताकि जनता जागरूक हो सके। लोकसभा में सत्ताधारी दल का स्पष्ट बहुमत है जिसकी वजह से वहाँ मत विभाजन के बावजूद यह लगभग असंभव ही था कि सदन का फ़ैसला सरकार के ख़िलाफ़ जाता, लेकिन राज्यसभा में स्पष्ट बहुमत की स्थिति के अभाव में क़ानूनों पर चर्चा और उस पर मत विभाजन निर्णायक साबित हो सकता था। लेकिन उपसभापति के ‘विशेषाधिकार’ ने लाखों अन्नदाता किसानों को एक साल के लिए सड़क पर छोड़ दिया। जिस राज्यसभा के बारे में मौरिस जोनस ने कहा था कि “राज्यसभा का औचित्य दूसरा विचार करने के लिए है” उसके औचित्य को बचाने की ज़िम्मेदारी उपसभापति पर थी। 

एक वर्ष तक लगातार सरकार से मांग करते-करते जब किसान थक कर ‘वोट पर चोट’ करने निकले तो सत्तारूढ़ दल के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को याद आया कि उनकी ‘तपस्या’ में कोई कमी रह गई है और उन्होंने 19 नवंबर को सुबह 9 बजे आकर अचानक कृषि क़ानूनों की वापसी की घोषणा कर दी।

और इस घोषणा के एक हफ्ते बाद आहूत होने वाले शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही बिना किसी चर्चा के पहले लोकसभा से, 4 मिनट में, और एक फिर राज्यसभा से ध्वनिमत से ‘कृषि क़ानूनों का निरस्तीकरण’ विधेयक पारित कर दिया गया। 

कृषि क़ानूनों का पारित होना और निरस्तीकरण यूँ तो कई दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है लेकिन इस कानून के ‘आने जाने की यात्रा’ को संस्थाओं के क्षरण के रूप में समझा जाना चाहिए। कृषि, जिस पर भारत की आधे से अधिक आबादी निर्भर है, लगभग 42% कार्यबल कृषि क्षेत्र से संबंधित है, उससे संबंधित कानून बनाते समय न ही सांसदों को व संसद की किसी समिति को भरोसे में लिया गया और न ही कृषि क्षेत्र के विभिन्न स्टेकहोल्डर्स को।

parliament debate ahead of passed three farm laws - Satya Hindi
फ़ोटो साभार: फ़ेसबुक/पुष्कर व्यास

भारत की संसदीय प्रणाली में किसी कानून की स्क्रूटिनी के लिए विभिन्न मंत्रालयों की स्टैन्डिंग कमेटी (स्थायी समिति) की व्यवस्था की गई है जिसमें संसद का समय बचाने के लिए क़ानून के एक-एक अनुच्छेद पर चर्चा की जाती है और ज़रूरत पड़ने पर कमेटी बाहर से स्टेकहोल्डर्स व अन्य विशेषज्ञों को भी बुलाकर उनका पक्ष जानती है ताकि कानून के संसद में पेश होते समय सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच एक आम सहमति हो सके और सदन की कार्यवाही का समय बचाते हुए जल्द से जल्द क़ानून पारित किया जा सके। लेकिन कृषि क़ानूनों के मामले में सरकार ने संसद की इस संस्था को बाइ-पास करना उचित समझा। 

इसके बाद राज्यसभा नाम की संस्था पर प्रहार की बारी थी। राज्यसभा जिसके निर्माण के औचित्य के बारे में संविधान सभा की प्रारूप समिति के सदस्य एन.गोपाला स्वामी अयंगर ने कहा था, “राज्यसभा की स्थापना में संविधान निर्माताओं का उद्देश्य यह था कि सभी महत्वपूर्ण विषयों पर विचार विमर्श सुंदर ढंग से हो तथा जो कानून क्षणिक भावनाओं के कारण बनाया जा रहा है उसे पास होने में देरी करें।” लेकिन माननीय उपसभापति हरिवंश जी ने चर्चा तक को उचित नहीं समझा।

विमर्श से और

इसके बाद ‘सांसद’ नामक संस्था पर प्रहार हुआ। वैसे तो सदन के सदस्यों के विशेषाधिकारों का संरक्षक सदन का पीठासीन अधिकारी ही होता है जैसा कि संविधान विशेषज्ञ डॉ. एम.वी. पायली ने कहा है कि “अध्यक्ष सदन के विशेषाधिकारों (व्यक्तिगत तथा सामूहिक) का संरक्षक होता है”। संविधान में यह संरक्षण इतना पुख़्ता है कि ‘शर्मा बनाम श्रीकृष्णा’ (1959) मामले में सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि यदि संसद के विद्यमान विशेषधिकारों और नागरिक के मूल अधिकारों के बीच संघर्ष होता है तो अधिमानता विशेषाधिकारों को दी जाएगी। लेकिन कृषि कानूनों के पारित होने और उनकी वापसी पर उपसभापति ने न ही सांसदों को वैचारिक संरक्षण दिया और न ही विशेषाधिकारों को भी संरक्षित किया। 

 

सदन के सदस्यों के पास दो क़िस्म के विशेषाधिकार हैं; व्यक्तिगत एवं सामूहिक। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अंतर्गत एक पहलू सदन के अंदर वाकस्वातंत्र्य (सदन के भीतर कही गई किसी बात पर कोई कार्यवाई नहीं की जा सकती) का है। इस वाकस्वातंत्र्य को सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा ही नियमित किया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “…स्पीकर राष्ट्र की स्वतंत्रता व स्वाधीनता का प्रतीक है।” 

लेकिन जरा सोचिए यदि सदन का पीठासीन अधिकारी ही वाकस्वातंत्र्य को, नियमों/नियमावलियों के सहारे प्रतिबंधित करने लगे, बहस और बात रखने का मौक़ा ही न दे तो ऐसी स्वतंत्रता को स्वतंत्रता तो नहीं कहा जाएगा?

भारत के संविधान को थोड़ा समझिए फिर सोचिए कि एक सांसद का सबसे महत्वपूर्ण विशेषाशिकार क्या होगा? हो सकता है यह संविधान में वर्णित ना हो लेकिन एक सांसद का सबसे क्रिटिकल अधिकार है संसद में बोलना, अपने क्षेत्र और लोगों के मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर भी बोलना। पर यदि उसे किसी नियम के सहारे बोलने से रोक दिया गया, अपने विरोध की वजह से उस पर सदन से निकाले जाने की कार्यवाही की जाने लगी तो जनता की आवाज़ का क्या? और वो तब नहीं बोल पाता जब बोला जाना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है तो ऐसे विशेषाधिकार का क्या लाभ है? ऐसे समय में सांसद के पास क्या रास्ता है? यदि आप घर में घर के ही मुखिया द्वारा असुरक्षित हो जाएं तो आपका अस्तित्व संकट में है। 

 

ख़ास ख़बरें

इन कृषि क़ानूनों ने भारत के प्रधानमंत्री, मंत्रिपरिषद जैसी संस्थाओं को भी प्रश्न के घेरे में ला दिया। पिछले कुछ वर्षों में देश के तमाम महत्वपूर्ण फ़ैसलों पर प्रधानमंत्री का अपनी मंत्रिपरिषद को विश्वास में न लेना संसदीय लोकतंत्र की गिरावट का एक लक्षण है। भारत में यह लक्षण एक संगठित बीमारी का रूप ले रहा है। प्रधानमंत्री का पहले रात 8 बजे का घोषणागान और अब सुबह 9 बजे का नया जुनून संसदीय लोकतंत्र की बर्बादी पर उनकी नींद का प्रतीक है। यह किसी राष्ट्रीय नेता का लक्षण नहीं जिसमें वो अपने कार्यकाल में अपने ही लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभों को घुन लगने के लिए छोड़ दे। 

वास्तविकता तो ये है कि भारत धीरे धीरे अपनी लोकतांत्रिक रूह को चोटिल कर रहा है। ज़रा ग़ौर कीजिए; संविधान में व्यवस्था है कि प्रधानमंत्री कैबिनेट के निर्णयों को राष्ट्रपति के सूचनार्थ रखेगा, लेकिन जब प्रधानमंत्री बिना कैबिनेट की मीटिंग के कोई निर्णय पब्लिक में सुना देते हैं तो क्या वो भारत के राष्ट्रपति के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं है? क्या प्रधानमंत्री का यह कृत्य असंवैधानिक नहीं है? दूसरी तरफ़ राष्ट्रपति को अधिकार है कि वो कोई भी सूचना प्रधानमंत्री से माँग सकते हैं लेकिन क्या राष्ट्रपति ने कृषि क़ानूनों और पहले विमुद्रीकरण पर सरकार से कोई सूचना माँगी थी?

700 से अधिक किसानों के मर जाने के बावजूद यदि राष्ट्रपति किसी सूचना को महत्वपूर्ण नहीं समझते तो उन्हें प्रदत्त अधिकारों का क्या लाभ?

भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने ठीक ही कहा था, “जनतान्त्रिक प्रणाली का केंद्र बिन्दु राष्ट्र की संसद है। प्रशासन की बागडोर चाहे किसी के हाथ में हो जब तक संसद के अधिकार संरक्षित हैं…राष्ट्र बड़े से बड़े संकट का सामना कर सकता है।”  

लेकिन वर्तमान में संसद ही अपने कार्यों से देश को लोकतान्त्रिक संकट की ओर ढकेलती नज़र आ रही है। लोकतंत्र का अर्थ प्रधानमंत्री या मंत्रिपरिषद नहीं है, लोकतंत्र एक सतत कॉन्फ्रेंस है जिसमें इसके विभिन्न स्तम्भ एक अनवरत सहयोग की अवस्था में राष्ट्र का संचालन करते हैं लेकिन इस कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता हमेशा जनता द्वारा ही की जाती है। ऐसे में जनता के प्रतिनिधियों को कमजोर करना किसी भी दृष्टि से जनता को सशक्त नहीं करेगा।  

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
वंदिता मिश्रा
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विमर्श से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें