हैदराबाद बलात्कार-हत्या और मुठभेड़ कांड के बाद देश में अपराध और सज़ा का एक ‘खास विचार’ धड़ल्ले से प्रचारित किया जा रहा है। इस विचार के प्रचार-प्रसार में मंत्री से संतरी, संपादक से सांसद और आम लोग तक शामिल दिख रहे हैं। अब से सात साल पहले दिल्ली के निर्भया-कांड के समय भी इस तरह के विचार आए थे।
उसी निर्भया-कांड और तेलंगाना के मौजूदा कांड का हवाला देकर आज कुछ हलकों में शिद्दत से कहा जा रहा है कि ‘बलात्कार के अभियुक्तों को तुरंत सजा मिलनी चाहिए या कि उन्हें भीड़ के हवाले कर देना चाहिए! दिल्ली के निर्भया-कांड की तरह सज़ा के लिए कोर्ट-कचहरी का इंतजार नहीं करना चाहिए। इसमें काफी समय लग जाता है और कई बार अभियुक्त बरी भी हो जाते हैं। तुरंत सज़ा न होने से ही अपराध पर अंकुश नहीं लगता। अगर तुरंत सज़ा दे दी जाय तो समाज में अपराध नहीं होंगे।’
सरकार की सहमति से मुठभेड़?
तेलंगाना के एक वरिष्ठ मंत्री ने तो सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया कि बीते शुक्रवार को बलात्कार-हत्या के चारों अभियुक्तों के साथ जो कुछ हुआ, उसे ‘राज्य सरकार के शीर्ष’ का समर्थन प्राप्त था। यानी कहा जा सकता है कि तेलंगाना सरकार की सहमति या इच्छा से चारों को पुलिस ने मुठभेड़ में मार डाला। गोवा के एक मंत्री ने भी ऐसे अभियुक्तों को फौरन सज़ा देने का समर्थन किया है।सिर्फ राज्यों से ही ऐसी आवाजें नहीं उठी हैं-संसद में भी ‘तुरंता सजा (न्याय)’ को कई तरफ से समर्थन मिला। मुठभेड़ कांड से महज कुछ घंटे पहले संसद में कई सांसदों ने, जिनमें कुछ महिला सांसद भी शामिल रहीं, हैदराबाद बलात्कार-हत्याकांड के अभियुक्तों को ‘लिंच’ करके ख़त्म करने जैसे सुझाव दे डाले।
'तुरंता न्याय' का सुझाव देने वालों में सिर्फ सत्ता पक्ष के ही सांसद नहीं थे, विपक्षी-समाजवादी और कांग्रेसी भी थे। इनमें कुछ फ़िल्म और कला से जुड़े रहे सांसद भी थे। संसद से बाहर आम आदमी पार्टी और बसपा जैसी पार्टियों के कुछ प्रमुख नेताओं ने भी ‘तुरंता न्याय’ के विचार का समर्थन किया था।
‘तुरंता न्याय’ के ख़तरे
‘तुंरता न्याय’ की धारणा कोई नयी नहीं है। भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में यह रही है और कई देशों में आज भी है। हमारे यहाँ तमाम पौराणिक आख्यानों में ऐसे ‘तुरंता न्याय’ के बहुत सारे दृष्टांत मिलते हैं। इनसे पता चलता है कि प्राचीन या मध्य काल में किसी संभ्रांत या अपने दरबारी ओहदेदार की शिकायत पर राजा किसी कसूरवार बताये व्यक्ति को तुरंत सजा दे दिया करता था।दुनिया के कई राजशाही आधारित मुल्कों में आज भी अपराध और दंड के विधान प्रमुखतः राज-केंद्रित हैं। सऊदी शहर रियाद में तो बाक़ायदा एक चौराहे पर ‘बुरे अपराधों’ में लिप्त बताए लोगों को सबके सामने सज़ा देने का रिवाज है। पर लोकतांत्रिक-संवैधानिक तंत्र द्वारा शासित हमारे जैसे देशों में ऐसे ‘तुरंता न्याय’ या सार्वजनिक स्थलों पर सजा देने जैसी मध्ययुगीन प्रथा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर कैसी विडम्बना है, कुछ लोग आज उसी तरह की व्यवस्था की माँग कर रहे हैं, वह भी संसद और विधानमंडलों के अंदर से भी ऐसी माँगें उठा रहे हैं। ऐसे लोग कह रहे हैं कि कुछ नृशंस अपराधों में इसका प्रयोग शुरू होना चाहिए, जैसा तेलंगाना में हुआ है।
चलिए, थोड़ी देर के लिए हम संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था के अपने सभ्य, विधिक और मानवोचित आचरण की प्रतिबद्धता को भुला देते हैं और अपने से ही सवाल करते हैः
- ‘क्या तुरंता न्याय या सज़ा के रिवाज से अपराध कम या ख़त्म हो जायेंगे?’
- ‘फिर मध्ययुगीन या उससे पहले के समाजों में अपराध क्यों होते थे?’
- जिन चंद निरंकुश या तानाशाही व्यवस्था वाले देशों में आज भी ‘तुंरता न्याय’ या ‘सज़ा की व्यवस्था’ है, क्या वहां अपराध नहीं होते या बहुत कम होते हैं?
सऊदी अरब-कंबोडिया के उदाहरण
इन तीनों सवालों के जवाब संसद से सड़क तक ‘तुरंता न्याय’ या ‘मनमाफिक तत्काल सजा’ के पक्ष में आवाज उठाने वालों को निराश करते हैं। ‘तुरंता न्याय’ देने के अधिकार से लैस सऊदी अरब के सत्ता-संचालक अपनी इच्छानुसार एक वरिष्ठ पत्रकार जमाल खशोगी को अपने ही एक दूतावास में ही ‘सज़ा’ दिला देते हैं। बाद में उनके शरीर के कुछ टुकड़ों की शिनाख्त होती है। उनका अपराध क्या रहा? ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के एक पत्रकार के तौर पर उन्होंने अपने लेखों में सऊदी सरकार की कतिपय नीतियों की आलोचना करने का साहस दिखाया।ऐसे ‘तुरंता दंड विधान’ में किसी बलात्कारी को ही फौरन सज़ा नहीं होती, किसी अच्छे और ईमानदार लेखक, संत या सेवक की भी सज़ा के नाम पर हत्या हो सकती है और उस सज़ा का आधार सिर्फ इतना सा होगा कि सज़ा देने का अधिकारी किसी ख़ास व्यक्ति को नापंसद करता है!
कंबोडिया के पूर्व तानाशाह पोल-पोट के शासन में न जाने कितनों को मौत के घाट उतारा गया। उन्हें ‘तुरंता दंड विधान’ के तहत सज़ा दी गई, क्योंकि तानाशाह या उसकी पुलिस या सेना का कोई बड़ा अधिकारी किसी व्यक्ति-विशेष को ख़त्म करने के हक़ में था।
सभ्य-जनतांत्रिक कहे जाने वाले मुल्कों का हाल देख लीजिए। ‘विकीलीक्स’ के बहुचर्चित संस्थापक जूलियन असांज पर अमेरिका के इशारे पर स्वीडन में बलात्कार का एक मामला बीते कई वर्षों से उनका पीछा कर रहा है। विकीलीक्स द्वारा किए कई बेहतरीन पर्दाफाशों के बाद असांज को अभियुक्त बनाया गया और उन्हें कई साल लंदन स्थित इक्वाडोर दूतावास में शरण लेनी पड़ी। सात साल की शरण के बाद उन्हें लंदन पुलिस ने अंततः गिरफ्तार किया।
‘तुरंता न्याय’ या संवैधानिक शक्ति-संपन्न न्यायालय के बगैर स्थापित कोई निरंकुश दंड प्रक्रिया किसी भी देश में सुसंगत, सभ्य और अपराध-मुक्त समाज का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकती।
अपराध-मुक्त समाजों का सच!
अगर यूरोप और एशिया के कई मुल्कों में आज अपराध कम हैं तो इसलिए कि वहाँ एक अपेक्षाकृत प्रौढ़ शासन तंत्र है, पारदर्शी और सुसंगत न्याय-व्यवस्था है, समाज में विषमता, उत्पीड़न, भेदभाव और अन्याय को काफी हद तक कम किया गया है। ऐसे मुल्कों में डेनमार्क, ऑस्ट्रिया, स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी, नार्वे, स्वीडेन, फ्रांस, आइसलैंड, जापान, लक्जमबर्ग, सिंगापुर और फिनलैंड आदि शामिल हैं।सामंती उत्पीड़न का सच!
पर अपने भारतीय समाज में तो विषमता, सामंती उत्पीड़न, भेदभाव, लूटखसोट और अन्याय का स्तर भयावह स्तरों को छू रहा है। शिक्षा और रोज़गार की समस्या विकराल होती जा रही है। हमारी सरकारों को लोगों को सही मायने में शिक्षित, सभ्य, सुसंस्कृत बनाने में कोई रुचि नहीं है। अगर समाज और सत्ता के गणमान्य लोग ही आपराधिक मनोवृत्ति के या वैसी मनोवृत्ति को बढ़ावा देने वाले होंगे और लोगों का मंदिर-मसजिद के विवादों, गोरक्षा के नाम पर हिंसक होने, ‘कब्र से निकालकर बलात्कार कराने’ या लिंचिंग जैसी आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने का अपने समर्थकों का आह्वान करते रहेंगे तो हमारा समाज अपराध मुक्त, सभ्य और सुसंगत कैसे बनेगा?अपराध-मुक्त समाज हासिल करने के लिए आपराधिक-मानसिकता की पैदावार बढ़ाने वाली समाज की ज़हरीली ज़मीन को बदलना होगा। क्या इस बारे में गंभीर मंथन के लिए संसद से सड़क तक बेसुरी और बेतुकी आवाज़ उठाने वाले लोग तैयार हैं? हम अपराध पर नियंत्रण सिर्फ़ अपने न्यायिक तंत्र का आकार बढ़ाकर या जल्दी जल्दी फैसले करा कर ही नहीं कर सकते!
न्यायिक तंत्र के साथ ही समाज को भी बदलना होगा। उसे ज्यादा न्यायिक, समतामूलक, शिक्षित और सौम्य बनाने की कोशिश करनी होगी। क्या हमारे सत्ताधारी समाज को इसके ठीक उलट दिशा में नहीं ले जा रहे हैं?
बेतुकी-बेसुरी आवाज़ो के बीच समाज-संविधान पर मंडराता खतराअपराध-मुक्त समाज के लिए तेलंगाना पुलिस के ‘तुरंता न्याय’ या ‘सज़ा’ के मॉडल के पक्ष में संसद से सड़क तक यह शोर ऐसे वक़्त मचा है, जब हमारी मौजूदा सत्ता संविधान पर सबसे बड़े हमले की तैयारी कर रही है। केंद्रीय कैबिनेट ने नागरिकता संशोधन का एक ख़तरनाक प्रारूप मंजूर कर लिया है, उसे अगले सप्ताह ही संसद में रखा जाना है। पर देश को इस वक्त एक अन्य मसले पर तीखी बहस में उलझा दिया गया है कि बलात्कार के अभियुक्तों के साथ कैसा और किस तरह निपटा जाना चाहिए! विडम्बना ये कि निपटने के तरीके के प्रयोग में भी यह विमर्श ‘सलेक्टिव’ नजर आ रहा है। उन्नाव के दोनों बलात्कार कांडों और शाहजहांपुर कांड के बारे में सत्ताधारी खेमा और उनके समर्थक ऐसा शोर क्यों नहीं मचाते?
पुलिस का समर्थन
यह भी कम विसम्यकारी नहीं कि तेलंगाना मुठभेड़ कांड की गूंज कुछ ही घंटे के अंदर पूरे देश में सुनी गई। देश के प्रमुख न्यूज़ चैनलों, खासकर हिन्दी चैनलों पर कई शहरों के एक जैसे फुटेज की भरमार देखी गई। महिलाओं को पुलिस के पक्ष में नारेबाजी करते, पुलिस वालों को मिठाई खिलाते या राखी बांधते दिखाया जाने लगा। हैदराबाद की इस घटना पर नोएडा के फिल्म सिटी स्थित न्यूज चैनलों के स्टूडियो जैसी चीखू-बहसें गाज़िया बाद से सादियाबाद और कानपुर से नागपुर तक सुनी जाने लगीं। लोगों को सड़कों पर उतार कर टीवी के एंकर-रिपोर्टर इंटरव्यू करने लगे। पूरा देश इसी महा-विमर्श में उलझ गया कि बलात्कार के बाद अभियुक्तों को फौरन मार डाला जाय, इससे बलात्कार रुकेंगे। समाज अपराध-मुक्त होगा! टीवी चैनलों पर लोगों को खुलेआम यह कहते दिखाया गया कि ऐसे अभियुक्तों को भीड़ के हवाले कर ‘लिंच’ कर दिया जाय! संसद में पहले ही ऐसा कहा जा चुका था। सड़क पर भी ऐसी बातों को दोहराया जा रहा था।मुठभेड़-समर्थक अभियान
हैदराबाद से चलकर अचानक राष्ट्रव्यापी बने मुठभेड़-समर्थक अभियान के सार्वजनिक प्रदर्शन में एक तरह का नियोजन दिखा। मुझे तो यह काफी कुछ ‘गणेश जी’ को दूध पिलाती भीड़ जैसा लगा, जिसे कुछ साल पहले पूरे देश ने टीवी चैनलों पर देखा था। उस समय आज की तरह सैकड़ों चैनल नहीं थे। मजे की बात है, एक तरफ दलील दी जाती रही कि मुठभेड़ में अभियुक्तों को फौरन मार डालने से अपराध खत्म होंगे या उनमें कमी आएगी। लोगों में डर पैदा होगा।उसी रात दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में उन्नाव की लड़की ने दम तोड़ दिया, जिसे एक दिन पहले जली हालत में भर्ती कराया गया था। उसे भी सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया गया और फिर जलाया गया ताकि सबूत ही न बचे! ‘रामराज’ की तरफ मुखातिब उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में इन दिनों बलात्कार के बाद लड़कियों को जलाने का सिलसिला सा देखा जा रहा है। इनके ताकतवर अभियुक्तों को सत्ताधारी भाजपा नेताओं का खुला समर्थन रहा है।इस लड़की को बलात्कार के बाद मार डालने की नीयत से आग के हवाले करने वाले चारों अभियुक्त यूपी की सत्ताधारी पार्टी के समर्थक बताए गए हैं।
सत्ताधारी पार्टी के सांसद और पार्टी कार्यकर्ता इस नये उन्नाव कांड पर उसी तरह खामोश हैं, जैसे वे कुछ समय पहले के उन्नाव-कांड पर खामोश थे, जिसमें सत्ताधारी पार्टी के विधायक कुलदीप सेंगर ने बलात्कार की शिकार हुई युवती के परिजनों की हत्या कराने के कथित षडयंत्र के बाद उस लड़की की भी हत्या करानी चाही थी।
शाहजहांपुर के एक अन्य मामले में वरिष्ठ भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय गृह राज्यमंत्री स्वामी चिन्मयानंद को बचाने की अंतिम दम तक कोशिश की गई। फ़िलहाल वह जेल में हैं, पर बलात्कार की कथित शिकार उस लड़की को भी जेल में डाल दिया गया था, जिसे कुछ ही दिनों पहले ज़मानत मिली है। वह अपनी जान बचाने के लिए भागी-भागी फिर रही है।
अंधेरे में रौशन आवाजें
ऐसे दौर में जब संसद से सड़क तक बेतुकी, बर्बर और बेसुरी आवाजें सुनते-सुनते संजीदा लोग हैरान थे, अंधेरे में रोशनी दिखाती कुछ आवाजें भी आई हैं। सबसे पहली आवाज आई, तेलंगाना हाईकोर्ट से। न्यायालय ने मुठभेड़-मामले की जांच का संकेत देते हुए राज्य सरकार को हुक्म दिया है कि कथित मुठभेड़ में मारे चारों अभियुक्तों के मृत शरीर को 9 दिसम्बर तक सुरक्षित रखा जाय। उनके पोस्टमार्टम की वीडियोग्राफी हो और उसे कोर्ट के सामने पेश किया जाय।इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे ने शनिवार को जोधपुर के एक कार्यक्रम में कहा कि इंसाफ अगर बदले की कार्रवाई में बदला तो वह अपना चरित्र खो देगा। साथ ही उन्होंने किसी घटना या हैदराबाद मुठभेड़ कांड का उल्लेख किए बगैर कहा कि न्याय कभी ‘तुरंता’ नहीं हो सकता! इससे आशा जगती है कि समाज और हमारी व्यवस्था में संजीदा और सुंसगत आवाजें जिंदा हैं, जो सामंती सोच से लैस किसी भी सत्ता और निहित स्वार्थों के नापाक गठबंधन से जूझने में सक्षम हैं।
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