भाषा चुप्पियों के निर्जल जंगल की एक ख़ूबसूरत राह है। भाषा सुगंधित हवा है और शब्द महकते फूल हैं। हर लम्हे का अपना एक वीरानापन होता है। इस वीराने में शब्द ही चुपके से बहार लेकर आते हैं। शब्दों से लम्हों में क़रार आता है और लम्हा-लम्हा मिलकर उदासियों और निराशाओं की भीड़ को चीरकर एक अद्भुत सौंदर्य की उमंग को रचते हैं। ये शब्द ही हैं, जाने किस-किस भाषा से आकर हमारी भाषा की रूह में समा जाते हैं। ये शब्द नहीं आते तो शायद हमारी आवाज़ें ही गुमशुदा हो जातीं। आज ये ही शब्द हैं, जो हमारी ख़ामोशियों में लरज़ाँ हैं।