यहाँ हराम की खानेवाले हर हालत में हराम की ही खाते हैं। मेहनत की कोई गलती से भी उन्हें खिला दे तो बेचारों को दस्त लग जाते हैं। उन्हें किसी दिन खाने को न मिले तो वे भूखे रह जाएंगे मगर खाएंगे तो सिर्फ और केवल हराम की खाएंगे। वही इनको रुचता भी है और पचता भी है, चाहे उसमें कंकर- पत्थर मिले हों। अपने लिए बनाये उनके सारे नियम, सारे सिद्धांत जीवन में कभी न कभी टूट सकते हैं मगर यह सिद्धांत अटल है। इस मामले में उनका 'ईमान' कोई डिगा नहीं सकता। दुनिया की कोई ताक़त उन्हें उनके इस पथ से विचलित नहीं कर सकती। मर जाएंगे मगर हराम की खाकर रहेंगे, खाने की यह आन- बान- शान कभी मिटने नहीं देंगे।
न खाऊंगा, न खाने दूंगा घोषित करके खाओ तो और उत्तम!
- व्यंग्य
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- 6 Oct, 2024

हराम के खाने की कोई बाकायदा दुकान नहीं होती, कोई साइन बोर्ड नहीं होता, कोई रेट कार्ड नहीं होता, दिखाने लायक कोई पदार्थ नहीं होता। जो भी होता है, निराकार होता है। पढ़िए, विष्णु नागर का व्यंग्य...।
नियमों में कड़ाई सरकार इन्हीं के उत्थान के लिए करती है। नियम और भी अधिक कड़े इनके लिए ही किए जाते हैं ताकि ये जितना खा रहे हैं, उससे अधिक खाने की क्षमता अर्जित कर सकें। और एक दिन पूरा देश, पूरा भूमंडल खाकर दिखा सकें। गर्व से अपनी विजय पताका चहुंओर फहरा सकें। विश्व में आपका और हमारा नाम कर सकें।