आरबीआई के अनुसार खुदरा महंगाई लगातार बढती गयी है और इसमें खाद्य पदार्थों का योगदान सबसे बड़ा है याने गरीब की थाली जो पहले से हीं छोटी थी, और छोटी हो गयी है. एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण मजदूरों की “वास्तविक” (इन्फ्लेशन-संयोजित) दिहाड़ी पिछले चार वर्षों में घटी है. रोजगार बढ़ने के जो आंकड़े सरकार दिखा रही है वह इसलिए हैं क्योंकि “अनपेड हाउसहोल्ड वर्क” को रोजगार का एक वर्ग मान लिया गया है.
सच्चाई तो यह है कि अन्य औपचारिक हीं नहीं अनौपचारिक सेक्टर्स में नौकरी/काम न मिलने से निराश युवा जब वापस गाँव पहुंचा तो कुछ दिन तो बूढ़े मां-बाप ने उसे पेट काट कर खिलाया लेकिन फिर उसे खेती, गाय-भैंस या परिवार की दूकान पर बैठने कर हाथ बटाने को कहा. इसे सरकार ने रोजगार मान लिया. अंडे बेचने या खोमचा लगाने की “सब-ऑप्टीमल (निम्न-स्तरीय) आजीविका को रोजगार मान लिया गया. यह अंतरराष्ट्रीय लेबर आर्गेनाईजेशन की रोजगार की परिभाषा में कोई वर्ग नहीं है लेकिन सरकार के भक्तों ने इस पर तालियाँ भी बजा दी.
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इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पिछले दस वर्षों से जो सच है वह छिपाना और जो अस्तित्व-शून्य है उसका धूम्रपट (स्मोकस्क्रीन) खड़ा करना देश के प्रधानमंत्री की “न भूतो न भविष्यति” वाली अतुलनीय क्षमता का मुजाहरा है. हालांकि इतिहास इसे राजनीतिक बाजीगरी का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण मानेगा लेकिन वर्तमान में नियंत्रित, चाटुकार, न्यून बौद्धिक क्षमता, कुत्सित व अवैज्ञानिक तर्क-शक्ति वाला मीडिया इसे जनता के बीच परोसता रहेगा. महाराष्ट्र-झारखण्ड या इसके पहले हरियाणा के चुनाव इसका उदाहरण हैं. इस वर्ष के पूर्वार्ध में हुए आम चुनाव में भोगे हुए यथार्थ ने मोदी की इस जादूगरी पर कुछ अंकुश लगाया. लेकिन वह मोदी हीं क्या जो पलट कर नया झलावा न खड़ा करे. सो नया नारा आया “बंटोगे तो कटोगे”.
ज़रा सोचें. यह नारा एक ऐसे देश की चुनी हुई सरकार के शीर्ष पर बैठे लोग दे रहे हों जिस देश में लगातार बढती बेरोजगारी युवाओं की कराह बन गयी हो, किसानों की उपज के दाम और उत्पादन लागत के बीच का फासला कम होता जा रहा हो जिससे मजबूर हो कर “उत्तम खेती मध्यम बान, नीच चाकरी....” का युगीन सत्य गलत साबित करता हुआ, किसान मजदूर बन कर या अन्य गैरकृषि श्रम आजीविका अपना रहा हो.
आलू, प्याज, दाल, सव्जी तो जो “जुटता” है वह भी खाता है और जो “बंटता” है वह भी. लेकिन हाल के चुनावों में हमारे नेताओं ने लगातार “बंटोगे तो कटोगे” का नारा पुरजोरी से चलाया और बताया कि 40 साल पहले किसी विपक्षी राजनीतिक दल ने अपने घोषणापत्र में क्या लिखा था और दूसरी ओर से “संविधान”, “संख्या के अनुसार हिस्सेदारी” का मुद्दा उठाया गया. रिटेल महंगाई 14 माह के सबसे ऊँचे स्तर पर पहुँची है और इसमें सबसे ज्यादा योगदान उपरोक्त रोजमर्रा की वस्तुओं का है. ये वस्तुएं गरीब की खर्च का बड़ा हिस्सा हैं.
किसी भी लोकतांत्रिक देश में जिसमें जनता के मतों से सरकार बनती है उसके मुद्दे महंगाई कम करने का वादा होना चाहिए. लेकिन राजनीतिक वर्ग ने सुनिश्चित किया किया मुख्य मुद्दों से भटकाया जाये क्योंकि ये मुद्दे ख़त्म करना नीतिगत और दीर्घकालिक शासकीय सक्षमता से हीं संभव होता है जबकि राजनीतिक वर्ग महज एक चुनाव तक का हीं सोचने की क्षमता रखता है.
ऐसा नहीं है कि सब्जियां महंगी है तो किसान को लाभ हुआ है. ताज़ा सर्वे बताते हैं कि उत्पादन प्रचुर है. इसका सीधा मतलब है सप्लाई साइड प्रबंधन कमजोर है और बिचौलिए इसका फायदा उठा रहे हैं. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार एक-तिहाई से ज्यादा सब्जियां और अन्य खाद्य सामग्री खेत-से-पेट तक के रास्ते में बर्बाद हो जाती हैं.
पुराने जमाने के कृषि-अर्थ-व्यवस्था वाले ठहरे समाज में लाक्षणिक भाषा में बात होती थी जिसमें मुकरने के चांसेज ज्यादा होते थे.
“बंटेंगे तो कटेंगें” के नारे का मायने समझने के लिए औसत दर्जे का दिमाग चाहिए. यह हिन्दुओं से एकजुट होने की अपील है लेकिन यह किसी सकारात्मक आधार पर नहीं है बल्कि मुसलमानों का भय दिखा कर खडा किया वितंडा है.
अगर हिन्दू धर्म की कुरीतियाँ ख़त्म करने की अपील पर याने यह कह कर कि दलितों को भी भेदभाव से परे हो कर उच्च जाति के लोग अपनाएँ, यह नारा दिया गया होता वह सकारात्मक होता लेकिन ब्राह्मणवादी सोच और वर्चस्व वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसका नाटक तो १०० साल से करता रहा लेकिन प्रैक्टिस में कभी भी नहीं ला पाया. फिर “कटोगे” एक प्रतीक है उस समुदाय के लिए जो आम तौर पर मांस बेचने के धंधे में अपेक्षाकृत ज्यादा है याने मुसलमान.
यह राहुल गाँधी के “जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सादारी” वाले घातक राजनीतिक अस्त्र का भौंडा जवाब है.
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लेकिन मोदी ने 2024 आम चुनाव के झटके के बाद राजनीतिक शालीनता का जो एक झीना पर्दा था वह भी उतार दिया. और शुरू किया हिन्दू-मुसलमान वैमनस्यता को स्थाई भाव से समाज की विकृति के रूप में पायेदारी देने का उपक्रम. देखना होगा कि समाज इस चाल को अपनी पेट की क्षुधा से ज्यादा प्रबल कितने दिन मान सकेगा.
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