नीति आयोग ने 2020 में ‘वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम’ के साथ मिलकर एक रिपोर्ट जारी की, जिसका शीर्षक था “टेक होम राशन-गुड प्रैक्टिसेस अक्रॉस द स्टेट्स एंड यूटीज”।
इस रिपोर्ट का उद्देश्य यह बताना था कि सरकार द्वारा शुरू की गई ‘टेक होम राशन’ स्कीम देश के ज़्यादातर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बड़ा अच्छा प्रदर्शन कर रही है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि सरकार ने दूरदराज के इलाक़ों तक पहुँचने के लिए नवाचारी मॉडल अपनाया है। साथ ही इसमें यह भी बताया गया कि सरकार ने जिस तरह के उत्पादन संबंधी, संरचना, वितरण, लेबलिंग, पैकेजिंग, निगरानी, गुणवत्ता नियंत्रण, और सामाजिक एवं व्यावहारिक मानदंडों में बदलाव किया है वह बहुत ही सराहनीय है। नीति आयोग की रिपोर्ट में इस बात की भी ख़ूब तारीफ़ें की गई हैं कि जन भागीदारी के माध्यम से स्थानीय सरकारी संरचनाओं जैसे- आंगनबाड़ियों आदि का बहुत सुंदर तरीक़े से इस्तेमाल किया जा रहा है।
लेकिन, लगभग इसी समय जब नीति आयोग सरकार की तारीफ़ों के पुल बाँध रहा था तब एक प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान ने मध्य प्रदेश में इस योजना को लेकर बड़ा खुलासा किया।
खुलासे में कहा गया कि मध्य प्रदेश में यह ‘टेक होम राशन योजना’, सैकड़ों करोड़ रुपए के घोटाले का शिकार हो गई है। लेकिन तत्कालीन शिवराज सिंह चौहान ऊर्फ़ ‘मामा’ की सरकार ने इसे मानने से इनकार कर दिया। यह इंकार लगभग वैसा ही था जैसा ‘व्यापमं’ घोटाले के खुलासे के बाद इसी शिवराज सरकार द्वारा किया गया था। अब दो सालों के बाद जब मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की जगह मोहन यादव मुख्यमंत्री हैं लेकिन सरकार भाजपा की ही है, तो अब भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) द्वारा 2022 के घोटाले की पुष्टि कर दी गई है। CAG ने 2018-2021 के बीच इस योजना में हुए घोटाले को चिह्नित किया और कहा कि इस ‘टेक होम राशन’ योजना में 428 करोड़ रुपए का घोटाला हुआ है।
इस राशन योजना में सामान ढोने के लिए कागजों में जिन वाहनों का इस्तेमाल किया गया, वो फर्जी थे, जिन स्वयं सहायता समूहों (SHGs) को इससे जोड़ा गया उसमें भी बहुत से फर्जी निकले, ज्यादातर SHGs के नाम और उनसे संबंधित बैंक अकाउंट की जानकारी ग़लत निकली। कागज़ों में लगभग 205 मीट्रिक टन राशन का विवरण दिखाया गया लेकिन वह कभी प्राप्त नहीं हुआ। फर्जी लाभार्थियों की संख्या को कई गुना बढ़ाकर दिखाया गया, आंगनबाड़ी केंद्रों में कम राशन भेजा गया और बाल विकास सुरक्षा अधिकारियों ने इन केंद्रों की गुणवत्ता का जायज़ा भी नहीं लिया।
भारत सरकार ने एकीकृत बाल विकास सेवा योजना (ICDS) के पूरक पोषण घटक के तहत 6 से 36 महीने की आयु के बच्चों और गर्भवती/स्तनपान कराने वाली महिलाओं को घर पर उपभोग के लिए टेक-होम राशन वितरित किए जाने की योजना बनाई। इसका उद्देश्य शिशुओं और छोटे बच्चों में पूरक आहार के माध्यम से पोषण की कमी को पूरा करना था। यह राशन दो तरीके से वितरित किया जाना था पहला, टेक-होम राशन (THR) अर्थात् कच्चे राशन को घर ले जाने की सुविधा और दूसरा, आंगनबाड़ी केंद्रों पर पका हुआ गरम भोजन खाने की सुविधा।
वर्तमान में बदले हुए नाम पोषण अभियान के तहत चल रही योजना बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें ICDS के वार्षिक बजट का एक बहुत बड़ा हिस्सा खर्च किया जाता है। नीति आयोग के शब्दों में समझें तो यह योजना भारत के भविष्य अर्थात् यहाँ के बच्चों के शुरुआती सबसे जरूरी 1000, दिनों की देखभाल के लिए हैं। पैदा होने के बाद शुरुआत के 1000 दिनों में बच्चों को दिए गए पोषण और देखभाल से ही यह तय हो जाता है कि बच्चे का आगे शारीरिक विकास कैसा होगा।
टेक होम राशन और ऐसी ही अन्य योजनाएं इसलिए इतनी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके माध्यम से ही भारतीय मानव संसाधन का कुछ विकास किया जाता है। औपनिवेशिक शोषण के बाद जब देश आज़ाद हुआ तो उस समय भारत में हालात यह थे कि यहाँ के 4 वर्ष से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित थे, उस समय 30% नवजात कम वजन वाले और लगभग 60% महिलाएँ एनीमिया अर्थात् खून की कमी से जूझ रही थीं। इन सबको दूर करने के लिए आज़ादी के बाद अलग अलग सरकारों द्वारा तरह-तरह की योजनाएं चलाई गईं, जैसे- जनवितरण प्रणाली, टार्गेटेड जनवितरण प्रणाली, मिड-डे मील, एकीकृत बाल विकास सेवा योजना, राष्ट्रीय पोषण नीति (1993), स्वास्थ्य मिशन, पोषण अभियान आदि। इन योजनाओं की गुणवत्ता की जांच करने के लिए और बच्चों और माँओं के स्वास्थ्य का निरीक्षण करने के लिए 1992-93 से राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) किया जा रहा है। इन योजनाओं का ही प्रभाव है कि NFHS-5 की हालिया रिपोर्ट यह बता रही है कि बच्चों की स्टंटिंग (बौनापन) घटकर 36% वेस्टिंग 19% और अंडरवेट बच्चों की संख्या 32% हो गई है। लेकिन यह सुधार हर राज्य के हर क्षेत्र में नहीं हुए हैं। अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से भी भारत अभी भी इन मामलों में बहुत पिछड़ा है। अभी इस क्षेत्र में बहुत काम बाक़ी है।
यह पिछड़ापन शायद इसलिए है क्योंकि सरकारें विकास के नाम पर काम कम, घोटाले ज्यादा करवा रही हैं।
मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में हो रहे घोटाले बिल्कुल साफ संदेश दे रहे हैं कि योजनाओं को सफल नहीं होने दिया जाता, इन भ्रष्टाचारों के कारण विकास योजनाओं का फेल हो जाना बिल्कुल तय हो जाता है, इस तरह के भ्रष्टाचार, ज़रूरतमंद नागरिकों से पोषक तत्व छीन ले रहे हैं। तभी तो NFHS-5 में एनीमिया को लेकर भारत की हालत बदतर हो गई है। यहाँ 5 साल से कम उम्र के बच्चों में एनीमिया 58.6% से बढ़कर 67% हो गई है। इसी तरह, महिलाओं में एनीमिया 53.1% से बढ़कर 57% हो गई है। एनीमिया में पुरुषों की भी हालत कुछ ठीक नहीं है। यह 22.7% से बढ़कर 25% हो गई है। यह सच में बहुत ख़तरनाक हालात हैं।
तमाम रिपोर्टें यह बता रही हैं कि मनरेगा में मजदूरी की चोरी हो रही है, समाचार पत्रों में ख़बरें हैं कि फ़र्ज़ी मनरेगा मज़दूर बनाकर ज़रूरतमंदों का अधिकार छीना जा रहा है, जिस डबल इंजन का बार बार नाम लेकर विधानसभा चुनावों में भाजपा के स्टार प्रचारकों ने विकास, विश्वास, प्रयास, का वादा किया था, ऐसे दो बड़े राज्यों मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश की डबल इंजन सरकारों में आयुष्मान योजना की आड़ में फर्ज़ीवाड़ा हुआ और यह भ्रष्टाचार किसी से छिपा नहीं है। ‘व्यापमं’ घोटाला जिसमें फ़र्ज़ी परीक्षाओं से लेकर फ़र्ज़ी डिग्रियाँ और नौकरियाँ तक बांटी गईं और आज तक जांच नहीं हुई किसी को सजा नहीं हुई, कोई दोषी नहीं सिद्ध हुआ, किसी ने ज़िम्मेदारी नहीं ली, सच तो यह है कि यह घोटाला एक ऐसा रहस्य है कि इसकी सच्चाई का पता ही नहीं चल सका है। इस घोटाले में सज़ा के नाम पर भरपूर लीपापोती की गई है। और अब इसी राज्य में नवजातों और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के हिस्से का राशन भी घोटाले में शामिल कर लिया गया है, इसे भी खाया जा रहा है। जब इस मुद्दे पर बात होनी चाहिए, सरकार को जवाब देना चाहिए तब उद्योगपतियों को बचाने के लिए संसद को बंद कर दिया जाता है। मंदिर-मस्जिद की आड़ लेकर जनता के प्रतिनिधि ‘भूख की लूट’ और ‘थालियों की चोरी’ को छिपाने का खेल रच रहे हैं।
गरीबों, वंचितों और जरूरतमंदों के राशन की चोरी- यह सब उस मध्य प्रदेश में हो रही है जहाँ भारतीय जनता पार्टी लगातार 21 सालों से सत्ता में है। इसकी जिम्मेदारी तो केंद्रीय नेतृत्व को भी लेनी चाहिए।
आख़िर जनता मुख्यमंत्री का चुनाव तो नहीं करती, जनता विधायकों के माध्यम से सिर्फ़ पार्टी का चुनाव करती है और फिर केंद्रीय नेतृत्व कभी उसमें शिवराज चौहान को बैठा देता है तो कभी मोहन यादव को। डबल इंजन की सरकार में जब भ्रष्टाचार होता है तब केंद्रीय नेतृत्व आगे क्यों नहीं आता? जिनसे चुनाव के समय वादे करता है उनसे सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार करने के बाद माफ़ी क्यों नहीं माँगता? क्या इस स्तर के घोटाले की गंभीरता का एहसास भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व को नहीं है? पूरी दुनिया क्या सोचेगी कि एक देश जिसका प्रधानमंत्री ‘विश्वगुरु’ बनने का लक्ष्य लेकर चल रहा है उसके अपने ही देश में उसी की पार्टी के डबल इंजन शासन वाले राज्य में नेता और अधिकारी मिलकर बच्चों और महिलाओं के हिस्से का निवाला बेचकर खाये जा रहे हैं?
मध्यप्रदेश की हालत सच में बहुत ख़राब है। यहाँ जनता को धोखे में रखकर, ग़लत सूचनाएं प्रसारित करके, मीडिया पर नियंत्रण रखकर, विपक्षी नेताओं को परेशान करके, जैसे-तैसे सत्ता हासिल कर ली जाती है और प्रदेश की व्यवस्था पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा जाता। केंद्र सरकार के जून 2024 में जारी कुपोषण ट्रैकर से पता चलता है कि मध्यप्रदेश की आंगनबाड़ियों में 40% बच्चे पूरी तरह कुपोषित हैं और 27% बच्चे अर्द्धकुपोषित! प्रदेश में 15 से 19 वर्ष की 58% लड़कियां एनीमिया से पीड़ित हैं; 6 से 59 महीने आयु के 73% बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं और राज्य सरकार का फेलियर यह है कि ‘एनीमिया मुक्त भारत’ द्वारा दिए गए फंड का 40% इस्तेमाल तक नहीं किया गया है। बीजेपी को अनुसूचित जनजातियों का वोट चाहिए लेकिन मध्यप्रदेश के जनजातीय जिले कुपोषण के ‘हॉटस्पॉट’ बने हुए हैं, बीजेपी को इसकी कोई फ़िक्र नहीं है।
क्या जनजातीय ‘भेष’ धारण करके जनजातियों का उत्थान किया जा सकता है? मुझे तो नहीं लगता। हाँ, भेष धारण करने से कैमरे के सामने प्रमाण ज़रूर तैयार हो जाता है कि जनजातियों की चिंता है। सच्चाई ये है कि जनजातियों का उत्थान करना है तो इसके लिए गंभीरतापूर्वक काम करना पड़ेगा, ‘मामा’ बनकर रिश्तेदारी निभाने से काम नहीं चलेगा। बच्चों, महिलाओं और अन्य वंचितों को लेकर मध्यप्रदेश सरकार का रवैया बेहद निराशाजनक है। यह गैर जिम्मेदाराना व्यवहार ही वह कारण है कि बच्चों के बलात्कार और अवयस्कों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों के मामलों में मध्य प्रदेश, देश में पहले स्थान पर विराजमान है (NCRB, 2020)।
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