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रोकैया सखावत हुसैन जिन्हें बेगम रोकैया के नाम से भी जानते हैं आज़ादी के पहले भारत में जन्मी एक प्रसिद्ध नारीवादी और नारी मुक्ति की अग्रदूत थीं। बेगम रोकैया ने 1905 में एक कहानी लिखी जिसका नाम था ‘सुल्ताना का स्वप्न’। कहानी में ‘सुल्ताना’ नाम की एक महिला की कल्पना की गई थी, जो लेडीलैंड नाम की एक जगह पहुँचती है। लेडीलैंड एक ऐसा स्थान था जहां महिलाओं को पढ़ने लिखने, काम करने और नवाचार करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। यहाँ महिलायें वर्षा को रोकने के उपाय खोजती हैं, हवाई कारें चलाती हैं। और सबसे खास कि पुरुषों द्वारा बनाए गए हथियार युद्धक टैंक आदि महिलाओं की बुद्धि व विवेक के सामने हरा दिए जाते हैं। थोड़ी देर बाद सुल्ताना की नींद खुल जाती है और वो पाती है कि नींद में थी न कि लेडीलैंड में।
इस कहानी के लिखने के लगभग 116 वर्षों बाद कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव और उत्तर प्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए एक मैनिफेस्टो जारी करती हैं जो इस संदर्भ में ऐतिहासिक है कि यह पहला ऐसा चुनावी मैनिफेस्टो है जो सिर्फ़ महिलाओं के लिए निकाला गया है। इस मैनिफेस्टो को कांग्रेस ने ‘शक्ति विधान घोषणा पत्र’ नाम दिया है।
घोषणापत्र आगामी यूपी विधानसभा चुनावों में महिलाओं के लिए कांग्रेस की तरफ से 40% महिला उम्मीदवारों की अनिवार्यता को दोहराता है।
इस देश में चुनावी विश्लेषकों के बीच एक इंच भी ऐसी ज़मीन खाली नहीं है जिसमें जातिगत समीकरणों, धार्मिक हथकंडों के अलावा किसी अन्य चर्चा के लिए स्थान बचता हो। चुनाव विश्लेषकों के लिए चुनाव का मतलब जाति है। लगभग 50% महिलायें और उनकी समस्याओं व सुख दुख को तय करने वाला सिर्फ़ पुरुष है। ऐसे में एक ऐसा घोषणापत्र लाना जो सिर्फ महिलाओं के लिए हो, मतलब प्रदेश की 50% आबादी के लिए उनकी समस्याओं के लिए समर्पित हो, यह न सिर्फ़ ऐतिहासिक है बल्कि साहसिक भी है।
चुनावी विश्लेषकों और पारंपरिक राजनीति के संवाद से परे आधी आबादी की अपनी समस्याएँ हैं। इस घोषणापत्र के जारी होने के बाद से ही विभिन्न दल इसे ‘थकी और हारी हुई’ कांग्रेस का आखिरी दांव समझ रहे हैं तो विश्लेषक भी इसे एक वर्ग के वोट को ‘टैप’ करने के दृष्टिकोण से ही देख रहे हैं, जबकि इस घोषणापत्र को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखना, समझना चाहिए न कि भावुकता से।
सामान्यतया जब कभी ‘ऐसा’ कुछ पब्लिक डोमेन में आता है और लोगों से उनकी राय पूछी जाती है तो उनका जवाब ‘बहुत अच्छा है’, ‘शानदार क़दम है’ जैसे कुछ गिने चुने शब्दों के रूप में ही आता है। जबकि वास्तविकता किसी के विचार से नहीं बल्कि इस बात से आँकनी चाहिए कि मैनिफेस्टो के वादों को कितनी वैज्ञानिकता और शोधों का समर्थन प्राप्त है।
‘शक्ति विधान’ स्वयं सहायता समूह के माध्यम से आने वाले 5 वर्षों में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली महिलाओं का सशक्तिकरण करेगा। इसके लिए 4% की ब्याजदर पर समूहों को ऋण दिलाना सुनिश्चित करेगा।
यह ऋण न सिर्फ आर्थिक सशक्तिकरण करता है बल्कि महिलाओं की राजनैतिक भागीदारी को बढ़ावा भी देगा। आर्टिज़ प्रिलामैन 2018, 2019, एवं अन्य का अध्ययन ही ले लीजिए उनके अनुसार “मुझे यह विचारोत्तेजक साक्ष्य भी प्राप्त हुआ कि ‘स्वयं सहायता समूह’ में भागीदारी ने महिलाओं को अपनी राजनीतिक आवाज़ का प्रयोग करने की गुंजाइश देकर राजनीतिक ज्ञान, आत्मविश्वास और नागरिक कौशलों के विकास में उनकी मदद की। किसी स्वयं सहायता समूह की सदस्य महिलाओं के लिए ग्राम सभा की बैठकों में भाग लेने या स्थानीय नेतृत्व के लिए अपना दावा करने की संभावना दोगुनी हो गई।”
भारत में महिला वोटरों का हिस्सा लगभग 50% है। लेकिन विभिन्न दलों द्वारा देश के विधानसभाओं में उतारे गए उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या औसतन मात्र 10% ही है। इसमें सबसे शिक्षित राज्य केरल में महिला उम्मीदवारों की संख्या पिछले चुनावों में 9%, असम में 7.8%, पुद्दूचेरी, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में 11% ही रही है। ऐसे में कांग्रेस द्वारा आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 40% महिला उम्मीदवारों को टिकट देने की घोषणा आकाशीय अंतर से ऐतिहासिक है। अधिक महिलाओं को टिकट देना किसी वोटबैंक आधारित राजनीति और भावुकता से परे असल में अत्यंत वैज्ञानिक एवं शोध आधारित क़दम है। जनप्रतिनिधि के रूप में महिलाओं की कार्यक्षमता व शैली को कुछ अध्ययनों से समझा जा सकता है।
2004 में डफलो और चट्टोपाध्याय के पश्चिम बंगाल व राजस्थान में 265 ग्रामसभाओं में किए गए प्रसिद्ध अध्ययन में यह बात सामने आई कि सामान्य धारणा (महिला आरक्षित सीटों पर उनके घर के पुरुष काम करते हैं) को नकारता है। महिलायें कैसे विकास की वाहक हैं इसे, महाराष्ट्र के एक अध्ययन (साठे, 2013 व अन्य) में पाया गया कि जिस गाँव की मुखिया महिला होती है वहाँ बुनियादी व सार्वजनिक सेवाओं की उपलब्धता बेहतर होती है बशर्ते उनका कार्यकाल 3-3.5 वर्ष का रहा हो।
तमाम वर्ग के लोग (खासकर पुरुष) घोषणापत्र की आलोचना में जो बात कर रहे हैं उनमें जो सबसे आगे हैं वो ये है कि 40% उम्मीदवार महिलायें कहाँ से आएंगी, अगर मिल भी गईं तो क्या वो चुनाव जीत पायेंगी, चुनाव जीत भी गईं तो क्या ऐसी नई महिलायें जिन्हें राजनीति का बिल्कुल अनुभव नहीं है क्या वो काम कर पायेंगी? इसके जवाब में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने घोषणापत्र जारी करते हुए कहा था कि वो जीतें चाहे हारें, वो अपने क्षेत्र में सशक्त होंगी। इस बार हारेंगी अगली बार जीतेंगी।
घोषणापत्र का टोन साफ़ है- “एक महिला को गरिमामयी जीवन जीने, चुनने की आजादी, आर्थिक स्वतंत्रता एवं अपनी पहचान की बेबाक दावेदारी करने का हक है”।
यह टोन भी एक अनुसंधान से समर्थन प्राप्त है। अफरीदी व अन्य, 2017 के अनुसार “जिन महिला नेताओं को कार्य का पूर्व अनुभव न हो वो, हो सकता है कि शुरुआती कुछ दिनों तक उतना अच्छा प्रदर्शन न कर पाएँ परंतु वो पुरुषों की तुलना में अधिक तेजी से सीखती हैं”। ऐसे में प्रियंका गांधी की बेफिक्री साफ है।
प्रश्न यह भी है कि अन्य दल महिलाओं को आगे रखने में क्यों हिचक रहे हैं। पिछले 30 वर्षों में कांग्रेस के कमजोर धरातल का लाभ जिन दलों को मिला है वो क्यों नहीं आगे आते और महिलाओं को अधिक प्रतिनिधित्व सौंपते। जबकि अध्ययन महिला विधायकों की कार्यकुशलता को साफ़-साफ़ बयान कर रहे हैं। 1992 से 2012 के बीच 4,265 विधानसभा क्षेत्रों में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, महिला विधायक, पुरुष विधायक की तुलना में अपने निर्वाचन क्षेत्रों में प्रतिवर्ष 1.8% तक आर्थिक प्रदर्शन को बढ़ाती हैं। इसका श्रेय महिला विधायकों के कम भ्रष्ट, अधिक कुशल और पुरुष समकक्षों से अधिक प्रतिस्पर्धी होने को दिया जाता है।
मेरे द्वारा कुछ सामान्य महिलाओं से बात करने पर ज्ञात हुआ कि भारतीय सामाजिक वातावरण उनपर ज़्यादा हावी है और यह सही भी है कि भारतीय मतदाताओं का वोटिंग पैटर्न महिला उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ ही रहा है। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि 40% महिलाओं को टिकट देने की घोषणा एक साहसिक क़दम है। CSDS लोकनीति के एक हालिया सर्वे के अनुसार, महिला उम्मीदवारों का मानना है कि भारतीय मतदाता महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों को अधिक मत देते हैं और 50 वर्ष से अधिक की दो तिहाई महिलायें मानती हैं कि पुरुषों के राजनैतिक वर्चस्व के कारण महिलाओं को राजनीति में स्थान नहीं मिलता।
इस सर्वे में यह बात भी सामने आई कि राजनैतिक पृष्ठभूमि की महिलाओं के लिए राजनीति में आना आसान होता है। उच्च सामाजिक और आर्थिक वर्ग की महिला की भागीदारी राजनीति में अधिक है। जबकि 71% महिलाओं को राजनीतिक समाचारों को पढ़ने में बहुत रुचि है पर उनपर अपने परिवार की जिम्मेदारियाँ सबसे ज़्यादा होने के कारण और पुरुषों के एक ख़ास क़िस्म के दबाव के कारण एक हिचकिचाहट है।
अय्यर और मणि, 2012 के अनुसार “1993 के पंचायत संशोधन के बाद राजनैतिक भागीदारी के बाद महिला अपराधों में 26% की बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन साथ में पुलिस की संवेदनशीलता भी बढ़ी है।
ऐसे में यदि घोषणापत्र के अनुसार, महिलाओं को पुलिस बल में 25% की भागीदारी मिलती है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि पुलिस, थाने और वर्दी अपनी संपूर्णता में महिलाओं को लेकर कितनी और संवेदनशील हो जाएगी।
घोषणापत्र; ‘स्वावलंबन’ शीर्षक के तहत महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण का वादा कर रहा है। यह सशक्तिकरण महिलाओं के कार्यबल में प्रवेश से जुड़ा हुआ है। 20 लाख नई नौकरियों में 40% महिलाओं को दिए जाने की घोषणा और 50% महिलाओं को नौकरी देने वाले उद्योगों को सरकारी समर्थन का वादा भावुकता से अधिक आँकड़ों पर आधारित है।
महिला कार्यबल के मामले में भारत दक्षिण एशिया में तीसरा सबसे ख़राब प्रदर्शनकर्ता देश है। भारत सिर्फ़ इसलामिक राष्ट्रों- पाकिस्तान और अफगानिस्तान से ही आगे है और लगभग सभी पड़ोसी देशों से पीछे है। जहां नेपाल में 80% वर्कफोर्स है, चीन 65%, बांग्लादेश 58% और वैश्विक औसत स्वयं 50% है वहाँ भारत में यह आंकड़ा मात्र 27% है। (2014) उत्तर प्रदेश में तो यह आंकड़ा (9.4%) है और यह किसी महामारी से कम नहीं है।
रोजगार की प्रतिनिधि सरकारी योजना, मनरेगा, में यूँ तो 33% महिलाओं के लिए प्रावधान है लेकिन वास्तविकता 5% पर आकर दम तोड़ देती है। महिलाओं की घटती भागीदारी कम वेतन, डीसेंट रोजगार की कमी और महिला अपराधों के बढ़ने का प्रतीक है। एक आँकड़े के अनुसार, बढ़ते महिला अपराधों के कारण उत्पन्न असुरक्षा व अत्यंत कम वेतन के कारण 44% महिलायें काम नहीं करना चाहतीं।
‘द मान्स्टर सैलरी इंडेक्स’ के अनुसार भारतीय पुरुष समान काम के लिए महिलाओं से 25% अधिक वेतन कमाते हैं। एक्सेनचर रीसर्च के अनुसार महिला और पुरुष में वेतन के मामलों में भारत में 67% का भारी अंतर है। अवसरों की यह कमी इस बात का भी द्योतक है कि कामकाजी महिलाओं के लिए उचित अवसंरचना उपलब्ध नहीं है। द हिन्दू की एक रपोर्ट के अनुसार एक महिला शोधकर्ता के पास परिवार के प्रति बड़ी जिम्मेदारियों के बोझ के कारण पुरुषों की अपेक्षा कम अवसर होता है। कामकाजी महिलाओं के लिए अवसंरचना की ऐसी कमियों को पाटने के लिए घोषणापत्र प्रदेश के 25 शहरों में नवीनतम सुविधाओं से युक्त छात्रावास का वादा करता है जो यदि ज़मीन पर आता है तो निश्चित रूप से महिला भागीदारी को बढ़ाएगा।
कोविड महामारी के पहले आए एक सर्वे, चौधरी और वरविक, 2014 के अनुसार, महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर की कमी के कारण, वर्कफोर्स में उनकी संख्या घटती जा रही है। जबकि कोविड के दौरान और उसके बाद तो महिलाओं के लिए रोजगार संभावनायें और भी क्षीण होती गई हैं। (विश्व बैंक के एक आँकड़े के अनुसार कोविड के दौरान महिला कार्यबल भागीदारी दर जुलाई में 16.1% पर आ गई थी)।
वर्ल्ड बैंक के अनुसार भारत के लेबरफोर्स में मात्र 19.9% ही महिलायें हैं। बाक़ी संख्या पुरुषों की है। ऐसे में घोषणापत्र में मनरेगा में 40% संख्या का आरक्षण, विधानसभाओं में 40% का आरक्षण, 25% पुलिस में नौकरी, महिलाओं को उस स्पेस में जगह बनाने का मौक़ा देगा जहाँ अभी तक सिर्फ़ पुरुषों की वजह से भय का माहौल था।
विशाखा जजमेंट के बावजूद आज भी कार्यक्षेत्र में कोई खास सुधार नहीं आया है। NCRB की रिपोर्ट 2020, भले ही महिला अपराधों में कमी को दर्शा रही हो लेकिन महिला अपराधों की बदलती प्रकृति, बढ़ते साइबर क्राइम और महिला अपराधों में उत्तर प्रदेश का सर्वोच्च स्थान पर होना, पुलिस समेत तमाम अन्य क्षेत्रों में महिला भागीदारी की कमी का बाइ-प्रोडक्ट है। वर्ल्ड बैंक का हाल का अध्ययन इसकी पुष्टि करता है। इसके अनुसार, सेफ्टी पॉलिसी व लचीला वर्क कल्चर और वेज गैप के कारण ही महिलाओं की हिस्सेदारी कम है। ऐसे में एक राष्ट्रीय दल के द्वारा दिए गए ऐसे घोषणापत्र को समस्या निराकरण के रूप में देखना चाहिए।
1993 में हुए सुधारों ने पंचायत स्तर पर लगभग 10 लाख निर्वाचित महिला नेताओं को सामने लाकर खड़ा कर दिया। लेकिन आज, 2021 में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के मामले में भारत 193 देशों में 148वें नंबर पर है। वर्तमान लोकसभा में मात्र 14% महिलायें हैं, और उत्तर प्रदेश विधानसभा में तो यह संख्या 10% के आँकड़े को भी नहीं छू पा रही है। कारण ये है कि पार्टियाँ महिलाओं को टिकट देना ही नहीं चाहती।
सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल-5 (एसडीजी-5) में भारत ने प्रतिबद्धता जाहिर की है कि 2030 तक देश के विकास में महिलायें बराबर की हिस्सेदार होंगी। लेकिन ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2021 कुछ और ही कहानी कह रहा है। इस इंडेक्स में भारत, 2020 की अपेक्षा 28 स्थान नीचे खिसक कर 140वें स्थान पर आ गया है। हम सिर्फ़ पाकिस्तान व अफगानिस्तान से ही बेहतर हैं पर अन्य सभी पड़ोसियों नेपाल, भूटान, मालदीव आदि से पीछे हैं। इसके अंतर्गत एक सब इंडेक्स जो कि राजनैतिक सशक्तिकरण से सम्बद्ध है, में हम एक वर्ष में ही 18 स्थान खिसक कर 51वें स्थान पर हैं। ये तथ्य बार-बार “शक्ति विधान घोषणापत्र” के साथ सहमति जता रहे हैं और इसकी वैज्ञानिकता को पुख्ता कर रहे हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव होनेवाले थे और पूरे देश के ऐक्टिविस्ट और महिला संगठन इस बात के लिए एक जुट हो रहे थे कि महिलाओं के लिए “Womenifestos” (वीमेनीफेसटोज) को तैयार किया जाए ताकि पूरे देश में महिलाओं के मुद्दों पर एक सकारात्मक पहल हो सके। लेकिन किसी राजनैतिक दल ने भारत की आधी आबादी, जिसमें हर जाति, धर्म, संप्रदाय और वर्गों की आबादी शामिल थी, के लिए कुछ खास क़दम नहीं उठाए।
12 सितंबर 1996 का वो दिन जब लोकसभा में पहली बार महिला आरक्षण बिल को पेश किया गया था जिसमें बहस की शुरुआत “आज हमारे देश के इतिहास में बहुत खास दिन है...” से हुई थी। दुर्भाग्य यह है कि वो बहस आज 25 सालों तक ख़त्म नहीं हुई। 1998, 2002 और फिर 2010 भी निकल गया लेकिन जब इच्छाशक्ति जवाब दे दे तो संविधान क्या कर सकता है।
रिपोर्ट बनाते समय मुझे यह एहसास हुआ कि महिला, पुरुष, बच्चियाँ, कामकाजी महिलाएँ और विश्वविद्यालई छात्र-छात्राओं का समूह प्रियंका गाँधी की इस मुहिम की तारीफ़ करने के बावजूद भी एक हिचक में हैं पर इसमें उसे आशा दिखाई पड़ रही है। इन सभी बातों और प्रतिक्रियाओं के बावजूद यह बात समझनी ज़रूरी है कि यह मैनिफेस्टो भले ही किसी राजनैतिक दल की ओर से आया हो, हो सकता है कि हम उस दल से बिल्कुल सहमत न हों लेकिन महिला होने के नाते यह स्वीकारने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि इसमें उठाए गए विभिन्न मुद्दे महिलाओं को निर्णायक रूप से सशक्त करेंगे।
यह घोषणापत्र एक गहरी रेखा खींचता है जिसके एक तरफ़ वैज्ञानिकता एवं अनुसंधान से उत्पन्न समस्याओं को साधने का दस्तावेज है तो दूसरी तरफ विभिन्न राजनैतिक दल हैं जिसमें धार्मिक मुद्दों और विभाजनकारी एजेंडों को लेकर चलने की एक रुकी और ग़ैर-गतिशील प्रवृत्तियाँ हैं जिनमें विकास की आशा कम है, अन्य दल जातीय समीकरणों में देश के नागरिकों को समेटने की कोशिश कर रहे हैं।
वास्तव में ‘शक्ति विधान घोषणापत्र’ भारतीय बुद्धिजीवी उदासीनता के ख़िलाफ़ एक सशक्त राजनैतिक प्रतिक्रिया है जो अपनी वोटबैंक राजनीति से परे तथ्यों व वैज्ञानिकता से ओतप्रोत है। और इसे ऐसे ही समझने की कोशिश की जानी चाहिए न कि वोटबैंक के तंग ढांचे में।
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