दिल्ली विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी जीत चुकी है। मुद्दा यह नहीं कि अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी ने कैसा शासन चलाया, उनके शासन में भ्रष्टाचार हुआ या नहीं या यह कि कांग्रेस को दिल्ली से प्रतिस्थापित करने के बाद केजरीवाल दिल्ली के लिए क्या ‘अलग’ कर सके। मुद्दा सिर्फ़ यह है कि अब दिल्ली में बीजेपी का शासन होगा। बीजेपी के शासन का मतलब है कि ‘क़ानून के शासन’ को तिलांजलि दे दी जाएगी। क़ानून की बात तो होगी लेकिन क़ानून का शासन नहीं होगा। संविधान की शपथ तो ली जाएगी लेकिन संविधान को उस ‘स्पिरिट’ के साथ नहीं माना जाएगा जैसा संविधान निर्माताओं ने सोचा था। मेरा स्पष्ट मानना है कि बीजेपी का शासन भारत के भविष्य के लिए, भारत के सुकून के लिए और भारत में आम लोगों के विकास के लिहाज़ से पूरी तरह प्रतिगामी शासन है।
जहाँ-जहाँ बीजेपी शासन में होती है वहाँ-वहाँ क़ानून का भय और शासन, धर्म, धन और दल के सापेक्ष होता है। कहने का मतलब यह है कि क़ानून को तोड़े जाने के बाद तोड़ने वाले का धर्म, उसकी आर्थिक हैसियत और उसका राजनैतिक झुकाव सबसे महत्वपूर्ण होता है। जरा सोचिए तो सही, जिस अदालत परिसर में जज को देखकर आम से लेकर खास आदमी की बोलती बंद हो जाती है, जहाँ हर इंसान, सिर झुकाकर क़ानून की बात सुनता है, उसी परिसर में किसी संगठन के गुंडे घुसकर किसी व्यक्ति को मार-मारकर अधमरा कर दें तो इसका क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए? यह घटना मध्य प्रदेश की है। यहाँ की राजधानी भोपाल की एक व्यस्त अदालत में दक्षिण पंथी अराजक तत्वों ने एक मुस्लिम युवक को सिर्फ़ इसलिए मार-मारकर अधमरा कर दिया क्योंकि वह एक हिंदू लड़की के साथ, स्पेशल मैरिज एक्ट, के तहत अपने विवाह को पंजीकृत करवाना चाहता था।
मध्य प्रदेश में बीजेपी लगभग दो दशकों से शासन में है, कोई व्यक्ति आसानी से अंदाज़ा लगा सकता है कि यहाँ विपक्ष के नेताओं और अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता होगा। जिन्हें अंदाज़ा नहीं लग रहा है उन्हें इस भोपाल की घटना के कुछ तथ्यों पर गौर करना चाहिए। जिस मुस्लिम युवक को अदालत परिसर में बुरी तरह पीटा गया है उसके ख़िलाफ़ ही मध्य प्रदेश फ्रीडम ऑफ़ रिलिजन एक्ट-2021 के तहत मामला दर्ज करके उसे हिरासत में ले लिया गया। उसके साथ विवाह पंजीकृत करवाने आई हिंदू महिला के ‘पुलिस के सामने दिए गए बयान’ के आधार पर यह केस दर्ज किया गया है। ‘पुलिस का कहना है’ कि महिला ने कहा है कि उसे जबरदस्ती शादी के लिए और धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया है। थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि यह बात सही है तब भी सवाल यह है कि अगर कोई व्यक्ति अदालत परिसर में ही सुरक्षित नहीं है तो बाहर क्या होगा? क्या क़ानून का शासन किसी व्यक्ति की पिटाई की इजाज़त देता है? क्या अब यह बात सामान्य हो जानी चाहिए कि अब किसी को थानों और अदालतों के अंदर घुसकर पीटा जा सकता है?
जिस संगठन ने इस अदालत विरोधी, क़ानून विरोधी और संविधान विरोधी गतिविधि की ‘जिम्मेदारी’ ली है उसका नाम ‘संस्कृति बचाओ मंच’ है। सवाल यह है कि यदि किसी व्यक्ति पर अपराध का शक मात्र है, अभी साबित कुछ भी नहीं हुआ है तब भी किसी भी समूह के सांस्कृतिक गुंडे उसकी पिटाई कर सकते हैं? क्या उन्हें इस बात का पूरा भरोसा है कि किसी अल्पसंख्यक की ग़लत पिटाई हो भी गई है तब भी उन्हें कोई सजा नहीं मिलेगी? या यह कहा जाए कि उन्हें क़ानून को अपने तरीक़े से समझने, चलाने और दुरुपयोग करने की आज़ादी दे दी गई है? भोपाल के एसीपी अक्षय चौधरी इस घटना की पुष्टि तो करते हैं लेकिन पुलिस इस पर कोई बात नहीं कर रही है कि अदालत के भीतर घुसकर मारने वालों के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई होगी? क्या उन्हें हिरासत में लेकर अदालत की अवमानना का मुक़दमा चलाया जाएगा? या गुंडों के ख़िलाफ़ पीट पीटकर अधमरा कर दिए युवक के लिए ‘हत्या की कोशिश’ का मुक़दमा चलाया जाएगा?
मेरा सवाल है कि क्या कम से कम कुछ ऐसा किया जाएगा जिससे यह पता चल सके कि राज्य में क़ानून का शासन है न कि संस्कृति के झूठे गौरव की अफ़ीम खाकर बैठे चंद दक्षिणपंथी फ्रिंज तत्वों का जंगल राज!
यदि कोई समूह/व्यक्ति चाहे वह किसी भी विचारधारा का क्यों ना हो, इसे तोड़ता है तो यह ज़्यादा गंभीर आपराधिक मुद्दा है बजाय किसी अन्य और अपुष्ट तथाकथित ‘लव जिहाद’ के। क्योंकि इस देश का वर्चस्व और अखंडता क़ानून के शासन की अक्षुण्णता पर ही टिकी है।
आजकल कुछ दलों के लोगों को क़ानून का शासन पसंद नहीं आ रहा है। ऐसे लोगों की बहुतायत बीजेपी शासित राज्यों में आसानी से मिल जाती है। भोपाल के इस क़ानून विरोधी मामले में एक और बात है जो डराने वाली है जिसे लेकर भारत की संवैधानिक अदालतों को संज्ञान लेना चाहिए। हम सभी जानते हैं कि एक वकील, अदालत का महत्वपूर्ण हिस्सा और अधिकारी माना जाता है। यह माना जाता है कि भले ही वह पक्ष किसी का भी ले लेकिन कभी अदालत की गरिमा और न्याय के सिद्धांतों से समझौता नहीं करेगा। लेकिन भोपाल की अदालत में बैठे कुछ वकील न्याय के प्रतिनिधि न होकर एक रेडिकल विचार के उन्नयन के लिए परिसर में जमे हुए हैं। उनकी भाषा में वकील और न्याय नहीं बल्कि पुलिस और जासूस दिखाई पड़ता है, मानो वो किसी गैंग के सदस्य हों। इंडियन एक्सप्रेस में ऐसे ही एक वकील रवि गोयल का बयान छपा है जो इस क़ानून विरोधी घटना के दौरान वहीं मौजूद था।
गोयल कहता है कि “हमारे बहुत से स्रोत शादी के लिए आए जोड़े को ट्रैक कर रहे थे और अंततः हमने उन्हें कैंटीन के पास खोज लिया। हम यह तक जानते थे कि कौन सा वकील उनका हलफ़नामा तैयार कर रहा था”। भोपाल की इस अदालत के न्यायाधीशों को इस भाषा पर गौर करना चाहिए। यह वकील और इसके तथाकथित स्रोत किस हैसियत से लोगों को अदालत में ट्रैक करते हैं? क्या यह आपराधिक नहीं है? क्या कोई वकील अब यह तय करेगा कि लड़की अपने मन से शादी कर रही है या उससे जबरन शादी करवायी जा रही है? वकील न्यायाधीश नहीं होता, उसका काम सिर्फ़ अपना पक्ष रखना होता है, वो भी क़ानूनी तरीके से न कि गुंडागर्दी से। यह सारा मामला उस सोच से जुड़ा है जिसे भाजपा और उसके ‘सांस्कृतिक’ संगठन दशकों से प्रचारित कर रहे हैं, जबकि ‘लव जिहाद’ जैसी किसी भी बात को सैद्धांतिक रूप से वर्तमान मोदी सरकार ख़ुद मानने से इनकार कर चुकी है। इसके बावजूद हर दूसरे दिन ‘लव जिहाद’ का शिगूफा देश के किसी ना किसी कोने में चलाया जाता है।
बेशर्मी से यह वकील क़ानून का मजाक उड़ाता है और आसानी से बच जाता है, यह कहीं से ‘क़ानून का शासन’ नहीं है।
यह जानना कठिन नहीं है कि इस तथाकथित ‘लीगल सेल’ का काम क्या है और यह कैसे काम करती है। लेकिन अब यह जानना आसान नहीं है कि पूरी न्याय व्यवस्था में न जाने कितने जस्टिस यादव आकर बैठ चुके हैं जो संविधान को सांप्रदायिक टूल के रूप में इस्तेमाल करने में संकोच महसूस नहीं कर रहे हैं। ऐसी ज्यादातर घटनाएँ बीजेपी शासित राज्यों में हो रही हैं या फिर उन राज्यों में जहाँ बीजेपी ने काफ़ी समय तक शासन करके अपनी सांप्रदायिक जड़ों को संप्रभु भारत की संस्थाओं में पहुँचा दिया है।
किसी व्यक्ति का अपराधी होना या ना होना उसका धर्म तय नहीं कर सकता। धर्म परिवर्तन हो रहे हैं लेकिन वो हर धर्मों में हैं। कम ज़्यादा का फ़र्क़ हो सकता है। इसके बावजूद यदि ऐसी कोई घटना घटती है तो क़ानून को सामने आना चाहिए, पुलिस को भूमिका निभानी चाहिए और हर स्तर पर, मौजूद न्यायाधीशों के सामने लाना चाहिए। वहीं तय होगा कि व्यक्ति अपराधी है या नहीं। यदि देश के सामान्य लोग, राजनैतिक दल, अतिवादी संगठन और वकील यह तय करने लगें कि अपराधी कौन है, किसे कब पीटा जाए, किसकी ‘सेवा’ की जाए तो बहुत दिनों तक लोग शांतिपूर्ण तरीक़े से इस भारत देश का लाभ नहीं उठा सकेंगे। बीजेपी का पूरा ढाँचा एक धर्म के विरोध पर टिका है और इसी का फ़ायदा समाज के फ्रिंज तत्व उठाते हैं और संस्थाओं को चोट पहुँचाते हैं। कुछ साल पहले दंगों की आग में झुलस चुकी दिल्ली में अब क्या होगा यह शायद सभी को अब पहले से पता है। नहीं पता है तो, भाजपा दिल्लीवालों को मुबारक़ हो। आपका निर्णय आपका भविष्य तय करेगा।
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