महात्मा गांधी को 5 फरवरी, 1924 को अपेंडिसाइटिस की वजह से जेल से रिहा कर दिया गया। जब गांधी जेल से बाहर आए तब ख़िलाफ़त और असहयोग वाली हिंदू-मुस्लिम एकता अपने अवसान की ओर थी।
तुर्की में ख़लीफ़ा को ही मानने से इनकार कर दिया गया था इसलिए भारत पर इसका असर पड़ा। भारत में ख़िलाफ़त आंदोलन के रूप में ख़लीफ़ा को मानने का आधार समाप्त हो गया। गांधी के जेल जाने की वजह से धार्मिक एकता महत्वपूर्ण पहलू नहीं रह गया। हिंदू महासभा के नेतृत्व में सांप्रदायिकता को खूब खाद पानी दिया गया और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के बनने का आधार तय हो चुका था। अगले ही साल 1925 में आरएसएस का गठन भी हो गया।
गांधी की अनुपस्थिति में कांग्रेस भी ख़ुद को एकता में नहीं बाँध सकी। सी.आर. दास और मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस के अंदर ही ‘कॉंग्रेस ख़िलाफ़त स्वराज पार्टी’ का गठन हो गया और यही आगे चलकर स्वराज पार्टी के नाम से जानी जाने लगी। यह पार्टी और इसके सदस्य विधायिका के अंदर से आंदोलन चलाने के समर्थक थे (परिवर्तनशीलता) जबकि गांधी, पटेल, राजाजी समेत तमाम अन्य नेता इसके ख़िलाफ़ (अपरिवर्तनवादी) थे। इंग्लिश्तानी इस परिस्थिति से बेहद खुश थे और इसका फ़ायदा उठाकर दमन पर उतारू थे।
गांधी जब जेल से बाहर आए तो देश को आज़ाद कराने की चुनौती जस की तस खड़ी थी लेकिन एक नई चुनौती भी खड़ी थी कि राष्ट्रीय आंदोलन चलाने वाली कांग्रेस को कैसे बचाया जाए? कांग्रेस में एकता स्थापित करने की चुनौती, एक नई चुनौती थी जो सामने आ गई थी। दो सबसे बड़ी चुनौतियाँ जो उनके सामने थीं उनमें से एक अंग्रेज़ी दमन से बचते हुए कांग्रेस को एकजुट रखना और हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता से भारत को बचाना क्योंकि यह सांप्रदायिकता ही थी जिसे अंग्रेजों ने भारत की आज़ादी और ग़ुलामी के बीच पत्थर बनाकर स्थापित कर दिया था।
जेल से छोड़ते समय अंग्रेज अधिकारियों ने गांधी को सलाह दी कि जिन स्वराजियों ने असहयोग आंदोलन के सिद्धांतों को छोड़ दिया है बाहर जाकर महात्मा गांधी उनकी निंदा करें। लेकिन अंग्रेजों का यह सपना कभी पूरा नहीं हुआ। महात्मा गांधी की यह ख़ासियत थी कि जिन लोगों से उनके विचार नहीं मिलते थे, वो उनके साथ भी तालमेल बिठाकर काम कर लेते थे। इंग्लिश्तानियों को चौंकाते हुए 6 नवंबर 1924 को गांधी जी ने सी.आर. दास और मोतीलाल नेहरू के साथ एक संयुक्त बयान में कहा कि स्वराज पार्टी कांग्रेस का अभिन्न हिस्सा है और यह विधानमंडल में अपना काम करती रहेगी।
आइए सोचें कि महात्मा गांधी के लिए क्या महत्वपूर्ण था? उनके लिए क्या जरूरी था? हिंदू-मुस्लिम एकता! जिसका ज़िक्र उन्होंने बेलगाम के अपने अध्यक्षीय भाषण में किया था, गांधी के लिए खादी जरूरी थी, उनके लिए अस्पृश्यता को ख़त्म करना जरूरी था।
उन्हें लगता था कि अगर अहिंसा के साथ, यह सब कुछ भी प्राप्त कर लिया जाए तो आज़ादी बहुत दूर नहीं होगी।
गाँधी, जिन्होंने दिसंबर 1924 से अप्रैल 1925 तक कांग्रेस की अध्यक्षता की, उन्होंने सामाजिक परिवर्तन को अपना आधार ही बना लिया। उनकी अध्यक्षता में कांग्रेस की सदस्यता शुल्क में 90% कमी कर दी गई। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के साथ-साथ गौ-हत्या के निषेध पर बात करना जारी रखा।
चाहे कांग्रेस के अंदर की एकता हो या अंतरजातीय और अंतरधार्मिक एकता, गांधी जानते थे कि देश को आज़ादी किसी पोंगा पंथ या जातीय घमंड से नहीं मिल सकती। इसके लिए बिना शर्त वाली राष्ट्रीय एकता चाहिए थी। शायद यही गांधी का राष्ट्रवाद भी था। अपने इसी राष्ट्रवाद की क़ीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी जब एक कायर धार्मिक पशु ने वैश्विक अहिंसा के प्रतीक महात्मा गांधी को गोली मार दी थी।
गांधी के आदर्श
महात्मा गांधी ने 39वें राष्ट्रीय अधिवेशन की अध्यक्षता की थी। 26 दिसंबर 2024 को गांधी के अध्यक्ष बनने की घटना के 100 साल पूरे हो गए हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता वाली कांग्रेस ने बेलगावी (तत्कालीन बेलगाम) में इस शताब्दी को मनाने का निर्णय लिया। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की आकस्मिक मृत्यु की वजह से इस अधिवेशन को वैसे आगे नहीं बढ़ाया जा सका जैसा सोचा गया था। लेकिन अधिवेशन के स्वरूप, रैली के शीर्षक और कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के वक्तव्य ने इस अधिवेशन के उद्देश्य और आवश्यकता को साफ़ कर दिया है। अधिवेशन को “जय बापू जय भीम जय संविधान” नाम दिया गया है। यह अलग नहीं है बिल्कुल उसी दिशा में है जैसा महात्मा गांधी सोचते और करते थे। ’जय बापू’ इसलिए क्योंकि उनके आदर्शों- अहिंसा, प्रेम और सांप्रदायिक एकता को बिना भय और संकोच के लागू किया जा सके। ’जय भीम’ इसलिए क्योंकि जातीय शोषण को रोका जा सके और जरूरतमंदों को उनकी जरूरतों के हिसाब से भारतीय संसद, शैक्षिण संस्थाओं, नौकरियों आदि में भागीदारी मिल सके। अंत में ‘जय संविधान’ इसलिए क्योंकि जो लोग गांधी और आंबेडकर के आदर्शों को रोकना चाहते हैं जो लोग इनसे सहमत नहीं हैं और लगातार सरकारी स्तर से संविधान को समाप्त करने की सक्रिय कोशिश में लगे हुए हैं, उन्हें यह संदेश मिले कि यह इतना भी आसान होने वाला नहीं है, संविधान इस देश की विविधता का जीवन आधार है उसे कहीं से भी ख़त्म नहीं किया जा सकता।
एक दशक से कुछ इस तरह एक मुहिम चलायी जा रही है कि हालात यहाँ तक आ गए कि पिछले आम चुनाव से पहले एक नेता ने यह कह दिया कि उनके दल को 400 से अधिक सीटें मिल जायें तो संविधान बदल दिया जाएगा। ऐसी बातें बहुत डरावनी होती हैं, इसीलिए भारत की जनता ने उन्हें 400 तक नहीं पहुँचने दिया, उनके ऊपर लगाम लगा दी, ऐसा करने से रोक दिया और ज़रूरी मात्रा में सबक भी सिखा दिया। क्योंकि संविधान को ख़त्म करने का मतलब ही है कि ‘समानता के अधिकार’ को ख़त्म कर दिया जाएगा, ‘अस्पृश्यता’ को पुनः स्थापित किया जाएगा, और धार्मिक स्वतंत्रता को भी समाप्त कर दिया जाएगा। कुछ खास जातियों और धर्म विशेष के लोगों को ही अधिकार दिए जाएँगे और यह देश सामंती प्रथा की ओर मोड़ दिया जाएगा। लेकिन जिस तरह भारत की जनता ने उन्हें लोकसभा चुनावों में अपना जवाब दिया, जो एक जिद्द के साथ संविधान बदलना चाहते थे, यह कमाल की बात है।
2024 का बेलगावी सम्मेलन, महात्मा गाँधी और आंबेडकर के विचारों की मार्मिकता को समझ कर उन्हें साथ लाने और एकता स्थापित करने के लिए है जिससे संविधान की ‘जय’ सदा बनी रहे।
सवाल यह है कि महात्मा गांधी की वह कौन सी विरासत ख़तरे में है जिसका ज़िक्र श्रीमती गांधी ने किया है। असल में यह सिर्फ़ अराजक तत्वों का साथ देने, संसदीय व्यवस्था के पतन और संस्थाओं के लगातार नीचे जाने की प्रवृत्ति के बारे में नहीं है।
महात्मा गांधी की विरासत का सबसे बड़ा पहलू है अंतरधार्मिक एकता और जातीय शोषण से मुक्ति। यह उनकी ऐसी विरासत है जिससे भारत की एकता का ढाँचा तैयार हुआ और 78 सालों से आजतक लगातार खड़ा है। लेकिन बीते एक दशक के दौरान इसको नुक़सान पहुँचाने की कोशिशें देश के सर्वोच्च राजनैतिक पद से हुई है और यह बहुत ख़तरनाक है। आरएसएस सहित उसके तमाम सहयोगी उग्र दक्षिणपंथी संगठन देश की एकता को नुक़सान पहुँचा रहे हैं। इन्हीं उग्र दक्षिणपंथी संगठनों की आलोचना करते हुए सोनिया गांधी ने कहा, “इन संगठनों ने कभी भी स्वतंत्रता के लिए लड़ाई नहीं लड़ी और महात्मा गांधी का कड़ा विरोध किया। उन्होंने एक जहरीला माहौल बनाया जिसके कारण उनकी हत्या कर दी गई। वे उनके हत्यारों का महिमामंडन करते हैं।”
चाहे बीजेपी की पूर्व सांसद प्रज्ञा ठाकुर हों जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर महात्मा गांधी के हत्यारे को महिमा मंडित किया या फिर गृहमंत्री हों, जिन्होंने संसद में आंबेडकर के बारे में अशोभनीय बातें कीं।
कोई यह कह सकता है कि उनसे गलती से हो गया या उनके बयानों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है। लेकिन ऐसे दौर में जहाँ एक एक बात कैमरे में क़ैद हो जाती है वहाँ नेतागिरी के पुराने पैंतरे आजमाने से क्या होगा? यदि आंबेडकर को लेकर सच में सम्मान है तो, गृहमंत्री माफ़ी माँग लेते, यदि महात्मा गांधी का सच में सम्मान है तो संघ हर साल महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर कार्यक्रम करके नाथूराम गोडसे की आलोचना क्यों नहीं करता?
क्यों नहीं कहते हैं कि गोडसे कभी संघ का सदस्य रहा इसका उन्हें खेद है? वह ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि यह सब उन्हें राजनैतिक रूप से सूट नहीं करता है। असल में दक्षिणपंथी संगठनों को तो उनकी इस विचारधारा पर अभिमान है। अभी पटना की ही घटना देख लीजिए। यहाँ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के जन्मदिवस पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था जिसमें प्रसिद्ध लोक गायिका देवी को बुलाया गया था। जैसे ही उन्होंने गांधी जी के प्रिय भजन ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ गाना शुरू किया, पूर्व मंत्री ने उनके हाथ से माइक छीन लिया और श्रोता दर्शक, जॉम्बी में बदल गई, उत्तेजित हो गई, असभ्यता और हिंसा पर उतारू हो गई। यहाँ तक कि गायिका को माफ़ी माँगनी पड़ गई। क्या यह शर्मनाक नहीं है कि गांधी के भजन पर, अल्लाह का नाम लेने भर से गायिका को बेइज्जत कर दिया गया। इससे भी ज़्यादा बड़ी बात यह कि कार्यक्रम में बीजेपी नेता और बिहार के उप-मुख्यमंत्री विजय सिन्हा भी मौजूद थे।
ऐसी ही एक घटना हज़रतगंज, लखनऊ में घटी जहाँ के कैथेड्रल चर्च के बाहर क्रिसमस के दिन इस्कॉन मंदिर की प्रभुपाद ‘यूथ आर्मी’ ने भजन गाये और गीता बाँटी! क्या इस्कॉन मंदिर के बाहर कृष्ण जन्माष्टमी के दिन चर्च के लोग मंदिर के बाहर ऐसा ही कर सकते हैं? अगर कर सकते हैं तो वह भी ग़लत है और अगर नहीं कर सकते हैं तो यह आर्मी किसी अन्य धार्मिक स्थल के बाहर उनके एकमात्र त्योहार के दिन क्यों पहुँची? क्या कोई खास संदेश था? अगर यह संदेश उनको यह बताना था कि यह हिंदू राष्ट्र है तो यह जानना जरूरी है कि भारत का एक संविधान भी है जो सभी धर्मों को बराबरी का हक देता है। जरा सोचिए, लोगों के अंदर ग़ैर-आनुपातिक रूप से इतनी घृणा और नफ़रत भर दी गई है कि वो अब समाज में उठने बैठने लायक़ नहीं रहे। पागल कुत्तों की तरह समाज में घूम रहे इन लोगों को जो लोग भी ब्रेकफास्ट लंच और डिनर करवा रहे हैं वो देश की अखंडता के लिए ख़तरा हैं।
भगवान के नाम पर ‘आर्मी’ बनाने वाले ये लोग कौन हैं? ये कौन लोग हैं जो भगवान और अल्लाह का एक साथ नाम आने से ही विचलित हो जा रहे हैं? ये कौन हैं जिन्हें न क़ानून का भय है न न्यायपालिका का?
गांधी की विरासत को निश्चित तौर पर भारी ख़तरा है। जिस वजह से आंबेडकर को संविधान सभा में लाया गया जिससे सामाजिक न्याय में रुकावट ना आ सके, उनके नाम से भी आपत्ति है और लगातार आरक्षण को ख़त्म करने और संविधान बदलने की बात हो रही है। यह सब इस बात का संकेत है कि नागरिकों को पहले से कहीं अधिक जागरूक होना होगा। उन नागरिकों को ज़्यादा जागरूक रहने की ज़रूरत है जिन्होंने हजारों सालों तक मनुस्मृति की आड़ में अन्याय झेला और पीड़ा सही है। अन्यथा देश को इस बार कहीं ज़्यादा बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। इसी संदेश और संकेत के साथ 2024 के बेलगावी सम्मेलन का आयोजन किया गया और इसको “जय बापू, जय भीम, जय संविधान” नाम दिया गया।
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