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कुंभ के आयोजन के लिए काश नेहरू से सीखती सरकार!

शेक्सपियर इन लव (1998) जैसी मशहूर और ऑस्कर विजेता फ़िल्म का स्क्रीनप्ले लिखने वाले विख्यात ब्रिटिश नाटककार सर टॉम स्टॉपार्ड का मानना है कि ‘अगर आपका मक़सद दुनिया बदलना है, तो पत्रकारिता एक ऐसा हथियार है जो तुरंत असर दिखा सकता है।’ 

लेकिन इसके विपरीत यह बात भी उतनी ही सच है कि अगर दुनिया को बर्बाद करना है और ‘नागरिकों’ को ‘गुलामों’ में तब्दील करना है, राष्ट्र को ‘व्यक्ति पूजा’ का भौगोलिक ढांचा बनाकर छोड़ना है, विविधता को एकरूपता के भद्दे स्वरूप में बदलना है और बड़ी संख्या में वैचारिक ज़ॉम्बी बनाने हैं तो मीडिया सचमुच एक ऐसा सरकारी और सत्ताउन्मुख हथियार है जो तुरंत अपना बुरा असर दिखा सकता है।

भारत इन दिनों ऐसे ही मीडिया के बीच कसमसा रहा है। बुधवार यानी 29 जनवरी, आधी रात के बाद जो भगदड़ की दुर्घटना महाकुंभ स्थल, इलाहाबाद (प्रयागराज) में घटी वह बेहद डराने वाली है। यह डर सिर्फ़ घटना के घट जाने से और उसमें हुई श्रद्धालुओं की मौतों से ही नहीं है बल्कि इस डर का ज़्यादा संबंध सता और प्रशासन के उस रवैये से जुड़ा हुआ है जो दुर्घटना के बाद सामने आई है। 

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यह रवैया प्रशासन की नाकामी को हरसंभव तरीक़े से छिपाने से संबंधित है। मौनी अमावस्या (हिन्दू धर्म के लिए गंगा नहाने का एक पवित्र तिथि) को लगभग एक किमी लंबे त्रिवेणी संगम में श्रद्धालुओं की भीड़ का तेजी से पहुंचना शुरू हो चुका था, प्रशासन इस भीड़ को नियंत्रित करने में नाकाम रहा और उपलब्ध व्यवस्था से कहीं ज़्यादा भीड़ के बढ़ते रहने और स्नान की जल्दी के बीच भगदड़ मच गई। लगभग 30 लोगों की मौत की आधिकारिक पुष्टि हो चुकी है और घायलों की संख्या का आंकड़ा भी कहीं 90 तो कहीं 60 बताया जा रहा है। यह पक्के रूप से नहीं कहा जा सकता है कि उपलब्ध करवाए गए आँकड़े सही हैं या नहीं, क्योंकि लोगों को न ही सरकार पर भरोसा है और न ही प्रशासन पर भरोसा रह गया है। मेनस्ट्रीम मीडिया पर तो ज़्यादातर लोग सिर्फ़ नाराज़ हैं और यह पूरी तरह समझ रहे हैं कि यह बिकाऊ हो चुका है। लोगों का सरकार पर से भरोसा उठने के कई कारण हैं। जिसमें से पहला तो यही कि भगदड़ मच जाने के बाद भी, लोगों के हताहत हो जाने के बाद भी, उनके परिजनों के रोने-तड़पने और उनको खोजने की बेचैनी और चिंता के बावजूद, न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी रिपोर्ट के अनुसार, सरकार ने दुर्घटना के 15 घंटे गुज़र जाने के बाद ही आंकड़े जारी किए। 

लोग अपने परिजनों को खोजते-बिलखते शायद कुछ और पता कर पाते पर मेला प्रशासन इतने देर तक सामान्य ‘डुबकियों’ की संख्या से संबंधित आँकड़े ही जारी करता रहा, यह व्यवहार घोर लापरवाही और जानबूझकर पब्लिक में अविश्वास पैदा करने वाला है, दूसरा कारण यह है कि जिस संस्था को लोकतंत्र ने यह जिम्मेदारी दी है कि वो घटनाओं की यथास्थिति को जनता के सामने पेश करे वो सत्ता के क़दमों में लेटकर उसकी जी-हुजूरी करने में लगा है। यह सच है कि कोई भी सरकार और प्रशासन नहीं चाहेगा कि ऐसी दुर्घटना घटे और उसके नागरिक मारे जायें लेकिन यदि ऐसी अनहोनी होती है तो ज़िम्मेदारी सरकार को ही लेनी होगी, हताहत लोगों को हर संभव सहायता पहुँचानी ही होगी और मीडिया को लगातार सरकार से सवाल पूछने ही होंगे जिससे सरकार की नाकामियों को जनता के सामने लाया जा सके। यह लोकतंत्र है, जिसमें किसी डर या विचारधारा की राजशाही परंपरा को नहीं चलने दिया जा सकता। नेताओं को उनकी नाकामियों का खामियाजा इस्तीफ़ा देकर चुकाना ही चाहिए। यह काम मीडिया का है कि वो राहत कार्यों की समीक्षा के बीच में ही सरकार में बैठे लोगों की कड़ी आलोचना का काम जारी रखे।

अगर भारत का मीडिया सत्तासीन लोगों की आलोचना पर काम कर रहा होता, समय पर ज़रूरी सवालों से दबाव बना रहा होता तो सर टॉम स्टॉपार्ड का यह कथन कि ‘पत्रकारिता एक ऐसा हथियार है जो तुरंत असर दिखा सकता है’ सचमुच चरितार्थ हो जाता। लेकिन अफ़सोस यह है कि जहाँ भारत में विज्ञान, कृषि और अर्थव्यवस्था ने निरंतर ख़ुद को आगे बढ़ाया है वहीं भारत का मीडिया अपने निम्नतम स्तर के लिए लगातार प्रयासरत है।

प्रेस फ्रीडम इंडेक्स, 2006 जहाँ भारत की स्थिति 105वें स्थान पर थी वही आज गिरकर 159वें स्थान पर हो गई है। यह गिरावट सिर्फ़ मीडिया का नुक़सान नहीं है बल्कि इसमें सबसे ज्यादा नुक़सान भारत के लोगों और यहाँ के लोकतंत्र का है।

भारत का मीडिया ढलान के अपने निम्नतम छोर पर है। इसलिए वो सरकार से सवाल पूछने से पहले यह पूछता है कि क्या पूछा जाए? वरना जो सवाल उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी विभूति नारायण राय ने दुर्घटना के बाद उठाये उन्हें मीडिया पहले भी उठा सकता था। महाकुंभ 2025, अपनी लग्ज़री सुविधाओं और वीआईपी लोगों को मिल रही विशेष सुविधाओं के लिए ज़्यादा चर्चा में है, सामान्य जन इसे लेकर तमाम तरह के सवाल भी उठाते रहे हैं लेकिन चूँकि यह सवाल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और हिंदी पट्टी के बड़े अख़बार नहीं उठाते रहे इसलिए इन सवालों को सरकार ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। डीजीपी राय का तो मानना है कि “मेला स्थल पर वीआईपी लोगों की लगातार आवाजाही इस त्रासदी के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार है”। 

विमर्श से और

इस कुंभ को ‘विशेष’ बनाने के चक्कर में परंपराओं पर ध्यान नहीं दिया गया। परंपरा के उलट विशिष्ट लोगों को ‘आमंत्रण’ दिए गए, लोगों को स्नान के लिए आने के लिए प्रोत्साहित किया गया, सरकार ने खूब विज्ञापन किया, मानो ज़्यादा भीड़ द्वारा स्नान सरकार की ही बड़ी उपलब्धि हो, जबकि लोगों का कुंभ में आना सदियों से किसी सरकार या राजा के आदेश, निवेदन या निमंत्रण का मोहताज नहीं रहा। 

इसे नेहरू और एक विदेशी मेहमान के बीच हुए 70 साल पुराने संवाद के ज़रिए समझा जा सकता है। प्रधानमंत्री नेहरू के कार्यकाल में, ऐसे ही एक महाकुंभ के दौरान भारत आए एक विदेशी मेहमान ने यहाँ आने वाली भीड़ और उत्साह को लेकर सवाल पूछा कि “आपने इतने भव्य मेले का आयोजन कैसे किया? निश्चित रूप से व्यापक प्रचार-प्रसार किया गया होगा।”

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तब नेहरू जी का जो जवाब था उसे वर्तमान योगी सरकार, मोदी सरकार को और उन सभी को जो सरकार को धर्म और धर्म को सरकार से जोड़कर देखने का फ़ेविकोल खा चुके हैं, सुनना चाहिए। नेहरू ने कहा था कि- 

इसके विपरीत, हम किसी भी प्रचार में शामिल नहीं हुए। इसकी कुंजी हमारे ज्योतिषियों में निहित है, जो विशिष्ट दिनों और स्थानों के लिए शुभ समय निर्धारित और घोषित करते हैं। फलस्वरूप उन अवसरों पर स्वाभाविक रूप से बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं। सरकार की भूमिका केवल यह सुनिश्चित करना है कि कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना न घटे।


जवाहर लाल नेहरू

पंडित नेहरू का यह कहना कि सरकार और प्रशासन का काम सिर्फ़ इतना है कि कोई दुर्घटना ना घटे, यही अच्छी सरकार जिसे हम उत्तरदायी सरकार कहते हैं उसका निचोड़ है। असल में एक अच्छी सरकार का यही काम है कि उसकी जनता उसकी ही नीतियों से मर न जाए, उसी की अव्यवस्था की भेंट न चढ़ जाए। मुख्यमंत्री का काम यह नहीं है कि अपनी पूरी कैबिनेट को लेकर स्नान करने चला जाए। यह महाकुंभ किसी नेता या विचार से नहीं जुड़ा है, बल्कि भारत में सदियों से चली आ रही प्राचीन परंपरा से जुड़ा है। सुरक्षा हालात देखने के लिए बार-बार मेला स्थल में पहुंचना, बार-बार आम लोगों को परेशान करने जैसा ही है। डीजीपी राय के अनुसार, एक तरफ़ नारायण दत्त तिवारी का मुख्यमंत्री काल देखिए। जब 1979 में इलाहाबाद में कुंभ आयोजित हुआ तब तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने आदेश दिया था कि मेले के दौरान किसी भी मंत्री को विशेष प्रोटोकॉल या सुरक्षा की अनुमति नहीं दी जाएगी। लेकिन यहाँ तो कहानी ही अलग है। 

इन सब मुद्दों को यदि मीडिया ने सही समय पर उठाया होता, अख़बारों ने ‘पॉजिटिव ख़बरों’ की क़सम नहीं खाई होती, जो हो रहा था उसे रिपोर्ट किया होता तो शायद सरकार को भी ज़रूरी सूचनाएँ मिल पातीं, लोगों का ग़ुस्सा मुख्यमंत्री कार्यालय तक पहुँच पाता और दुर्घटना से पहले ही ज़रूरी क़दम उठा लिए जाते, जिन्हें अब उठाया जा रहा है। उदाहरण के लिए पहले पीएम मोदी 5 फ़रवरी के दिन गंगा नहाने के लिए आने वाले थे, जिसे इस हादसे के बाद टाल दिया गया। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी कैबिनेट को भी नहीं जाने को कहा है। इसका मतलब ही है कि राज्य से लेकर केंद्र सरकार तक मान रही है कि वीआईपी आवाजाही से लोगों को परेशानी हुई है और हो सकता है कि इस हादसे का एक कारण वीआईपी ही हों। यहाँ तक कि दुर्घटना से कुछ दिन पहले ही शंकराचार्य परिषद और शंकराचार्य ट्रस्ट के अध्यक्ष स्वामी आनंद स्वरूप महाराज ने कुंभ मेले में वीआईपी संस्कृति को लेकर चिंता जताई थी। उन्होंने कहा था कि लगातार वीआईपी लोगों के आने से आम श्रद्धालुओं को घंटों इंतज़ार करना पड़ रहा है। आहत होकर उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि "हमने ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं देखी है"।

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मीडिया क्या कर रहा है?

एक दो यूट्यूब चैनल को छोड़ दें तो कोई भी नहीं जो मेला स्थल में हुई दुर्घटना को रिपोर्ट कर रहा हो। मीडिया के ‘बड़े नाम’ सरकार की झूठी इज़्ज़त को बचाने में लगे हुए हैं, सही बातें छिपाई जा रही हैं क्योंकि मीडिया वाले इन बातों को सामने नहीं ला रहे हैं। इससे अफवाहों को भी बल मिल रहा है। ये अफ़वाहें ना ही सरकार के लिए अच्छी हैं और न ही श्रद्धालुओं के हित में हैं। सही सूचनाएँ हादसों के बुरे परिणामों को कम करने में मदद करती हैं। मीडिया को पहले लोगों की मदद करनी चाहिए न कि सरकार की। सरकार के पास अपनी मदद के लिए पर्याप्त शक्ति और संसाधन उपलब्ध हैं। चूक तो हुई है, इसे कोई नकार नहीं सकता। इसमें ज़िम्मेदार कौन है, यह तय किया जाना बाक़ी है। 

योगी आदित्यनाथ सरकार ने भी शुरुआती अनिच्छा के बाद, चूक स्वीकार की और न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं। न्यायिक आयोग जिन सवालों को लेकर मेला अधिकारियों के पास जा रहा है उसका उन्हें संतोषजनक जवाब नहीं मिल रहा है। उदाहरण देखिए- आयोग ने पूछा है कि- जब आपको पता था कि इतनी ज़्यादा संख्या में भीड़ आने वाली है तो सुरक्षा के इंतज़ाम क्या किए थे, यह घटना संगम क्षेत्र के अलावा और कहां-कहां हुई, मीडिया में जो वीडियो वायरल हो रहे हैं, उनकी क्या हकीकत है? क्या झूसी में भी कोई घटना हुई है? और यह कि सभी घटनाओं के सीसीटीवी फुटेज कहाँ हैं, उन्हें दिखाइए। 

तमाम ऐसे वीडियो हैं जिनमें अधिकारी झूसी भगदड़ की घटना को नकार रहे हैं और जांच की बात कर रहे हैं जबकि लोगों के पास इस भगदड़ से संबंधित वीडियोज हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि मेला के सर्वोच अधिकारियों को इसकी सूचना ही न हो?

जो भी हो, योगी सरकार को इसका सच सामने लाना ही चाहिए और मीडिया को चाहिए कि किसी भी हालत में सरकार और प्रशासन सच को दबाने न पाये। अफवाहों की जगह लोकतंत्र में नहीं है। अफ़वाहें ‘तानाशाहों’ का चारा हैं जिन्हें खाकर वो अपने देश के नागरिकों को धोखा देते हैं।

गोलवरकर और अन्य द्वारा विश्व हिंदू परिषद की स्थापना 1964 में हरिद्वार कुंभ मेले के दौरान की गई थी। आज़ादी के बाद, यह कुंभ मेले को हिंदुत्व के मंच के रूप में स्थापित करने का प्रयास था। अब जबकि इस बार हर तरफ़ से यह बात सुनने को मिलने लगी है कि मुसलमानों को कुंभ में प्रवेश न करने दिया जाए, उन्हें दुकानें लगाने और अन्य किसी काम में लगने से रोका जाए तब मीडिया को इसकी ठीक से रिपोर्टिंग करनी चाहिए थी। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं किया गया। अखाड़ा परिषद ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ फ़ैसला लिया। यह पुख्ता करने की कोशिश की गई कि सामाजिक संस्कृति के किसी भी लक्षण को नेस्तनाबूद कर दिया जाए। लेकिन जब बुधवार को यह भगदड़ का हादसा हुआ तो मुसलमानों ने बड़ी संख्या में आकर लोगों को राहत पहुंचाई, प्रशासन के साथ सहयोग किया, लोगों को कंबल और छाँव उपलब्ध कारवाई जिससे परेशान श्रद्धालुओं को तुरंत राहत मिल सके।

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कुंभ सदियों पुरानी भारतीय परंपरा का हिस्सा है। इसमें हिंदुओं के अलावा शक, हूण, बौद्ध, जैन और इस्लामिक राजाओं और नागरिकों ने भी भाग लिया है। इसे किसी पार्टी या विचार के भरोसे नहीं डाला जा सकता। नागरिकों के साथ-साथ यह काम मीडिया का भी है कि समाज में धर्मों के बीच निरन्तर गहरी की जा रही दरारों और खाइयों को रोका जाए। मीडिया सरकार से इस तरह गलबहियां खेलेगा तो लोकतंत्र क़ायम नहीं रह सकेगा। सरकार के सामने खड़ा होना पड़ेगा। यही काम है मीडिया का, तभी उसका इस्तेमाल बेहतरीन लोकतांत्रिक हथियार के रूप में हो पाएगा जो निश्चित ही देश को सकारात्मक रूप से बदल देगा।

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वंदिता मिश्रा
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