1986 में गिलर्मो कैनो इसाज़ा नाम के कोलंबियाई पत्रकार की उनके ऑफिस के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इसाज़ा, ‘एल एस्पेक्टाडोर’ नामक अख़बार के संपादक थे। इसाज़ा की हत्या कोलंबिया के सबसे बड़े, सबसे व्यस्त और आर्थिक शहर बोगोटा में हुई थी। उनकी हत्या के लिए किराए के हत्यारों का इस्तेमाल किया गया था। पूरा कोलंबिया जानता था कि इसाज़ा अपने अख़बार के माध्यम से लगातार कोलंबिया के ड्रग कार्टेल को ‘एक्सपोज़’ करने में लगे हुए थे। उनकी मौत उनके अदम्य साहस की क़ीमत थी। ड्रग माफ़िया एल एस्पेक्टाडोर में छपने वाली रिपोर्ट्स/ख़बरों से असहज था और एक दिन इस साहसी पत्रकार की हत्या कर दी। गिलर्मो कैनो की हत्या के बाद भी जब माफिया का दर्द नहीं गया तो 3 साल बाद एल एस्पेक्टाडोर अख़बार के ऑफिस को ही बम से उड़ा दिया गया। इसाज़ा की याद में 1987 में जब एक प्रतिमा लगाई गई तो उसे भी तोड़ दिया गया। उनकी प्रतिमा को तो फिर से बना लिया गया था लेकिन इन सब घटनाओं से यह पता चल चुका था कि गिलर्मो कैनो इसाज़ा ने अपने अख़बार एल एस्पेक्टाडोर के माध्यम से ड्रग माफिया को कितना अधिक नुक़सान पहुंचाया था। इससे यह भी पता चल गया कि एक ईमानदार पत्रकार और एक सख़्त अख़बार, या सख्त रिपोर्टिंग चैनल्स किसी भी हथियार से ज़्यादा खतरनाक साबित हो सकते हैं, खासकर उनके लिए जिनका जीवन सिर्फ भ्रष्टाचार से ही आगे बढ़ता है या जिनके लिये भ्रष्टाचार भी सदाचार से भरा एक आचरण माना जाता है।
1997 में UNESCO द्वारा गिलर्मो कैनो के सम्मान में यूनेस्को/गिलर्मो कैनो विश्व प्रेस स्वतंत्रता पुरस्कार की शुरुआत की गई। इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (EIU) द्वारा जारी किए जाने वाले ‘लोकतंत्र सूचकांक’ में कोलंबिया को ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ यानी ‘फ्लॉड डेमोक्रेसी’ करार दिया गया है।
आज दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र मतलब भारत को भी इसी सूचकांक में यही ओहदा यानी ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ प्रदान किया गया है। गिलर्मो कैनो के देश की तरह भारत भी उन जैसे देशों में आज शामिल है जहाँ के पत्रकारों को जान का खतरा लगातार बना रहता है। कैनो की तरह हर साल ना जाने कितने पत्रकारों की हत्या कर दी जाती है। हालिया घटना छतीसगढ़ के पत्रकार मुकेश चंद्राकर से जुड़ी हुई है। मुकेश 1 जनवरी रात से घर नहीं आए थे और 3 जनवरी को उनका शव मिला। मुकेश की हत्या के पीछे एक रिपोर्ट का ज़िक्र सामने आ रहा है। यह रिपोर्ट मुकेश की मदद से एनडीटीवी के नीलेश त्रिपाठी ने छापी। घटिया सड़क निर्माण की पोल खोलने से संबंधित इस रिपोर्ट के छपते ही प्रोजेक्ट पर जांच बैठा दी गई। इस प्रोजेक्ट में जो 4 ठेकेदार शामिल थे उनमें से एक का नाम है सुरेश चंद्राकर। मुकेश का शव इसी ठेकेदार सुरेश की प्रॉपर्टी के सेप्टिक टैंक में मिला। मुकेश का नाम 2021 में तब पहली बार चर्चा में आया जब बीजापुर में एक नक्सली मुठभेड़ में नक्सलियों द्वारा एक सीआरपीएफ जवान का अपहरण कर लिया गया था। मुकेश और उसके साथियों ने लगातार अपहरणकर्ताओं से संपर्क बनाकर बहुत सी कोशिशों के बाद सीआरपीएफ जवान को नक्सलियों के क़ैद से छुड़ा लिया था। आज उसी पत्रकार की हत्या हो गई है।
गौरी लंकेश की हत्या
मुकेश पहले पत्रकार नहीं हैं जिनकी हत्या हुई है। हाल के वर्षों में तमाम ऐसे पत्रकार हुए हैं जो विभिन्न सरकारों और माफियाओं के आँख की किरकिरी बने रहे जिनकी अंततः हत्या कर दी गई। 2017 में कन्नड़ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या तब कर दी गई थी जब वो अपने घर का दरवाजा खोल रही थीं। लिंगायत समुदाय से आने वाली गौरी लंकेश ‘गौरी लंकेश पत्रिका’ नाम का साप्ताहिक पत्र निकालती थीं जिसमें हिंदुत्ववादी विचारधारा की खुलकर आलोचना की जाती थी। उनके पत्र में नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की भी जबरदस्त आलोचना होती थी। आलोचना तो इसमें कांग्रेस नेताओं की भी होती थी लेकिन उसका आधार सांप्रदायिक नहीं होता था। लंकेश खुलकर कहती थीं कि “मोदी भक्त और हिंदुत्व ब्रिगेड मुझे जेल में डालना चाहते हैं”। अंततः एक दिन उनकी हत्या हो गई। उनकी हत्या के बाद जावेद अख्तर ने ट्वीट किया, ''दाभोलकर, पंसारे, कलबुर्गी और अब गौरी लंकेश। अगर एक ही तरह के लोग मारे जा रहे हैं तो किस तरह के लोग मारे जा रहे हैं?'
सवाल है कि कौन था वो जिसे लंकेश से दिक्कत होती थी?
मुझे लगता है कि जिन्हें लंकेश के सच से कोई नुक़सान हो रहा था या उनके हित प्रभावित हो रहे थे उन्हींं ने हत्या की होगी। पत्रकारों के मामले में हर बार यही तो होता है। 2020 में उन्नाव के पत्रकार शुभम् मणि त्रिपाठी की हत्या भी ऐसे ही ‘हित’ प्रभावित होने से ही हुई थी। शुभम् ‘कंपू मेल’ नाम के दैनिक हिंदी अखबार में पत्रकार थे। इस अख़बार के लिए बेहतरीन रिपोर्टिंग करते थे। जिस समय उनकी हत्या हुई वो स्थानीय भूमि विवादों से संबंधित रिपोर्टिंग कर रहे थे। जब शुभम् अपनी मोटरसाइकिल पर सवार होकर घर जा रहे थे तभी दो हमलावरों ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। इस ख़बर से आहत होकर यूनेस्को चीफ ऑड्री अज़ोले ने यूएन में अपने वक्तव्य में कहा, “मैं शुभम मणि त्रिपाठी की हत्या की निन्दा करती हूँ।” उन्होंने भारत सरकार से हत्या के लिए जिम्मेदार लोगों पर तत्काल कार्रवाई करने का आग्रह किया था। उस साल 2019 में पूरी दुनिया में लगभग 60 पत्रकारों की हत्या की गई थी।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF), के अनुसार, 2014 में जब से नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं तब से मारे गए 28 पत्रकारों में से आधे से अधिक की मौत कृषि, अवैध खनन, भूमि विवाद, रिफाइनरी और बालू माफ़िया के भ्रष्टाचार उजागर करने के कारण हुई है।
इनमें से पहले शिकार जगेंद्र सिंह थे, जो एक फ्रीलांसर थे। उनकी 2015 में पुलिस छापे के दौरान गंभीर रूप से जलने से मृत्यु हो गई थी। उन्हें कथित तौर पर उत्तर प्रदेश के एक तत्कालीन मंत्री के इशारे पर जलाकर मार दिया गया था। 2016 में जनसंदेश टाइम्स के रिपोर्टर करुण मिश्रा की उत्तर प्रदेश में हत्या कर दी गई और हिंदुस्तान के रिपोर्टर रंजन राजदेव की बिहार में हत्या कर दी गई। इन दोनों को अवैध खनन गतिविधियों पर उनके काम के परिणामस्वरूप मारा गया था। इसके अलावा मध्य प्रदेश में न्यूज़ वर्ल्ड, स्थानीय टीवी चैनल के लिए रेत माफिया को कवर करने वाले रिपोर्टर संदीप शर्मा की मार्च 2018 में एक डंपर-ट्रक द्वारा जानबूझकर कुचलकर हत्या कर दी गई थी।
मैं देख रही हूँ कि पत्रकारों की हत्या के लिए हत्यारे ‘बेरहमी’ को जरूर शामिल करते हैं। एक पत्रकार को मारने के लिए 4-5 लोगों का पहुंचना, पहुंचकर बहुत सी गोलियां बरसाना, यह भयानक हिंसा है। उनके सिर पर कई बार गोलियाँ दागी जाती हैं और कई बार तो ज़िंदा ही जलाकर मार दिया जाता है। जिस तरह उन्हें मारा जाता है उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि मारने वाले यह सोचकर मारने आते हैं कि सत्य किसी भी तरह बाहर न आने पाए।
जिस किस्म का बदला गिलर्मो कैनो और उनके संस्थान से लिया गया लगभग उसी स्तर की हिंसा और ज़िद दुनिया के हर पत्रकार के ख़िलाफ़ दिखाई जाती है। यह तो तय है कि पत्रकारों की वजह से कुछ लोगों के हित इतने अधिक और गहराई से प्रभावित होते हैं कि सिर्फ़ हत्या करने से हत्यारे खुश नहीं होते। हत्यारे चाहते हैं कि एक क्रूर ‘संदेश’ भी भेजा जाना जरूरी है जिससे दूसरा कोई पत्रकार ऐसी हिम्मत न कर सके।
मुकेश चंद्राकर के मामले ने एकबार फिर से बता दिया कि भारत में पत्रकारों की हालत बहुत नाजुक है। उनके जीवन को लगातार खतरा बढ़ता ही जा रहा है। एक तरफ़ लगातार और बार-बार, इंटरनेट शटडाउन और दूसरी तरफ़ NSA और UAPA जैसे क़ानूनों को पत्रकारों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाना यह सिद्ध करता है कि राज्य, पत्रकारों और सूचना के साफ़-सुथरे साधनों को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। ग्लोबल एक्सप्रेशन रिपोर्ट-2024 के अनुसार, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भारत, लागतार 10 सालों से ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के पैमाने पर नीचे आ रहा है। 2014 के बाद से भारत अब तक इस रिपोर्ट में 35 पॉइंट नीचे गिर चुका है। इसके अलावा रिपोर्ट में लिए गए 25 पैमानों में से 24 में गिरावट दर्ज की गई है। अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंक, आर्टिकल 19, द्वारा जारी इस रिपोर्ट में भारत की स्थिति ‘संकटग्रस्त’ मतलब, ‘क्राइसिस’ में बताई गई है। यहाँ तक कि भारत को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में युद्ध प्रभावित फ़िलिस्तीन से भी बदतर स्थिति में बताया गया है।
यह एकमात्र संस्था नहीं है जो भारत की नकारात्मक स्थिति को दिखा रही है, प्रतिष्ठित संस्था RSF, द्वारा हाल में जारी ‘वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक’ में, भारत को 159वें स्थान पर रखा गया है। भारत अभी भी तुर्की, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों से पीछे है, जो 158, 152 और 150वें स्थान पर हैं।
प्रचलित और फेक ख़बरों के विपरीत यह संस्था जॉर्ज सोरोस की संस्था नहीं है और ना ही इसे भारत से कोई परेशानी है। इस संगठन को संयुक्त राष्ट्र, यूनेस्को और यूरोपीय परिषद में परामर्शदात्री का दर्जा प्राप्त है।
अब भारत दुनिया के उन देशों में शामिल हो गया है जहाँ बहुतायत में पत्रकार मारे जा रहे हैं। कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स, के अनुसार 2015 से 2024 के बीच जिन देशों में सबसे ज़्यादा पत्रकार मारे गए हैं उनमें-फिलिस्तीन, मेक्सिको, सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ और फिलीपींस के बाद भारत का स्थान आता है। भारत की हालत दुनिया के किसी भी सामान्य लोकतंत्र से भी बदतर है। यहाँ तक कि सोमालिया, पाकिस्तान और दक्षिणी सूडान जैसे देशों में भी पत्रकारों के लिए हालात उतने ख़राब नहीं दिखाई देते जितने भारत में हैं।
आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि पत्रकारों की ख़राब हालत और प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की इतनी बदहाली, 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद से ही पैदा हुई है। मुकेश चंद्राकर उसी बदहाली का हिस्सा और शिकार हैं। पता नहीं ऐसे कितने और हिस्सों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।
सुरेश चंद्राकर (आरोपी ठेकेदार) के कांग्रेस से संबंध दिखाकर और कांग्रेस पर आरोप लगाकर बीजेपी की छत्तीसगढ़ सरकार बच नहीं सकती। आख़िर क्या कारण है कि राज्य के लोगों को पुलिस, प्रशासन और डबल इंजन सरकार से भय नहीं है? मुकेश सिर्फ़ सुरेश चंद्राकर की पोल नहीं खोल रहा था। उसकी रिपोर्टिंग में वेतन के लिए तरस रहे आदिवासियों के ‘शिक्षा दूत’ और पलायन को मजबूर आदिवासियों के अलावा घटिया सड़क निर्माण पर भी रिपोर्ट शामिल थीं। इसका मतलब ये हुआ कि मुकेश चंद्राकर किसी एक पार्टी से संबंधित ठेकेदार का निशाना भर नहीं था, उसके पीछे तमाम ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो वर्तमान में राज्य सरकार के अंतर्गत काम कर रहे हैं। यह काम अकेले भले किसी एक व्यक्ति ने किया हो लेकिन इसमें शामिल लोगों की संख्या और मिलीभगत की जांच होना जरूरी है।
वाल्टर लेलैंड क्रोनकाइट, प्रसिद्ध अमेरिकी न्यूज़ प्रस्तुतकर्ता थे। एक समय था जब लोग अमेरिका में सबसे ज़्यादा इसी पत्रकार पर भरोसा करते थे। क्रोनकाइट कहा करते थे कि “प्रेस की स्वतंत्रता केवल लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण नहीं है, यह स्वयं लोकतंत्र है”। यह कोई अतिश्योक्ति नहीं बल्कि एक सच्चाई है, यथार्थ है। स्वतंत्र पत्रकारिता लोकतंत्र की प्राथमिक ‘पात्रता’ है। बिना इसके सिर्फ़ किताबी लोकतंत्र बनाये जाते हैं जो अक्सर चुने हुए प्रतिनिधियों के द्वारा धीरे-धीरे मिटा दिए जाते हैं और लोकतंत्र बस नाम के ही रूप में रह जाता है। थॉमस जेफर्सन तो यहाँ तक कहते थे कि "अगर मुझे यह निर्णय लेना हो कि सरकार हो लेकिन अखबार न हों, या अखबार हों लेकिन सरकार न हो, तो मैं बिना हिचकिचाए बाद वाला विकल्प चुनूंगा।"
प्रेस की आज़ादी के मामले में भारत का 180 देशों में 159वाँ स्थान, यह घोषणा है कि भारत में लोकतंत्र नाममात्र का ही बचा है। मुकेश चंद्राकर जैसे लोकतंत्र के सिपाहियों की मौत, इस घोषणा को याद करने और हो सके तो इसके ख़िलाफ़ कार्यवाही करने का एक मौक़ा है।
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