किसी लोकतंत्र की स्थापना, संचालन और गुणवत्ता उसमें किसी समय विशेष पर उपस्थित/जीवित जागरूक नागरिकों की संख्या पर निर्भर करती है, वोट देने वाले नागरिकों की संख्या पर नहीं। अपनी बौद्धिकता की वजह से हर रोज मरने वाला जागरूक नागरिक उस प्लेटफॉर्म की नींव में लगातार कॉन्क्रीट डालता रहता है जिसके लिए आम नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग करता है। जागरूक नागरिकों की संख्या जिस अनुपात में बढ़ती है उसी अनुपात में राजनैतिक नेतृत्व की जवाबदेही भी बढ़ती है।
जवाबदेही लोकतंत्र का मूल लक्षण है। यह जवाबदेही लोकतंत्र की सभी संस्थाओं विशेषकर न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका से अपेक्षित है। मीडिया को अब इससे बाहर रखना जरूरी हो गया है क्योंकि चमकते और महंगे स्टूडियोज़ के लिए आवश्यक धनराशि उनकी जवाबदेही को प्राकृतिक रूप से कुतरती जा रही है।
सत्ता से पूछा गया हर वो सवाल, जो या तो पूछने वाले को खामोश कर दे या सरकार को, लोकतंत्र की इमारत की खूबसूरती बढ़ाता है। कोई ऐसा सवाल जिसका उत्तर देना और न देना दोनों ही स्थिति में सरकार को परेशानी में डालता हो इस इमारत की मजबूती बढ़ाता है। लेकिन इस मजबूती और खूबसूरती की कीमत यह है कि पूछने वाला हर दिन मरता है, मारा जाता है और फिर अकेला छोड़ दिया जाता है। लेकिन कुछ सवाल ऐसे उठाए जाते हैं या यह कहें कि उन्हे ढोल मंजीरे के साथ उठाने दिया जाता है जिनसे सरकारों के कार्यकाल को ‘एक्स्टेन्शन’ मिलता रहे।
एक ‘बड़े’ वकील द्वारा उठाया गया सवाल यह है कि ‘अडाणी समूह-हिंडनबर्ग मामले’ में हिंडनबर्ग रिसर्च ने मध्यम वर्ग की कीमत पर पैसा कमाया है, इसकी जांच क्यों नहीं होनी चाहिए?
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मेरा सवाल यह है कि इस बात की जांच क्यों नहीं होनी चाहिए कि एक आदमी जो 2014 में 7 बिलियन डॉलर का मालिक था 2022 आते आते 100 बिलियन डॉलर का मालिक कैसे हो गया? इस बात की जांच क्यों नहीं होनी चाहिए कि कैसे गौतम अडानी के बड़े भाई विनोद शांतिलाल अडानी का नाम पनामा पेपर्स और पैंडोरा पेपर्स में आ गया था? ये वही दस्तावेज थे जिनमें नाम आने की वजह से भारत से हर मामले में कमतर देश पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अपने पद से बर्खास्त कर दिया गया था लेकिन भारत में किसी को कुछ नहीं हुआ।
कॉंग्रेस नेता जयराम रमेश द्वारा लगाए गए आरोपों की जांच क्यों नहीं होनी चाहिए जिसमें वह कह रहे हैं कि "एक चीनी नागरिक, चांग चुंग-लिंग (उर्फ लिंगो-चांग) विनोद अडानी के साथ अडानी समूह की कई कंपनियों में निदेशक रहा है और उसने पनामा पेपर्स में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।" इस बात की जांच क्यों नहीं होनी चाहिए कि 8 सालों में 7 बिलियन डॉलर से 100 बिलियन डॉलर तक पहुँचने के लिए गौतम अडानी के पास कौन सा नया बिजनेस मॉडल था? आखिर उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, टेस्ला, एप्पल या अमेजन जैसा कौन सा अद्वितीय व्यापार मॉडल या टेक्नॉलजी को खोज निकाला था?
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इस इत्तेफाक की जांच क्यों नहीं होनी चाहिए कि जबसे नरेंद्र मोदी सत्ता में आए गौतम अडानी की संपत्ति में चरघातांकीय रूप से वृद्धि (Exponential growth) हुई? इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि एक व्यक्ति जो भारत जैसे समृद्ध देश के प्रधानमंत्री की शपथ लेने के लिए एक उद्योगपति के चार्टर प्लेन से दिल्ली आता है और वह उद्योगपति भी गौतम अडानी ही निकलते हैं। भारत के मध्यम वर्ग के नागरिकों का पैसा डूबा है, भारत की संसद को पूरा अधिकार है कि वह इसकी जांच करे।
आखिर क्यों उदार हृदय दिखाते हुए लोकसभा अध्यक्ष संयुक्त संसदीय समिति(JPC) स्थापित नहीं कर देते? ताकि संसद के सामने, भारत के नागरिकों के प्रतिनिधियों के सामने जांच हो सके! सर्वोच्च न्यायालय भले ही जांच कर रहा हो लेकिन जांच संसदीय समिति को भी करनी चाहिए। जब अमेरिका की सीनेट समितियाँ तमाम तकनीकी मुद्दों को सुन सकती हैं तो भारत में क्यों नहीं? पूरा देश देख रहा था जब विपक्ष के नेता राहुल गाँधी अडानी को लेकर प्रधानमंत्री से सवाल पूछ रहे थे लेकिन देश तब बिल्कुल निराश हो गया जब अडानी पर पूछे गए सवाल पर भी प्रधानमंत्री को ‘नेहरू’ ही याद आए। प्रधानमंत्री ने विपक्ष के नेता राहुल गाँधी के सवालों का जवाब नहीं दिया। आखिर देश क्यों न माने कि दाल में कुछ काला है?
इतने कम समय में एक उद्योगपति भारत के तमाम मंझे हुए और स्थापित उद्योगपतियों को पीछे कर देता है वो भी बिना किसी नवाचार के, आखिर कॉम्प्टीशन कमीशन ऑफ इंडिया जैसी संस्थाएं क्या करती रहीं? क्या इस बात की जांच नहीं होनी चाहिए?
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क्या यह सिर्फ इत्तेफाक ही था कि वर्तमान सरकार के प्रति आलोचनात्मक रुख अपनाने वाले मीडिया समूह को जिस उद्योगपति ने खरीदा वह भी गौतम अडानी ही निकले? मीडिया का एकमात्र आलोचनात्मक स्तम्भ ढहा दिया गया, जांच क्यों नहीं होनी चाहिए?
सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार हजारों की संख्या में MSMEs बंद हो गई हैं तब किसी को मध्यमवर्ग के लोगों की व्यथा नहीं समझ आई, आखिर क्यों? क्या कारण है कि कभी भी इस बात पर ‘दर्द’ नहीं हुआ कि भारत बेरोजगारी की मार झेलते झेलते थक गया है, अभी हाल ही में सीएमआईई के आँकड़े बता रहे हैं कि बेरोजगारी दर फरवरी में बढ़कर 7.45% हो गई है। महंगे ‘स्टूडियो-कल्चर’ वाली रंगीन पत्रकारिता में ऐसी खबरें और प्रश्न मात्र हेडलाइन्स में ही दिखते हैं, बहस तो उन मुद्दों में होती है जिनसे देश का माहौल बिगाड़ा जा सके या यह कहें कि सत्ता के लिए देश की शांति को लूटा जा सके।
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प्रधानमंत्री जब संसद में खड़े होकर विपक्ष के सांसदों की बातों का जवाब देना जरूरी नहीं समझते तब वह एक अलोकतांत्रिक वातावरण को प्रोत्साहित कर रहे होते हैं। यही अलोकतांत्रिक वातावरण टपककर अन्य संस्थानों तक भी जा पहुंचता है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में छात्रों के विरोध प्रदर्शन पर 20 हजार का जुर्माना लगाने का आदेश देना उसी अलोकतांत्रिक वातावरण का हिस्सा है। भले ही विश्वविद्यालय प्रशासन ने अपना आदेश वापस ले लिए हों लेकिन उन्होंने लोकतंत्र के प्रति अपना ‘दृष्टिकोण और आदर्श’ संबंधी फैसला सुरक्षित कर लिया है। ऐसा ही एक मामला हरियाणा का है जहां हत्या और बलात्कार के साबित आरोप में 20 साल की सजा काट रहा डेरा सच्चा सौदा का प्रमुख राम रहीम 40 दिन की पैरोल पर फिर से बाहर आ गया है जबकि उसकी पिछली पैरोल अभी 25 नवंबर को ही खत्म हुई है। जिस अपराधी के घृणित कार्यों के बारे में उसको सजा देने वाली सीबीआई अदालत ने ही कह दिया था कि डेरा प्रमुख "अदालत की सहानुभूति के लायक नहीं है क्योंकि उसने उसको भगवान मानने वाले पवित्र शिष्यों को भी नहीं बख्शा और एक जंगली जानवर की तरह काम किया।" उसी राम रहीम को लेकर खट्टर सरकार का कहना है कि वह कोई ‘खूंखार अपराधी’ नहीं है।
खट्टर सरकार को यह बात समझ नहीं आ रही कि एक व्यक्ति जो महिलाओं और मानवता के खिलाफ अपराध का दोषी है आखिर उसे क्यों 2022 में ही 91 दिनों की पैरोल पर बाहर छोड़ गया। कानून की आड़ में छिपने से अच्छा था कि खट्टर सरकार कोई कड़ा कदम उठाती लेकिन शायद उन्होंने भी अपने से ‘बड़े’ नेताओं से गैर-जवाबदेही ही सीखी है।
महिलाओं के प्रति ऐसा रवैया देखकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि क्यों लैन्सिट रिपोर्ट यह कह रही है कि भारत वर्तमान में सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स(SDGs) के महिलाओं से संबंधित 33 लक्ष्यों में से 19 को पूरा करने की स्थिति में ही नहीं है?
हर वर्ग का कल्याण जब एक नारा बन चुका हो तो जवाबदेही सिर्फ चुनाव परिणामों की ग़ुलामी मात्र ही रह जाती है। हार जीत के फैसले से यदि सिर्फ चेहरा बदलता तो कोई परेशानी नहीं थी, परेशानी यह है कि देश का फैब्रिक और ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ ही बदला जा रहा है। उद्योगपतियों, कुलपतियों के रूप में ऐसे लोग स्थापित किए जा रहे हैं जिनसे आशा की जा रही ही कि वो भारत के लिए नहीं पार्टी के लिए काम करें, वे व्यक्ति की तरह नहीं बल्कि एक अनुशासित सैनिक की तरह काम करें, यह भारत को हमेशा के लिए बदल सकता है।
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जांच सिर्फ अडानी की नहीं उन संस्थाओं की भी होनी चाहिए जिन्हे संविधान ने लोकतंत्र को राजनीति और सरकार के आधिपत्य से बचाने के लिए बनाया था।
कुछ तो है जो नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद बदल गया है, कुछ ऐसा जो सकारात्मक और समावेशी तो बिल्कुल नजर नहीं आ रहा है। गैर-समावेशी नीतियों को लेकर, 2014 से 2022 के काल के बारे में जो नजर आ रहा है उस संबंध में विपक्ष के नेता राहुल गाँधी ने संसद में हाल ही में कहा कि "भारत के सभी बंदरगाह, हवाई अड्डे, बिजली, ट्रांसमिशन, खनन, हरित ऊर्जा, गैस वितरण, खाद्य तेल - भारत में जो कुछ भी होता है, अडानी जी हर जगह पाए जाते हैं”। क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है?
पूरी दुनिया देख रही है कि कैसे भारत हर उस रिपोर्ट और दस्तावेज को नकार रहा है जो सत्ता के करीबियों के खिलाफ जा रही है, जनता को यह समझना जरूरी है कि लोकतंत्र की मशीन जंग खाने लगती है अगर उसे चलाने वाला दशकों तक नहीं बदला जाता। क्योंकि बदलाव और निरन्तरता लोकतंत्र का जंगरोधक है। इसलिए इससे पहले कि जंग स्थायी हो मिस्त्री बदल दिया जाना चाहिए।
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