सन् 2019 की गर्मियों में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने संसदीय चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल करके नरेंद्र मोदी की अगुवाई में दूसरी बार अपनी सरकार बना ली। लेकिन कुछ ही महीने बाद दिसम्बर की सर्दियों में झारखंड जैसे अपेक्षाकृत छोटे लेकिन राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य ने मोदी-शाह की बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर दिया।

इस बार 81 सीटों वाली झारखंड विधानसभा के चुनाव में मोदी-शाह ने झारखंड के लिए ‘65-पार’ का नारा दिया था। पर झारखंड की अवाम ने बीजेपी को महज 25 पर सीमित कर दिया। रघुबर दास हमेशा ‘गुजरात मॉडल’ की बात करते रहते थे पर सरयू राय सहित पार्टी में कइयों को यह बात हजम नहीं होती थी कि झारखंड जैसे बिल्कुल अलग स्वरूप वाले प्रदेश में कथित ‘गुजरात मॉडल’ को कैसे और क्यों लागू किया जाना चाहिए?
कैब-एनआरसी का विरोध सिर्फ़ मुसलमानों तक सीमित नहीं
झारखंड का चुनाव ऐसे दौर में हुआ, जब पूरे देश में बेहद विवादास्पद नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी को लेकर हंगामा मचा हुआ था, जो आज भी बरक़रार है। भारतीय जनता पार्टी और केंद्र एवं राज्यों की उसकी सरकारों, ख़ासकर यूपी और कर्नाटक सरकारों ने ‘सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन’ को सिर्फ़ ‘मुसलिम-विरोध’ या ‘मुसलमानों की खुराफात’ के तौर पर पेश करने की भरपूर कोशिश की। इसमें मुख्यधारा मीडिया के बड़े हिस्से, ख़ासकर न्यूज़ चैनलों का भी सत्ताधारी खेमे को साथ मिला।
झारखंड के चुनावी माहौल में इस मुद्दे को ‘हिन्दू-मुसलिम’ में तब्दील करने की कोशिश की गई ताकि सत्ताधारी दल के पक्ष में ‘हिन्दू-ध्रुवीकरण’ कराया जा सके। यह महज संयोग नहीं कि निवर्तमान मुख्यमंत्री रघुबर दास की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार के बीते पाँच सालों के दौरान झारखंड में धार्मिक विद्वेष-आधारित अपराध (‘हेट-क्राइम’) में भारी बढ़ोतरी हुई। ऐसे अपराधों में आमतौर पर ओबीसी या अति पिछड़ी जातियों के बेरोज़गार और अपढ़ क़िस्म के युवाओं की शिरकत देखी गई। बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने सारी राजनीतिक मर्यादा और मानवीय नैतिकता ताक पर रख ऐसे अभियुक्तों और आपराधिक तत्वों का खुलेआम संरक्षण भी किया। रामगढ़-हजारीबाग इलाक़े में मॉब लिंचिंग के नामजद अभियुक्तों को पिछले दिनों जब जमानत मिली और वे जेल से छूट कर आए तो पूर्व केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के मौजूदा स्थानीय सांसद जयंत सिन्हा ने मिठाई खिलाई और माल्यार्पण किया, मानो वे कोई वीरतापूर्ण काम करके लौटे हों!