महानगरों की ज़िंदगी में अथाह भीड़ के बीच गुज़रना एक यथार्थ है, लेकिन इस भीड़ में भी आदमी अकेला होता है। यहां ख़ामोशी भी है, लेकिन युद्ध के नगाड़ों की गूंज भी सुनाई देती है। मैक्सिको में ड्रग माफ़िया और ग़ायब होने वाले लोग, कोलकाता में अध्यात्म और वर्ग संघर्ष, कोरिया का गृह युद्ध, कुल मिलाकर शहर दर शहर एक ऐसे युद्ध का एहसास होता है, जो मन के अंदर भी है और बाहर के आवरण में भी।
इटली की लेखिका निकोला पियानजोला ने दौड़ते भागते, गिरते उठते इन्हीं शहरों के ज़रिए आभासी दुनिया की तलाश करने की कोशिश की है। ये विशाल शहर किसी भी देश या भगौलिक क्षेत्र में हो सकते हैं। उन्हें सीमाएं और दीवारें अलग कर सकती हैं। वास्तविक होते हुए भी वो आभासी हो सकते हैं। इन्हीं शहरों के आत्मा की तलाश करने की कोशिश लेखक क़ेल्विनो ने अपनी रचना "इनविजिबल सिटीज" में की है। द ग्लोबल सिटी इसी से प्रभावित है।
इन्हें महानगरों में जीवन मूल्यों की तलाश भी कह सकते हैं। युद्ध भले ही कोरिया में हो, उसकी ताप नयी दिल्ली में भी महसूस की जा सकती है। मैक्सिको में ग़ायब लोगों की चीख़ कोलकाता में भी सुनाई दे सकती है।
द ग्लोबल सिटी का थीम हमारी आंतरिक दुनिया की यात्रा की तरह है। इसलिए इसे नाटक के रूप में पेश करना नितांत जटिल काम है। निर्देशक एना दोरा दोर्नो ने इस जटिल विषय को आधुनिक तकनीक का उपयोग करके सहज बनाने की कोशिश की।
ऐसे जटिल विषयों पर कभी कभी फ़िल्में तो बनी हैं, लेकिन मंच पर उतारना कठिन काम है, जिसे निर्देशक ने बख़ूबी अंजाम दिया। वैश्विकरण, भारी प्रतिस्पर्धा, बाज़ार के नए नियम और नवाचार के बीच मनुष्य के भीतर के द्वन्द्व, सांस्कृतिक प्रतिरोध और नए अवसरों के निर्माण को इटली के इंस्ताबिलि वागंनती नाट्य समूह के रंग कर्मियों ने मंच पर सजीव कर दिया। लेखक निकोला और निर्देशक एना भी कलाकारों में शामिल थीं।
अपनी राय बतायें