रूस और उक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से बाहरी दुनिया को यह भ्रम है कि वहां सब कुछ युद्ध के इर्द गिर्द घूम रहा है। लेकिन एक वास्तविकता ये भी है कि जीवन का उत्सव वहां अब भी मौजूद है। वैसे एक कलाकार का जीवन भी युद्ध जैसा ही है। रूस से आया नाटक " क़ास्टिंग" कलाकार के जीवन में मौजूद इसी संघर्ष पर आधारित है। इसे भारतीय नाट्य विद्यालय (एन एस डी) के रंग महोत्सव में प्रस्तुत किया गया। कलाकार के जीवन में एक भयावह और एक उत्साह जनक अनुभव हमेशा मौजूद रहता है।
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निर्देशक लीका रुला ने कलाकारों के अनुभव को समेटने की कोशिश की है। वैसे यह संघर्ष तो हर आदमी के जीवन में मौजूद है। असफल होने का डर और चुनौती का सामना करने का उत्साह हर व्यक्ति में होता है। रूसी भाषा में होने के कारण संवाद को समझना तो मुश्किल होना ही था, लेकिन प्रस्तुति ने भाषा की दीवारों को तोड़ डाला। नाटक की अभिरचना रूसी बैले के तर्ज़ पर की गयी थी, इसलिए शुरू से अंत तक पूरे नाटक में दर्शकों की रुचि बनी रही।
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वैसे नाटक की कहानी बहुत साधारण लग सकती है क्योंकि इसमें सिर्फ़ यह दिखाने की कोशिश की गयी थी कि नाटक के पात्रों का चुनाव (क़ास्टिंग) किस तरह किया जाता है और अपने पात्र को जीवंत बनाने के लिए वो किस तरह संघर्ष करते हैं। नया पात्र मिलने पर वो बहुत साधारण तरीक़े से उस पात्र का अभिनय करने की शुरुआत करते हैं और धीरे धीरे उस पात्र को जीना शुरू कर देते हैं। इसमें असफल हो जाने का खीझ भी होता है और फिर नए सिरे से तैयारी का जद्दोजहद भी। रूसी नृत्य शैली बैले के माध्यम से भावनाओं को व्यक्त करने के कारण दर्शकों को नाटक से ज़्यादा बैले नृत्य का आनंद मिल रहा था।
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सोवियत संघ के दौरान रूसी बैले अक्सर देखने को मिल जाता था, लेकिन सोवियत संघ के टूटने के बाद यह सिलसिला धीमा पड़ गया। क़ास्टिंग को अभिनय और बैले नृत्य का बेजोड़ संगम कहा जा सकता है। एक समय पर सांस्कृतिक आदान प्रदान को पूरी दुनिया में बढ़ावा दिया जाता था, लेकिन अब यह सिलसिला भी कमज़ोर पड़ता जा रहा है। ऐसी स्थिति में एन एस डी के रंग महोत्सव के ज़रिए कुछ विदेशी नाटकों का आनंद लेना सुखद अनुभव है।
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