भाषा चुप्पियों के निर्जल जंगल की एक ख़ूबसूरत राह है। भाषा सुगंधित हवा है और शब्द महकते फूल हैं। हर लम्हे का अपना एक वीरानापन होता है। इस वीराने में शब्द ही चुपके से बहार लेकर आते हैं। शब्दों से लम्हों में क़रार आता है और लम्हा-लम्हा मिलकर उदासियों और निराशाओं की भीड़ को चीरकर एक अद्भुत सौंदर्य की उमंग को रचते हैं। ये शब्द ही हैं, जाने किस-किस भाषा से आकर हमारी भाषा की रूह में समा जाते हैं। ये शब्द नहीं आते तो शायद हमारी आवाज़ें ही गुमशुदा हो जातीं। आज ये ही शब्द हैं, जो हमारी ख़ामोशियों में लरज़ाँ हैं।

हमें कथित विदेशी शब्दों से ऐसा क्या परहेज़ है कि कुछ नए शब्द आते हैं तो उन पर विरोध शुरू हो जाता है? विदेशी शब्दों का विरोध क्या जायज है?
हर नागरिक को अपनी भाषा पर गर्व होता है। लेकिन भाषा का अपना एक मायाजाल है। वह जाने कहाँ से अस्पताल ले लेती है और कहाँ से क़लम उठा लाती है। जाने कहाँ से पानी आता है और कहाँ से चाय। कुछ लोगों को चीनी वस्तुओं से चिढ़ होती होगी; लेकिन वे न कंप्यूटर चिप का कुछ कर सकते और न चाय का। संतरा भी खाना होगा और मेज़ के बिना भी काम कहाँ चल सकता है। पाव भी खाएंगे और गाना भी गाएंगे। इस्तरी भी करेंगे और स्कूल भी जाना ही होगा। न स्टेशन के बिना काम चलेगा और न डॉक्टर के बिना।