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कोई संवैधानिक पद, महिलाओं के यौनशोषण का लाइसेंस नहीं!

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंद बोस के ख़िलाफ़ यौन शोषण का मामला अब राष्ट्रव्यापी होता जा रहा है। राज्यपाल बोस के विरुद्ध राजभवन में संविदा पर कार्यरत एक महिला कर्मचारी ने यौन शोषण का आरोप लगाया था। आरोप यह भी है कि राजभवन के OSD-2 (ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी) ने इस महिला कर्मचारी पर राज्यपाल के खिलाफ यौन शोषण की शिकायत दर्ज न करने का दबाव भी बनाया था। जब इस OSD के खिलाफ FIR दर्ज की गई तो कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अधिकारी के खिलाफ किसी भी कार्यवाही पर रोक लगा दी। अब यह मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय में पहुँच गया है। 19 जुलाई, शुक्रवार को भारत के मुख्य न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले की सुनवाई करने का निर्णय लिया। CJI ने कहा कि एक संवैधानिक पीठ राज्यपाल को संरक्षण देने वाले अनुच्छेद-362(2) की सीमाओं का परीक्षण करेगी।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद-361(1), राज्यपालों के संरक्षण के संबंध में कहता है कि राज्यपाल “अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्त्तव्यों के पालन के लिए” या ऐसे “किसी कार्य के लिए” किसी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा। अनुच्छेद-362(2) एक कदम आगे बढ़कर राज्यपाल को और भी सुरक्षा प्रदान करते हुए कहता है कि उसके “विरुद्ध उसकी पदावधि के दौरान किसी न्यायालय में किसी भी प्रकार की दांडिक कार्यवाही” नहीं की जाएगी।

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सवाल यह है कि यदि इस अनुच्छेद का अर्थ यह निकलकर आ रहा है कि राज्यपाल चाहे कुछ भी करे, चाहे वह किसी भी आपराधिक गतिविधि में शामिल हो, मामला हत्या का हो या बलात्कार का हो, उसके खिलाफ तब तक वाद दायर नहीं किया जा सकता, जब तक वह अपने ऑफिस में बना हुआ है अर्थात किसी भी अपराध व उसके निस्तारण के लिए कानून को तब तक इंतजार करना होगा जब तक राज्यपाल पदमुक्त नहीं होता।

ऐसे में क्या होगा जब राज्यपाल पर किसी महिला के यौन शोषण का आरोप हो? तब क्या महिला को वर्षों तक अपने यौन शोषण के साथ, अपनी बिखरी हुई अस्मिता के साथ, और लाचार कानून के बीच रहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा? और यदि केंद्र सरकार किसी राज्यपाल को 10-15 सालों तक पद से न हटाए तो क्या पीड़ित महिला अपने साथ हुई यौन शोषण की त्रासदी को 15 सालों तक सहन करती रहेगी? मुझे तो यह निश्चित रूप से न्याय नहीं लगता है।  

सवाल यह है कि संविधान में लिखी इबारत को कैसे पढ़ा जाए। संविधान स्वयं, सर्वोच्च न्यायालय को यह शक्ति प्रदान करता है कि विवाद की स्थिति में न्यायालय, संविधान के वास्तविक अर्थ की व्याख्या करे। अनुच्छेद-362(2) की व्याख्या करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के अटॉर्नी जनरल वेंकटरमानी का भी सहयोग मांगा है। शायद इस अनुच्छेद को इसलिए लाया गया था जिससे राज्यपाल और राष्ट्रपति जैसे पदों को विवादों से मुक्त रखा जा सके और राज्य के प्रमुख के रूप में उनकी नैतिकता को संशय और संदिग्धता से हटकर देखा जा सके। संविधान ने बहुत भरोसे के साथ राज्यपाल को उसके ‘पद पर बने रहने तक’ किसी भी आपराधिक वाद से बचने की शक्ति प्रदान की थी। इसकी शुचिता को बनाए रखने के लिए केंद्र सरकार को सचेत रहना चाहिए था। क्योंकि राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत ही अपने पद पर बना रह सकता है (अनुच्छेद-156)। यदि केंद्र को लगता है कि बोस पर यौन शोषण का आरोप लग गया है, चाहे सही या गलत, तो राज्यपाल पद की गरिमा को बनाए रखने के लिए या तो राज्यपाल खुद ही पद छोड़ दें और आपराधिक मुकदमे का सामना करें या फिर केंद्र स्वयं राष्ट्रपति के माध्यम से राज्यपाल को पदमुक्त कर दे। 
सर्वोच्च न्यायालय ने बीपी सिंघल बनाम भारत संघ (2010) में माना कि राष्ट्रपति किसी भी समय और बिना कोई कारण बताए राज्यपाल को हटा सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि एक संवैधानिक पद की गरिमा जा रही है और केंद्र सरकार चुपचाप बैठी देख रही है।

आंबेडकर ने संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण के दौरान कहा था कि “…संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि इसे लागू करने वाले लोग बुरे हुए तो यह निश्चित रूप से बुरा ही होगा। और संविधान चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो, यदि इसे लागू करने वाले लोग अच्छे हुए तो यह निश्चित रूप से अच्छा ही होगा”। राज्यपाल सीवी आनंद बोस का मामला कुछ ऐसा ही है। बोस के मामले को आधार बनाकर अनुच्छेद-362(2) में प्रदान की गई सुरक्षा को संविधान निर्माताओं की कमी से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। लेकिन यह अवश्य है कि बोस जैसे मामलों से निपटने के लिए और केंद्र के रुख से संविधान को बचाने के लिए इस अनुच्छेद की पुनः समीक्षा आवश्यक है। राज्यपाल को यह एहसास होना चाहिए कि उसे मिली संवैधानिक सुरक्षा, की आड़ में महिलाओं के यौन शोषण को वैधानिकता नहीं प्रदान की जा सकती।

राज्यपाल बोस को लेकर यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचना ही नहीं चाहिए था क्योंकि यह किसी सरकार को गिराने या किसी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने से संबंधित केंद्र के फायदे या नुक़सान से बहुत आगे की बात है। मामला महिला सशक्तिकरण के जुमले के बीच महिला अस्मिता से जुड़ा हुआ है। केंद्र को अहम त्यागकर राज्यपाल हो हटा देना चाहिए था भले ही इसके कितने ही राजनीतिक निहितार्थ क्यों ही न निकाले जाएँ। ममता बनर्जी सरकार पर राज्यपाल को फँसाने के आरोप बेबुनियाद हैं। केंद्र और ममता सरकार के बीच तो पिछले दस सालों से टकराव चल रहा है लेकिन क्या इस बीच किसी भी राज्यपाल पर यौन शोषण का आरोप लगा? या आजादी के बाद देश के कितने राज्यपालों पर यौन शोषण के आरोप लगे? एनडी तिवारी जैसे कुछ मुट्ठी भर लोगों को छोड़ दें, तो ऐसे आरोप नहीं लगते। ऐसे में जब आरोप लग ही गया था तो राज्यपाल बदल देना चाहिए था और यदि आरोप ग़लत होते तो बोस को न्यायपलिका से न्याय मिल ही जाना था। केंद्र को डर किस बात का है? केंद्र सरकार को पता होना चाहिए कि राज्यपाल केंद्र सरकार के अहंकार का हिस्सा नहीं संविधान का एक भाग है। सरकारिया आयोग (1988) ने तो सिफारिश भी की थी कि राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री के परामर्श के बाद ही की जानी चाहिए; राज्यपाल को उस राज्य से संबंधित नहीं होना चाहिए जहाँ उसे नियुक्त किया गया है; राज्यपाल को केंद्र और राज्य के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करना चाहिए, न कि केंद्र के एजेंट के रूप में। लेकिन केंद्र है कि राज्यपाल को लेकर अपनी फैन्टेसी से बाहर ही नहीं निकल रहा है।

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संस्थाओं का पतन संविधान, लोकतंत्र और न्याय के शासन के लिए ठीक नहीं है। अपने स्वार्थ और अहंकार के लिए संस्थानों की बलि नहीं दी जा सकती। आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि आपको “ …संविधान, केवल राज्य के अंगों जैसे- विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका ही प्रदान कर सकता है। राज्य के इन अंगों का भविष्य उन लोगों और राजनैतिक दलों पर निर्भर करेगा जो इन्हें अपनी इच्छाओं और राजनीति को पूरा करने के लिए अपने साधन के रूप में स्थापित करेंगे।” 

राज्यपाल के पद को ऐसी शक्ति नहीं दी जा सकती है जिसके माध्यम से कानून के शासन का मजाक बन जाए। केरल, तमिलनाडु और तमाम अन्य गैर-भाजपाई राज्य सरकारों में राज्यपाल प्रदेश सरकारों के साथ, सीधे टकराव की स्थिति में हैं। जिसकी वजह से स्वतंत्रता के बाद के भारत में पिछले दस साल केंद्र-राज्य संबंधों के लिहाज से सबसे बुरे वर्ष साबित हुए हैं। इसीलिए वेंकटचलैया आयोग (2002) ने राज्यपालों की नियुक्ति के संबंध में एक समिति बनाने का सुझाव दिया था। इसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री शामिल होते। अगर राज्यपाल की नियुक्ति में राज्य सरकार भी शामिल होती तो आज राजभवन में इस महिला को कथित यौन शोषण के मामले में न्याय के लिए वर्षों के इंतजार को मजबूर नहीं होना पड़ता। केंद्र इस मामले को अपनी साख और सम्मान से न जोड़कर महिला के सम्मान और अपराध की प्रकृति व इसकी गंभीरता से जोड़कर तत्काल कार्यवाही करता। जबकि आज केंद्र, संविधान के अनुच्छेद की सीमित व्याख्या के पीछे छिपकर बैठ गया है। जिस राज्यपाल को राज्य सरकार के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक के रूप में कार्य करना चाहिए उस पर यौन शोषण का आरोप है और राज्य पुलिस छानबीन करना चाहती है लेकिन कथित रूप से संविधान इसकी इजाजत नहीं दे रहा है। इसीलिए महिला के वकील श्याम दीवान ने सर्वोच्च न्यायालय में सवाल किया कि- यह कैसे कहा जा सकता है कि राज्यपाल के खिलाफ कोई जांच नहीं होगी? अगर अपराध हुआ है तो सबूत भी होंगे, जिन्हें इकट्ठा करने के लिए पुलिस को राजभवन के अंदर जाना होगा। यदि राज्यपाल के पदमुक्त होने तक इंतजार किया गया तो न्याय की संभावना भी नष्ट हो जाएगी।

पीड़िता ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय को यह तय करना है कि क्या अनुच्छेद-361 में वर्णित “राज्यपाल द्वारा शक्तियों के प्रयोग और कर्त्तव्यों के पालन” में यौन शोषण और छेड़छाड़ को भी शामिल किया जा सकता है और राज्यपाल को सुरक्षा प्रदान की जा सकती है?
नबाम रेबिया (2016) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आंबेडकर की टिप्पणियों के हवाले से कहा है कि "संविधान के तहत राज्यपाल के पास ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे वह खुद से पूरा कर सके; कोई भी कार्य नहीं!” हाँ, उसके पास कुछ कर्त्तव्य अवश्य है। इसका मतलब ही है कि राज्यपाल के हर निर्णय के पीछे केंद्र सरकार होती है। सवाल सिर्फ इतना है कि क्या कथित यौन शोषण में राज्यपाल को बचाने के पीछे भी केंद्र सरकार है?
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मेरा सवाल यह है कि जब रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (2006) में सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल के बारे में यह धारणा स्पष्ट कर चुका है कि उसके द्वारा लिए गए निर्णय न्यायिक परख के दायरे में आते हैं तब यौन शोषण जैसे मामलों में राज्यपाल की कानूनी जांच क्यों नहीं की जा सकती? यदि राज्य सरकार का प्रशासन शक के घेरे में हो तो केंद्र की किसी एजेंसी तो ऐसे मामले की जांच कर ही सकती है। लेकिन ऐसा लगता है कि संवैधानिक संस्थाओं के पतन को लेकर सरकार में कोई चिंता नहीं है। 2018 के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने "संवैधानिक संस्कृति" और "संविधान के नैतिक मूल्यों" जैसी बातों पर बल दिया था। विपक्ष ने पूरा लोकसभा चुनाव-2024, संविधान को बचाने के लिए लड़ा। संविधान, उसमें प्रदान की गईं शक्तियां, अधिकार और संस्थाएं किसी भी हालत में सुरक्षित रहने ही चाहिए। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को मिली सुरक्षा उनके दायित्वों की शुचिता पर निर्भर होने चाहिए न कि शब्दशः अनुच्छेदों पर। किसी का संवैधानिक पद और उससे जुड़ी प्रतिष्ठा महिलाओं के यौन शोषण का लाइसेंस नहीं हो सकता है। अपराध की सत्यता उसकी जांच पर निर्भर करती है और किसी जांच को ही रोक देना, ‘प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत’ के खिलाफ है जिसका उल्लंघन पहले भी जस्टिस रंजन गोगोई पर लगे यौन शोषण के आरोपों में हो चुका है, लेकिन आशा है कि अब नहीं होगा।     

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वंदिता मिश्रा
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