प्रधानमंत्री और विपक्षी नेताओं को नौटंकी से नहीं जोड़ना चाहिए। लेकिन मैं उन्हें नौटंकी शैली में पेश एक नाटक देखने का सुझाव दे रहा हूँ। इसे देख कर शायद उन्हें यह समझने का मौक़ा मिले कि राजनीति की नौटंकी किस तरह से भारत के सामाजिक और नैतिक मूल्यों को तोड़ रही है। नाटक ‘हरिश्चन्नर की लड़ाई’ एक पौराणिक कहानी के इर्द-गिर्द घूमता है और आज के आदमी की त्रासदी को सामने लाता है। भारतीय मिथक कथाओं में सत्यवादी हरिश्चंद्र को सत्य का प्रतीक माना गया है। सच पर अडिग रहने के कारण उन्हें अपने राज्य को छोड़ना पड़ा। यहाँ तक कि पत्नी और पुत्र भी छूट गए।
राजा हरिश्चंद्र को श्मशान घाट पर एक डोम की नौकरी करनी पड़ी। इस बीच साँप के डसने से उनके पुत्र की मृत्यु हो गयी। उनकी दरिद्र पत्नी के पास श्मशान घाट की फ़ीस चुकाने का पैसा भी नहीं था। लेकिन हरिश्चंद्र अड़ गए कि फ़ीस चुकाए बिना वह बेटे का भी अंतिम संस्कार नहीं होने देंगे। राजा हरिश्चंद्र की कहानी के अंत में देवता उपस्थित होते हैं। हरिश्चंद्र को सत्य की परीक्षा में पास घोषित करते हैं। उनके बेटे को पुन: जीवित कर देते हैं। उनका राज्य भी वापस मिल जाता है।
- ‘हरिश्चन्नर की लड़ाई’ का नायक हरिया इसी थीम पर आधारित एक नौटंकी में हरिश्चंद्र की भूमिका निभाता है। वर्षों तक यह भूमिका निभाने के बाद वह अपने जीवन में भी सच बोलने का फ़ैसला करता है। और यहीं से शुरू होता है उसके जीवन का असली संघर्ष। नौटंकी कार्यक्रम के दौरान उसका पहला सामना एक कमिश्नर से होता है जो असल में तो उसके अभिनय से ख़ुश होकर ईनाम देना चाहते हैं।
हरिया उर्फ़ हरिश्चन्नर कमिश्नर साहब से कहता है कि वह ईनाम तभी स्वीकार करेगा जब वह बताएँ कि ईनाम का पैसा उनकी ईमानदारी की कमाई का है। इस बात से कमिश्नर साहब नाराज़ हो जाते हैं और शो ख़त्म होने के बाद उसे एक झूठे मामले में फँसा कर गिरफ़्तार कर लिया जाता है।
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जेल से बाहर आकर भी हरिया सच्चाई के रास्ते से हटने के लिए तैयार नहीं होता। स्कूल में अपने बेटे के एडमिशन के लिए वह स्कूल के बेईमान और घूसखोर अधिकारियों से संघर्ष करता है।
- सामाजिक व्यवस्था में सुधार और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ उसकी लड़ाई तेज़ होती जाती है तो पुलिस, अफ़सर, नेता और पत्रकारों के एक वर्ग का गठजोड़ उसके ख़िलाफ़ खड़ा हो जाता है।
अख़बार का संपादक यह कह कर उसकी ख़बर छापने से मना कर देता है कि सरकार के ख़िलाफ़ लिखने से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो जाएगा। इस बीच उसका बेटा बीमार होता है तो अस्पताल के भ्रष्ट अधिकारी बिना पैसा लिए उसे एडमिट करने से मना कर देते हैं। अस्पताल के बाहर ही उसके बेटे की मौत हो जाती है। बाद में उसी सदमे के चलते उसकी पत्नी की भी मौत हो जाती है। कई लोग उसको सुझाव देते हैं कि वह व्यावहारिक बने और सत्य के नाम पर लड़ना बंद कर दे। लेकिन हरिया सत्य की लड़ाई के रास्ते पर अडिग खड़ा रहता है।
सत्यवादी हरिया के बेटे या पत्नी को जीवित करने के लिए कोई भगवान अवतरित नहीं होते।
आज का सत्यवादी हरिया या हरिश्चन्नर किससे उम्मीद करे। ज़ाहिर है कि नज़र राजनीति की तरफ़ जाती है। नेता ही तो आज के भगवान हैं जिनके हाथों के इशारे पर व्यवस्था चल रही है।
लेकिन राजनीति-अपराध और व्यापार का मज़बूत होता गठजोड़ हरिया या हरिश्चन्नर का दम घोंटने पर उतारू है। यह कहानी किसी भी आम भारतीय नागरिक की हो सकती है। नेताओं का झूठ और अपराध प्रेम अब आम आदमी की मुश्किलों को बढ़ाता जा रहा है। संस्कृति कर्मी ऐसे मुद्दों को उठाते रहते हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह कि इन्हें न तो मोदी देखते हैं और न ही राहुल। राजनीति में तो आम आदमी की परीक्षा कठिन होती जा रही है।
लखनऊ के जाने-माने रंगकर्मी उर्मिल कुमार थपलियाल इस नाटक के लेखक और निर्देशक हैं। इसकी ताज़ा प्रस्तुति भारत रंग महोत्सव में की गयी। मनोज जोशी ने राजा हरिश्चंद्र के रूप में और पत्नी तारामती की भूमिका में मीता पंत ने जमकर प्रभावित किया। प्रस्तुति दर्पण ग्रुप ने दी।
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