राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को एक बार फिर मोहलत दे दी है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बुधवार को नैनीताल में कहा कि राम मंदिर के निर्माण का मुद्दा चुनाव बाद एक फिर ज़ोर शोर से उठाया जाएगा, भले ही किसी की सरकार हो। उन्होंंने ज़ोर देकर कहा कि राम मंदिर का निर्माण कुंभ में हुए धर्म संसद के फ़ैसले के अनुरूप ही होगा। इसके एक दिन पहले ही विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त महासचिव सुरेंद्र जैन ने राम जन्मभूमि आंदोलन को अगले 4 महीनों तक स्थगित रखने का एलान किया था। ये फ़ैसले अगले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर ही किए गए हैं। इसके साथ ही पिछले दिसम्बर में साधू-संतों के दिल्ली सम्मेलन में राम मंदिर को लेकर केंद्र सरकार को घेरने की जो तैयारी शुरू की गयी थी, उसका पटाक्षेप भी हो गया।
- पाँच साल बीतते-बीतते साधू-संत और राम मंदिर के समर्थक अपना धीरज खोने लगे। विश्व हिन्दू परिषद और संघ के कई नेताओं ने सरकार को घेरना शुरू किया। दिसम्बर में दिल्ली में आयोजित संघ परिवार और संतों के सम्मेलन में नाराज़गी साफ़ तौर पर उभर कर सामने आयी।
संघ के उप-प्रमुख भैय्याजी जोशी ने तो सरकार को चेतावनी दे डाली। उन्होंने कहा कि सत्ता में बैठे लोगों को आम लोगों की भावनाओं को समझना चाहिए। सम्मेलन में शामिल एक वर्ग ने राम मंदिर निर्माण की तारीख़ तय करने की माँग की।
- वैसे, इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट 2003 में एक फ़ैसला दे चुका है कि जब तक विवादित ज़मीन का फ़ैसला नहीं हो जाता तब तक ग़ैर-विवादित ज़मीन भी किसी को नहीं दिया जा सकता है।
साधू-संतों का सम्मेलन फ़्लॉप
प्रयाग कुंभ में 31 ज़नवरी और एक फ़रवरी को आयोजित संत सम्मेलन में यह मुद्दा एक बार फिर उठा। इस सम्मेलन में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत, संयुक्त सचिव कृष्ण गोपाल, विश्व हिन्दू परिषद के प्रमुख नृत्य गोपाल दास, बाबा रामदेव और उत्तर प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी मौजूद थे।
साधू-संतों का इस बार का सम्मेलन एक तरह से फ़्लॉप शो था। सम्मेलन में मंच पर जितने वक्ता मौजूद थे उतने भी साधू-संत मंच के नीचे दिखायी नहीं दिए। यह एक तरह से संकेत था कि राम जन्मभूमि का समर्थन करने वाले आम लोग और साधू-संत अब बीजेपी और संघ परिवार से दूर हट रहे हैं।
सम्मेलन में मंदिर निर्माण को लेकर भाषण तो बहुत हुए लेकिन ठोस कार्यक्रम नहीं बना। यहीं से साफ़ होने लगा था कि संघ परिवार लोकसभा चुनाव से पहले सरकार और बीजेपी को मुसीबत में नहीं डालना चाहता है। संघ परिवार अब 2022 तक मंदिर निर्माण की बात कर रहा है। इस बीच राम मंदिर समर्थकों को अब चुनाव में बीजेपी के समर्थन में खड़ा करने की कोशिश शुरू हो गयी है। चुनावी रणनीति तैयार करने के लिए 7-8 फ़रवरी को विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायी जा रही है। 14-15 फ़रवरी को एक और सम्मेलन होगा जिसमें बीजेपी के नेता भी शामिल होंगे।
- कुंभ के राजनीतिक इस्तेमाल का ऐसा उदाहरण पहले कभी नहीं मिला। अब तक की जानकारी के अनुसार विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ चुनाव के लिए कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण भी यही कर रहे हैं।
देवरस ने कहा था, मंदिर बनने में लगेंगे 25-30 साल
बहरहाल विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त महासचिव सुरेंद्र जैन के बयान से साफ़ हो गया है कि संघ परिवार के लिए राम मंदिर एक चुनावी मुद्दे से ज़्यादा नहीं है। संघ के प्रमुख मोहन भागवत का एक पिछला बयान भी यही बताता है। भागवत ने कभी ज़िक्र किया कि पूर्व संघ प्रमुख देवरस ने कहा था कि मंदिर तुरंत नहीं बन जाएगा। इसमें 25-30 साल लगेंगे। भागवत के मुताबिक़ 30 साल का समय 2022 में पूरा हो रहा है।
लोकसभा के पिछले चुनाव से पहले कहा जा रहा था कि बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद मंदिर बन जाएगा। लेकिन अब यह साफ़ हो गया है कि संघ परिवार मंदिर मुद्दा को सिर्फ़ चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है। बीजेपी के लिए इससे अच्छी बात हो ही नहीं सकती है।
स्वरूपानंद फिर सक्रिय
बहरहाल, साधू समाज का एक दूसरा खेमा भी है जो संघ परिवार से अलग लाइन पर चलना चाहता है। कुंभ में ही साधू-संतों का एक अलग सम्मेलन द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद की अध्यक्षता में बुलाया गया। इस सम्मेलन में तय किया गया कि राम मंदिर का शिलान्यास 21 फ़रवरी को अयोध्या में किया जाएगा। स्वरूपानंद पहले से भी अलग रास्ता अपनाने के लिए मशहूर हैं और वह मंदिर निर्माण को राजनीति से दूर रखना चाहते हैं। केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद इस धड़े की आवाज़ कमज़ोर पड़ गयी थी। अब स्वरूपानंद फिर सक्रिय हो गए हैं।
एक बात बहुत साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से पहले राम मंदिर का निर्माण शुरू करना बहुत मुश्किल है। लेकिन संघ परिवार आम लोगों को लगातार भ्रम में रखना चाहता है कि मोदी और बीजेपी की सरकार ही मंदिर बनवाने में सक्षम है। इस बात को लेकर आम लोग 2014 के चुनावों से पहले जितना गंभीर थे, अब उतना गंभीर नहीं दिखायी दे रहे हैं।
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