पेरिस, 2015 में 17 सतत विकास लक्ष्यों को अंगीकृत किया गया। इसका उद्देश्य था 2030 तक पृथ्वी और इसमें रहने वाले लोगों की शांति और समृद्धि। इन्हीं में से एक लक्ष्य है, सतत विकास लक्ष्य-2। इसका लक्ष्य 2030 तक ‘ज़ीरो भुखमरी’ और कुपोषण को समाप्त करना है। अब इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए सिर्फ़ 6 वर्षों का समय ही बचा है। भारत इस लक्ष्य से कितना दूर है और इसे लेकर कितना गंभीर है, इसकी पड़ताल करना ज़रूरी है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन द्वारा ‘विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति’ रिपोर्ट जारी की गई है। 24 जुलाई को सामने आई इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में इस समय लगभग 19.5 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार हैं। यह संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है।
कृषि संगठन यानी एफ़एओ के अनुसार, जब व्यक्ति अपने दैनिक आहार से उतनी ऊर्जा प्राप्त नहीं कर पाता जिससे वह एक सामान्य व सक्रिय जीवन जीने में सक्षम हो सके तो यह अवस्था कुपोषण कहलाती है। ‘विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति’ यानी एसओएफ़आई की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग आधे से अधिक भारतीय (55.6%) आज भी ‘स्वस्थ आहार’ का खर्च उठाने में सक्षम नहीं है। जबकि वैश्विक स्तर पर यह प्रतिशत 35.4% है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत में लगभग 80 करोड़ लोग ऐसे हैं जो स्वस्थ आहार का खर्च नहीं उठा सकते।
एसओएफ़आई की इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में आधे से ज़्यादा महिलाएँ, जो कि 53.0% है, एनीमिया से पीड़ित हैं। यह न सिर्फ दक्षिण एशिया में बल्कि पूरे विश्व में सबसे ज़्यादा है और दुनिया में सबसे ज़्यादा है।
सतत विकास लक्ष्य-2 यानी एसडीजी-2 अर्थात भुखमरी की प्रगति को मापने वाला संकेतक, ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी जीएचआई है। जीएचआई-2023 रिपोर्ट में भारत को 111वें स्थान पर रखा गया था। भारत को यह स्थान 125 देशों की सूची में प्राप्त हुआ है और यह बताता है कि भुखमरी के मामले में भारत से मात्र 14 देश ही बदतर स्थिति में हैं। भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका से भी खराब स्थिति में है। एक आँकड़े के अनुसार, भारत में पर्याप्त भोजन की व्यवस्था और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून (2013) होने के बाद भी लगभग 19 करोड़ लोग ऐसे हैं जो रात में भूखे सोते हैं। यही नहीं, आंकड़ा यह भी है कि भारत में 2019-20 में कुपोषण के कारण 69% बच्चों की मौत हुई थी और भारत की लगभग 13% आबादी दीर्घकालिक कुपोषण से पीड़ित है, पर केंद्र सरकार ने आयरलैंड और जर्मनी के दो गैर सरकारी संगठनों 'कंसर्न वर्ल्डवाइड' और 'वेल्ट हंगरहिल्फ़' द्वारा प्रकाशित और संयुक्त राष्ट्र को मान्य, रिपोर्ट को नकार दिया। ऐसा लगता है कि मुँह छिपाना ही केंद्र सरकार की सबसे बड़ी ‘नीति’ है।
क्या कारण हो सकता है कि भारत में खाद्य उपलब्धता होने के बाद भी कुपोषण की स्थिति बनी हुई है? शायद लगातार बढ़ रही महंगाई ने उस आहार की उपलब्धता को असंभव बना दिया है जिसे संतुलित आहार कहा जाता है, जिस आहार से स्वास्थ्य को बेहतर बनाया जा सकता है वहाँ तक उपलब्धता असंभव होती जा रही है।
लगभग 56% भारतीय ऐसे हैं जो संतुलित आहार वहन ही नहीं कर सकते हैं। बेरोजगारी और लगातार बढ़ती महंगाई ने तमाम स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को भी खड़ा कर दिया है। मई के महीने में खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर, पिछले दस महीने के उच्चतम स्तर पर थी। लगातार चार महीनों से यह दर 8.5% से अधिक बनी हुई है। यदि सिर्फ सब्जियों की बात करें तो यह दर 32.42% थी और प्याज (58.05%) व आलू (64.05%) तो सीमा ही पार कर गए। आम आदमी की जेब खाली है और रोजगार के अवसर लगातार तेजी से घट रहे हैं ऐसे में स्वास्थ्य की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित होगी?
विशेषज्ञों की मानें तो खाद्य मुद्रास्फीति से खाद्य सुरक्षा का संकट पैदा होता है। इसकी वजह से गरीबों तक उच्च गुणवत्ता का भोजन नहीं पहुँच पाता। इसकी वजह से गरीबों में कुपोषण बढ़ता है। एक आँकड़े के मुताबिक़, यदि खाद्य मुद्रास्फीति 1% हुई तो कुपोषण में लगभग 0.5% की वृद्धि होती है; शिशु मृत्यु दर में 0.3% की वृद्धि होती है। इसके साथ ही बढ़ती खाद्य मुद्रास्फीति, उपभोक्ताओं में मांग को कम करती है जिससे उत्पादन को कम करना पड़ता है और इस वजह से कर्मचारियों को निकालना ज़रूरी हो जाता है। गरीबी-बेरोजगारी-भुखमरी का यह चक्र इतना अधिक ख़तरनाक हो जाता है कि संभालना मुश्किल हो जाता है।
इससे बचने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं और महंगाई पर कार्य करना बेहद ज़रूरी है। लेकिन सरकार समस्याओं को ठीक करने के मूड में दिखाई नहीं पड़ती, सरकार अभी भी इस मूड में नहीं है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी खर्च बढ़ाया जाए। केन्द्रीय बजट पेश करते समय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण स्वास्थ्य के क्षेत्र में कोई बड़ी घोषणा नहीं कर सकीं, और इस क्षेत्र के लिए धन आवंटन में बड़ी मामूली 1.7% की वृद्धि ही कर पाईं। पीएम मोदी की फ्लैगशिप परियोजना, आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा योजना, जिसे लेकर पीएम बड़े बड़े वादे कर रहे थे, उसके लिए धन आवंटन मात्र 100 करोड़ रुपये ही बढ़ाया गया। जो योजना देश के सबसे गरीब वर्ग (40%) के लोगों को 5 लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा कवर प्रदान करती है, जिस योजना में हर साल करोड़ों की संख्या में लोग जुड़ना चाहते हैं उससे कुछ लाभ की आशा करते हैं उसके लिए सरकार ने मात्र 100 करोड़ ही बढ़ाए?
स्वास्थ्य केंद्रों, प्रयोगशालाओं और गंभीर देखभाल करने वाले अस्पताल ब्लॉकों के लिए बुनियादी ढांचे का विकास करने के लिए लाई गई योजना, पीएम-आयुष्मान भारत स्वास्थ्य अवसंरचना मिशन (PM-ABHIM) के लिए धन घटा दिया गया, इसके लिए धन आवंटन पिछले साल के 4,200 करोड़ रुपये से घटाकर इस साल 3,200 करोड़ रुपये कर दिया गया।
एक अन्य योजना- पीएम स्वास्थ्य सुरक्षा योजना- जो कि नए AIIMS और जिला अस्पतालों में अवसंरचना विकास के उद्देश्य से लाई गई थी उसके लिए धन आवंटन पिछले साल के 3,365 करोड़ रुपये से घटाकर मात्र 2,200 करोड़ कर दिया गया।
नए AIIMS का वादा करने वाले पीएम अब देश के नागरिकों के लिए खुल रहे AIIMS के विकास से सहमत नहीं दिखाई देते हैं, तभी तो इनके लिए फंड कम कर दिया गया। जिन लोगों को अपने जिला अस्पतालों से थोड़ी सुविधा मिल जाती है, जो बड़े शहरों के महंगे वातावरण में रह नहीं सकते और अपना महंगा इलाज नहीं करवा सकते उन लोगों को उपलब्ध जिला अस्पतालों के विकास का पैसा भी कम कर दिया गया, क्यों? क्या इसके पीछे प्राइवेट अस्पतालों के विकास को बढ़ावा देने का दृष्टिकोण शामिल है? यदि हाँ तो यह देश के सामान्य नागरिकों के साथ शर्मनाक और शातिराना व्यवहार है। क्योंकि आँकड़े बता रहे हैं कि भारतीय नागरिक, महंगाई के कारण अपने स्वास्थ्य की देखभाल और बीमारी में अपना इलाज नहीं करवा पा रहे हैं, सरकारी अस्पताल भीड़ से भरे हुए हैं, क्योंकि वे चिकित्सकों की कमी से जूझ रहे हैं। क्या ऐसे में धन आवंटन कम कर देना या रोक देना सरकार की असंवेदनशीलता से जोड़कर नहीं देखा जाएगा? देखा जाएगा और देखा जाना चाहिए।
मोदी सरकार ने यही हालत टेली-मेंटल हेल्थ सर्विसेज का किया है। NIMHANS के तहत चल रहे बेहद जरूरी कार्यक्रम के बजट को सरकार ने 133.7 करोड़ से घटाकर 90 करोड़ कर दिया है। चुनाव से पहले अंतरिम बजट में जो भी वादे किए गए थे उन्हें पूरा नहीं किया गया। इसी बजट में सर्वाइकल कैंसर के खिलाफ HPV टीकाकरण के लिए सरकार द्वारा प्रोत्साहन दिया जाएगा, ऐसा कहकर बड़ी बड़ी घोषणाएँ हुई थीं लेकिन मुख्य बजट में इन्हें काट दिया गया।
अंतरिम बजट में आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के लिए आयुष्मान भारत बीमा योजना के विस्तार की बात कही गई थी जिसे वास्तविकता नहीं प्रदान की गई। आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं की हालत खराब है जबकि इन्हें ही निचले स्तर पर स्वास्थ्य की रीढ़ माना जाता है। NFHS-5 के अनुसार, छह वर्ष से कम आयु के केवल 50.3% बच्चों को ही आंगनबाड़ी से कोई सेवा प्राप्त हुई। यह चौंकाने वाला मामला है। क्या सरकार ने पता किया कि बाकी बच्चों का क्या हुआ? मुझे नहीं लगता सरकार को इस बात की कोई फिक्र भी है। सरकार को तो इस बात की भी फिक्र नहीं कि अच्छे और बेहतर डॉक्टर आयें, NEET जैसी जरूरी परीक्षा की पारदर्शिता से समझौता किया गया और सरकार ने तब तक कुछ नहीं किया जब तक लोगों ने आवाज नहीं उठाई। डॉक्टरों की संख्या भी बुरे दौर से गुजर रही है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, प्रति 1000 लोगों पर 1 डॉक्टर और 1000 लोगों पर 3 नर्सों का होना जरूरी है। जबकि भारत में, प्रति 1000 लोगों पर मात्र 0.73 डॉक्टर और 1.74 नर्स हैं। ऊपर से सरकार न तो अस्पतालों की अवसंरचना पर पैसा खर्च करना चाह रही है और न ही बेहतर डॉक्टर पैदा करने वाली व्यवस्था पर। सरकार न ही गरीब मरीजों का खून चूसने वाले प्राइवेट अस्पतालों के गैर-जिम्मेदाराना रवैये पर कोई काम कर रही है और न ही ग्रामीण स्तर पर बर्बाद हो रही स्वास्थ्य व्यवस्था पर कोई ध्यान दे रही है। महंगाई से लेकर बेरोजगारी तक, स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर संबंधित परीक्षाओं तक सरकार सिर्फ असफल और अदृश्य जैसे शब्दों से ही पहचानी जा रही है। लगता है सरकार ने हर मद (शिक्षा और स्वास्थ्य) में काटे गए पैसों का इस्तेमाल बिहार और आंध्रप्रदेश के अपने खेवनहारों की मांगों पर खर्च कर दिया। शायद विपक्ष ने इसीलिए इसे ‘कुर्सी बचाओ बजट’ की संज्ञा दी है। ऐसे में यदि भारत कुपोषण की राजधानी बन गया है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
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