विवाह से पहले का प्रेम आख़िर विवाह के बाद नफ़रत और तकरार में क्यों बदल जाता है? क्या विवाह के बाद पुरुष बदल जाता है? या फिर औरत बदल जाती है? या फिर युवा सपनों के बीच कोई "वो" आ जाती है? "वो" कौन है? कोई दूसरी स्त्री या पुरुष? लेकिन "वो" काम का बोझ या दफ़्तर का तनाव भी तो हो सकता है?
टूटने के कगार तक पहुंचते प्रेम विवाह की इसी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश करता है नाटक "जीने भी दो यारों"। महानगरों में दफ़्तर का तनाव, पति पत्नी के बीच सौतन की तरह बैठता जा रहा है। काम के लंबे घंटों और बेहतर रिज़ल्ट के दबाव में पत्नी कहीं पीछे छूट जाती है, अकेलापन किसी प्रेत की तरह उसका पीछा करने लगता है।
पति अपने दफ़्तर के तनाव में उलझता जाता है। विवाह संबंध के टूटने की शुरुआत यहीं कहीं से होती है। जाने माने निर्देशक ओम् कटारे ने इसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन एस डी) के रंग महोत्सव 24 में पेश किया। नाटक के लेखक भी कटारे हैं और एक भूमिका भी उन्होंने निभायी।
कहानी जितनी सरल है उतने ही सहज ढंग से उसके दृश्यों की रचना की गयी थी। इसलिए नाटक में दर्शक की दिलचस्पी लगातार बनी रही। चुटीले संवादों ने बार बार दर्शकों को ठहाका लगाने का मौक़ा दिया।
मुख्य तौर पर महज़ चार अभिनेताओं का यह नाटक लगातार एहसास दिलाता रहा कि संवादहीनता संबंधों के टूटने का बड़ा कारण है। चारों पात्रों, ओम् कटारे, प्रशांत उपाध्याय, शैली गायकवाड़ और आकांक्षा गुप्ता ने सहज अभिनय से पात्रों के साथ पूरा न्याय किया। पवन भाटिया का उमदा संगीत और अशोक शर्मा का प्रकाश संचालन, नाटक के तीसरे आयाम की तरह उभरे, जिससे मंच पर उत्सुकता लगातार बनी रही।
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