‘बिदेसिया’ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के युवा स्त्रियों की एक ऐसी त्रासदी है जो सैकड़ों साल पहले शुरू हुई और आज भी बदस्तूर जारी है। इस इलाक़े के बेरोज़गार युवक शादी के तुरंत बाद कमाने के लिए बड़े शहरों की तरफ़ निकल जाते हैं। उनमें से कुछ कभी वापस नहीं लौटते। गांव में बैठी उनकी पत्नी जीवन भर इंतज़ार करती रहती हैं। उनकी उपेक्षित ज़िंदगी, घोर ग़रीबी और विरह में बीतती है।
1950/60 के दशक में औरत के इसी दर्द को समेट कर भोजपुरी के मशहूर लेखक और अभिनेता भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया’ (विदेशिया) नाटक की रचना की। इसे बिहार के लोक नृत्य नाटक ‘नाच’ शैली में लिखा गया है। भिखारी ठाकुर का अपना नाच ग्रुप भी था। शादियों, और अन्य उत्सवों के साथ-साथ मेलों-ठेलों में भिखारी का ये नाटक बहुत चाव से देखा जाता था।
बार डांस अब गांव के मंच पर काबिज हो गया है। अब शादियों में डी जे ग्रुप का धमाल होता है। अस्सी - नब्बे के दशक में ही नाच लगभग समाप्त हो गया। नाटक निर्देशक संजय उपाध्याय ने वर्षों पहले ‘बिदेसिया’ को पुनर्जीवित करके उसे आधुनिक रंगमंच के अनुरूप बनाया।
गायन शैली में संवाद
बिदेसिया के ज़्यादातर संवाद गीत में निबद्ध हैं और इसके पात्र इसे लय में ही पेश करते हैं। बिदेसिया को मुख्यतः गांव के लोगों और शादी विवाह में प्रस्तुत करने के लिए लिखा गया था इसलिए इस गंभीर नाटक में भी हँसी ठिठोली की पूरी गुंजाइश रखी गयी है। बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश की नाच मंडलियों में ‘लौंडा नाच’ की पुरानी परंपरा है। इस शैली में पुरुष पात्र, औरतों के कपड़े, मुख्यतः साड़ी पहन कर नाचते हैं इसलिए इसे लौंडा नाच कहते हैं। संजय उपाध्याय ने इस शैली की झलक बरक़रार रखी है।
नाच में एक अन्य महत्वपूर्ण पात्र होता है लबार या जोकर। उसकी हास्य भरी प्रस्तुति दर्शकों को बांध कर रखती है। नाच शैली में संगीत का एक विशिष्ट स्थान होता है। कहानी को आगे बढ़ाने के लिए गायन और संवाद को प्रभावशाली बनाने के लिए ढोलक, तबला, हारमोनियम के साथ सारंगी जैसे वाद्य यंत्रों का बहुतायत से उपयोग होता है। संजय उपाध्याय ने नाच की इन विशेषताओं को उनकी बारीकी के साथ कायम रखा है।
अपनी राय बतायें