जब ऑस्ट्रेलिया के अस्त्रालय होने का दावा किया जा सकता है तो फिर जम्बूद्वीप के जॉम्बीद्वीप होने का दावा क्यों नहीं किया जाता? ये दावा इसलिए नहीं किया जाता क्योंकि लोग जानते हैं कि जम्बूद्वीप पहले कभी जॉम्बीद्वीप नहीं था बल्कि 18-18 घंटे मेहनत के बाद अब बनाया गया है।
जिन्हें पता नहीं है उनके लिए बताता चलूँ कि जॉम्बी अफ्रीकी जनभाषाओं का एक प्रचलित शब्द है, जिसका अर्थ मृतात्मा होता है। अब ये शब्द पूरी दुनिया में व्यावहारिक तौर पर ऐसे लोगों के लिए प्रयुक्त होता है, जो जिंदा रहकर भी मरे हुए हैं। नरेंद्र मोदी निर्मित `आधुनिक भारत’ सच्चे अर्थों में जॉम्बीद्वीप है!
एक ऐसा भारत जहां की 80 करोड़ आबादी मुफ्त का राशन खाकर या मुफ्त में मिला राशन बेचकर गर्व करती है। जॉम्बी द्वीप का भविष्य इसी 80 करोड़ आबादी के हाथ में है। यही आबादी अब ओपिनियन मेकर है।
ये वही आबादी है, जो रेवड़ी बाँटने के खिलाफ नरेंद्र मोदी के जोशीले भाषण पर तालियां बजाती है और हर महीने 2100 रुपये मिलने के वादे पर ईवीएम का बटन दबाती है। महाराष्ट्र विजय के बाद हर महीने 2100 रुपये की जो रिश्वत दी जानी है, उसकी वसूली टोल, जीएसटी और दूसरे टैक्स बढ़ाकर की जाएगी। अब ताली बजाने की बारी मिडिल क्लास की है।
मिडिल क्लास मुफ्त का राशन नहीं खाता है। उसका काम व्हाट्स एप पर सुबह-शाम मिलने वाले मुसलमान से चल जाता है। राष्ट्र निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका इसी मिडिल क्लास की है। आँकड़े बताते हैं कि इनकम टैक्स कलेक्शन कॉरपोरेट टैक्स के मुक़ाबले दोगुना हो चुका है।
इनकम टैक्स कौन देता है? क्या क्लीनिक खोलकर नोट छापने और दवा कंपनियों से कमीशन खाने वाले डॉक्टर इनकम टैक्स देते हैं? क्या कामयाब प्रोफेशनल, करोड़पति ठेकेदार, अपनी एक बहस के लिए मोटी फीस लेने वाले वकील इनकम टैक्स देते हैं?
ये लोग अपनी वास्तविक आमदनी के चौथाई हिस्से पर भी इनकम टैक्स नहीं देते क्योंकि इनके पास टैक्स बचाने के पर्याप्त रास्ते हैं। नौकरीपेशा मिडिल क्लास के पास ऐसा कोई रास्ता नहीं है। वो तो सरकार का एटीएम है।
सैलरी आने से पहले ही टेटुआ दबाकर सरकार तीस परसेंट तक इनकम टैक्स अलग रखवा लेती है। अगर जीएसटी, टोल वगैरह को भी शामिल कर लें तो नौकरी पेशा व्यक्ति लगभग आधी सैलरी सरकार के हवाले कर देता है। नीरव मोदी और मेहुल चौकसी सरीखे लोग अगर घोटाला करके भाग जायें तो उस पैसे की भरपाई भी बैंक एटीएम ट्रांजेक्शन फीस बढ़ाकर इसी मिडिल क्लास से करते हैं।
मिडिल क्लास को इतना सब करने के बाद मिलता क्या है? सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं की हालत इतनी खराब कर दी गई है कि कोई मिडिल क्लास आदमी वहां अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकता। उसे इस बात के लिए विवश किया जाता है कि वो अपने बच्चों को नेता-अफसर गठजोड़ से बने निजी शिक्षा संस्थानों में दाखिल कराये, जहां सामान्य ग्रेजुएशन की डिग्री एक नये नाम से लाखों रुपये में बेची जाती है। लाखों वाली डिग्री लेकर बच्चा निजी संस्थान से बाहर आता है तो उसे पता चलता है कि इस साल तो आईआईटी मुंबई तक से चार लाख की सालाना सैलेरी पर प्लेसमेंट हुआ है।
स्वास्थ्य सेवाओं का भी यही हाल है। फिर भी मिडिल क्लास वाले खुश हैं। उनके लिए संतुष्ट होने का पैमाने यही है कि वो इंश्योरेंस के पैसे महंगे अस्पताल में भर्ती हो रहे हैं और उनके बच्चे प्राइवेट इंस्टीट्यूशन में पढ़ रहे हैं जबकि ज्यादातर लोग ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि मिडिल क्लास वाला आदमी कभी दुखी नहीं होता। लेकिन उसे याद दिलाया जाता है कि और कुछ हो ना हो मुसलमानों की पिटाई तो ठीक चल रही है। जॉम्बीद्वीप का मध्यमवर्गीय आदमी ये सुनकर झटपट अपने आंसू पोंछ लेता है।
जॉम्बीद्वीप की दादाजी वाली पीढ़ी राष्ट्र निर्माण में किसी से पीछे नहीं है। वो तगड़ा सरकारी पेंशन उठाती है, उससे बढ़िया स्मार्ट फोन खरीदती है और फिर व्हाट्स एप मैसेज फारवर्ड करके सबको बताती है कि सत्तर साल में इस देश में कुछ भी नहीं हुआ है। जॉम्बीद्वीप के लोगों को मीडिया लोरी सुनाता है और न्यायपालिका उनके मनोरंजन के लिए सांप्रादायिक दंगों का मार्ग प्रशस्त करता है। बेशक मोदीजी 18-18 घंटे काम कर रहे हैं लेकिन जॉम्बीद्वीप के निर्माण का क्रेडिट सबको बराबर मिलना चाहिए।
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