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सरकार को न वनों की चिंता है, न ही आदिवासियों की

बद्रीनाथ, में हुए विधानसभा उप-चुनाव में बीजेपी उम्मीदवार राजेन्द्र भण्डारी चुनाव हार गए हैं। भण्डारी को काँग्रेस उम्मीदवार लखपत सिंह बुटोला ने हराया। राजेन्द्र भण्डारी इससे पहले काँग्रेस से ही विधायक थे लेकिन बीते लोकसभा चुनावों के पहले काँग्रेस से बीजेपी में शामिल हो गए थे। बद्रीनाथ सीट जीतने के लिए बीजेपी के सांसदों, विधायकों, कैबिनेट मंत्रियों के अलावा  मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी पूरा जोर लगा दिया था लेकिन इसके बावजूद जनता ने बीजेपी को नकार दिया। कुछ लोग इसे शायद मात्र एक राजनैतिक हार के रूप में ही देख रहे हों लेकिन इस हार में पर्यावरण के क्षरण का दृष्टिकोण भी शामिल किया जाना चाहिए। 
बद्रीनाथ चमोली जिले में स्थित है। यह क्षेत्र गढ़वाल हिमालय का हिस्सा है। क्लास 6 की NCERT की किताब यह समझाने के लिए पर्याप्त है कि हिमालय दुनिया के सबसे नए बने पर्वतों में से एक है, यह क्षेत्र सीज़मिक गतिविधियों के लिहाज से बेहद संवेदनशील है। इंडियन टेक्टोनिक प्लेट एशियन टेक्टोनिक प्लेट की ओर निरन्तरता से बढ़ रही है(5-6 सेन्टमीटर/वर्ष)। जिसकी वजह से हिमालय लगातार ऊपर उठ रहा है और आज भी निर्मित हो रहा है। निश्चित रूप से यह जानकारी भारत के नीति निर्माताओं के पास भी उपलब्ध होगी, इसके बावजूद हिमालय में लगातार निर्माण गतिविधियां चल रही हैं। विकास के नाम पर बड़े-बड़े बांध बनाए जा रहे हैं। जिसका खामियाजा हिमालय और इस क्षेत्र के निवासियों को भुगतान पड़ रहा है। 
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दो साल पहले जोशीमठ में लगभग 868 इमारतों और कई सड़कों में बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई थीं। वैज्ञानिक समुदाय ने यह स्वीकार किया कि जोशीमठ धीरे-धीरे धंस रहा है, जिसके पीछे की वजह संवेदनशील हिमालयी पारिस्थितिकी और उसमें हो रहे अनियोजित विकास को बताया गया। लेकिन इतना कुछ जानने के बावजूद जोशीमठ के लिए कुछ नहीं किया गया, आज भी निर्माण गतिविधियां अबाध रूप से चल रही हैं, जंगल काटे जा रहे हैं, खनन जैसी गतिविधियों को उत्तराखंड सरकार ने प्राइवेट हाथों में सौंप दिया है।
भले ही बद्रीनाथ की जनता ने अपनी प्रतिक्रिया देकर उत्तराखंड सरकार को संदेश दे दिया हो लेकिन जब तक जनता यह संदेश राष्ट्रव्यापी रूप से नहीं देगी पर्यावरण की लड़ाई कमजोर ही रहने वाली है। जनता को अपने पर्यावरण के प्रति सचेत रहना ही होगा। लगभग यही बात जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस पीएस नरसिम्हा, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस केवी विश्वनाथन ने एक कार्यक्रम के दौरान कही।

वे शनिवार को अधिवक्ता जतिंदर चीमा द्वारा लिखित पुस्तक ‘क्लाइमेट चेंज: द पॉलिसी, लॉ एंड प्रैक्टिस’ के लॉन्च पर बोल रहे थे। जस्टिस  नरसिम्हा ने कहा कि जब तक लोग आंतरिक रूप से नहीं बदलेंगे, तब तक कानून का कोई फायदा नहीं होगा और लोग केवल जनहित याचिका दायर करते रहेंगे। मतलब साफ है कि लोगों को बदलना होगा और जलवायु परिवर्तन को चुनावी मुद्दा बनाना होगा क्योंकि यह लोगों के ‘जीवन के अधिकार’ से जुड़ा है।

न्यायपालिका और सिविल सोसाइटी के द्वारा पर्यावरण को लेकर की जा रही तमाम चिंताएं निराधार नहीं है। सरकार विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के गैर-आनुपातिक दोहन को बढ़ावा दे रही है। सरकार उद्योगपतियों को कोयला निकालने, पावर प्लांट बनाने और ऊर्जा सुरक्षा के नाम पर लाखों पेड़ों को काटने की इजाजत देने में लगी हुई है।

जिस तरह जोशीमठ का पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ा है उससे सरकार को सबक ले लेना चाहिए था लेकिन सरकार सीखने को तैयार नहीं। अब यह बात पुख्ता तौर पर साबित हो चुकी है कि उत्तराखंड में चारधाम यात्रा के लिए बनाए गए तथाकथित ‘आल वेदर रोड’ अब परिस्थितिकी के लिए बोझ बनते जा रहे हैं।

यही बोझ छत्तीसगढ़ हसदेव अरण्य में भी बढ़ाने की तैयारी है। यहाँ गौतम अडानी के समूह की कंपनी को परसा ईस्ट और कांटा बासन(PEKB) मे कोयला खनन का ठेका दिया गया है। 2012-2022 के बीच यहाँ लगभग 150,000 पेड़ काटे जा चुके हैं। 15000 पेड़ अकेले दिसंबर 2023 में ही काटे गए। पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि अभी लगभग 4 लाख पेड़ और काटे जाने बाकी है।
इस अंधाधुंध पेड़ की कटाई के पीछे है हसदेव अरण्य में स्थित 500 करोड़ टन कोयले का भंडार। ताज्जुब यह है कि हसदेव में सैकड़ों हेक्टेयर प्राचीन वनों का विनाश जारी है जबकि भारत सरकार के अंतर्गत काम करने वाले शोध संस्थान भारतीय वन्यजीव संस्थान (WWI) द्वारा, सरकार के कहने पर एक अध्ययन किया गया था। इसमें WWI ने अपनी सिफारिश में कहा था कि हसदेव में खनन कार्यों को अनुमति केवल खनन के लिए पहले से खुले PEKB ब्लॉक के कुछ हिस्सों में ही दी जाए, जबकि हसदेव अरण्य कोयला क्षेत्र (HACF) और आसपास की भूमि के अन्य क्षेत्रों को खनन के लिए 'नो-गो क्षेत्र' घोषित किया जाए। सरकार अपनी ही एजेंसी की सिफारिशें मानने को तैयार नहीं है।
यही हाल मिर्जापुर में स्थित घने जंगलों का है। यहाँ के दादरी खुर्द में अडानी समूह की एक कंपनी,मिर्जापुर थर्मल एनर्जी, को 1600 मेगावाट का कोयला आधारित प्लांट बनाने का ठेका मिला है। पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करने वाली संस्था, विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति के समक्ष अडानी समूह द्वारा इस संबंध में वन मंजूरी के लिए आवेदन किया गया है। आवेदन में कहा गया है कि उनके पास इस क्षेत्र में 365.12 हेक्टेयर भूमि का स्वामित्व है और उन्हे मात्र 12 हेक्टेयर भूमि पर वन मंजूरी चाहिए।
इसका अर्थ यह हुआ कि अडानी यह कहना चाह रहे हैं कि इस क्षेत्र में जो उनके स्वामित्व में है मात्र 12 हेक्टेयर ही वन है। जबकि राज्य सरकार के दस्तावेज में 1952 से ही यह क्षेत्र एक वन के रूप में चिन्हित है। अर्थ यह हुआ कि धोखा देकर सैकड़ों हेक्टेयर भूमि में स्थित हजारों पेड़ों को काटने की योजना है। इसे रोका जाना चाहिए। तो क्या हुआ अगर उनका इस जमीन पर मालिकाना हक है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट गोदावर्मन(1996) में कह चुका है कि "स्वामित्व की परवाह किए बिना सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज किसी भी क्षेत्र को वन भूमि माना जाना चाहिए”। यहाँ अहम यह है कि क्या सरकार 1952 के अपने ही दस्तावेज को वैधता देगी? क्या सुप्रीम कोर्ट अपने 1996 के निर्णय के साथ खड़ा रहेगा? 

जब भारत के तीन भावी मुख्य न्यायधीश- जस्टिससूर्यकांत, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस केवीविश्वनाथन एक सुर में कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के गंभीर मुद्दों के समाधान कीतत्काल आवश्यकता है, तब यह लगता है कि शायद न्यायपालिका भारत में पसर रहे अडानीवादको लेकर सतर्क रहे। क्योंकि सरकार से तो कोई भी आशा करना बेकार है। सरकार दोनो तरफ खेलने में माहिर है। एक तरफ ‘माँ के नाम एक पेड़’ अभियान चला रही है तो दूसरी तरफवर्षों से खड़े जंगलों को एक झटके में ही काटने की अनुमति दे रही है। सरकार हमेशापर्यावरण की चिंता की बात करती है लेकिन उसे न ही वनों की चिंता है और न ही वनोंपर निर्भर आदिवासियों की।
सरकार को सिर्फ अपनी इमेज की ही चिंता है। हाल ही में ‘पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक’ 2024 जारी हुआ। यह सूचकांक येल सेंटर फॉर एनवायरनमेंटल लॉ एंड पॉलिसी और कोलंबिया सेंटर फॉर इंटरनेशनल अर्थ साइंस इंफॉर्मेशन नेटवर्क के सहयोग से जारी किया जाता है। इस सूचकांक में भारत 180 देशों में 176वें स्थान पर है। भारत केवल पाकिस्तान, वियतनाम, लाओस और म्याँमार से ही ऊपर है। सूचकांक में यह बात चिन्हित की गई है कि भारत में कोयले को लेकर निर्भरता यहाँ के पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रही है साथ ही यह भी कि इसी सूचकांक में वायु गुणवत्ता के मामले में भारत 180 देशों में 177वें स्थान पर हैं। मोदी सरकार ने हमेशा की तरह अपनी इमेज बचाने के लिए इस सूचकांक में कमियाँ गिना डालीं। इससे पहले भी 2022 में मोदी सरकार इस सूचकांक को ‘अवैज्ञानिक’ कह चुकी है।
वैश्विक प्रयासों को नकारने से काम नहीं चलने वाला। पृथ्वी का तापमान बढ़ता ही जा रहा है, पिछला दशक सबसे गरम दशक रहा। पीने के पानी में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, कार्बन सिंक बनाए जाने की बजाय वनों को काटा जा रहा है,
वायु प्रदूषण से लाखों लोगों की मौत हर साल हो रही है, सबसे ज्यादा बच्चे और बुजुर्ग प्रभावित हो रहे हैं, जंगलों के कटने से संक्रामक बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं, जल भराव बढ़ रहा है, भूजल स्तर लगातार गिर रहा है, खाद्य सुरक्षा की चुनौती मुँह खोले खड़ी है। सवाल यह है कि सरकार कर क्या रही है? मेरा सवाल यह है कि अगर भारत में पर्यावरण की स्थिति अच्छी है तो जोशीमठ और नैनीताल के अस्तित्व को खतरा क्यों है? आखिर क्यों पिछले कुछ वर्षों में हिमालय में खतरा बढ़ता जा रहा है? आखिर क्यों बेतहाशा वनों की कटाई की अनुमति दी जा रही है? और आखिर क्यों नदियों में प्रदूषण की हालत लगातार खराब बनी हुई है? 
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सवाल यह है कि गंगा को ‘माँ’ कहने वाले उसकी सफाई में असफल क्यों हैं? गंगा को लेकर न्यायपालिका को कहना पड़ता है कि "एक के बाद एक सरकारों ने गंगा को साफ करने के लिए काफी खर्च किया है और हम जानते हैं कि अभी भी स्थिति क्या है।" लोगों के जीवन का अधिकार खतरे में है और सरकार ने कान में रुई लगा रखी है। न ही हसदेव की लड़ाई लड़ने वालों को सुना जा रहा है और न ही गंगा की। जब तक बद्रीनाथ जैसी राजनैतिक और पारिस्थितिक चेतना पूरे भारत में नहीं आएगी सरकार सबक नहीं लेगी।  
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वंदिता मिश्रा
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