स्वामी विवेकानंद देश के महानतम प्रज्ञापुरुष थे। उनका जन्म 12 जनवरी, 1863 को कोलकाता में हुआ था। पश्चिम बंगाल के बेलुड़ मठ में 4 जुलाई, 1902, को ध्यानावस्था में उन्होंने आखिरी सांस ली थी। महज 39 साल की उम्र में वह इस दुनिया से विदा हो गए थे।
दिनकर ने क्या कहा था स्वामी जी पर?
कोलकाता (उस समय के कलकत्ता) में 12 जनवरी, 1863 को जन्मे स्वामी विवेकानंद का कहना था कि युवा राष्ट्र की असली शक्ति हैं। राष्ट्रीय कवि दिनकर ने स्वामी विवेकानंद के बारे में कहा था, ‘विवेकानंद वह समुद्र हैं जिसमें धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता तथा उपनिषद और विज्ञान सब के सब समाहित होते हैं।’“
‘देश के 33 करोड़ भूखे, (उस वक़्त देश की आबादी) दरिद्रता और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए।’
स्वामी विवेकानंद
ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़
उन्होंने अपनी किताबों और भाषणों में पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकांड और रूढ़ियों की जमकर आलोचना की और आक्रामक भाषा में ऐसी विसंगतियों के ख़िलाफ़ हल्ला बोला। उनका कहना था,“
‘जब पड़ोसी भूखों मरता हो तब मंदिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं पाप है। जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो तब हवन में घृत डालना अमानुषिक कर्म है।’
स्वामी विवेकानंद
सांप्रदायिकता पर विवेकानंद के विचार
साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता के बारे में उनके विचार थे, ‘साम्प्रदायिक हठधर्मिता और उसकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुंदर धरती पर बहुत समय तक राज कर चुकी है। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही, उसको बार-बार मानवता के रक्त से नहलाती रही है। सभ्यताओं को विध्वंस करती और पूरे-पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि वे वीभत्स और दानवी न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता।’“
‘अगर कोई इसका ख़्वाब देखता है कि सिर्फ उसी का धर्म बचा रह जाएगा और दूसरे सभी नष्ट हो जाएंगे तो मैं अपने दिल की गहराइयों से उस पर तरस ही खा सकता हूँ। जल्द ही सभी झंडों पर, कुछ लोगों के विरोध के बावजूद यह अंकित होगा कि लड़ाई नहीं दूसरों की सहायता, विनाश नहीं मेलजोल, वैमनस्य नहीं बल्कि सद्भाव और शांति।’
स्वामी विवेकानंद
भारतीय होने पर गर्व
विवेकानंद को अपने भारतीय होने पर बेहद गर्व था। भारतीयों के गुणों का बखान करते हुए उन्होंने कहा था, ‘हम भारतीय केवल सहिष्णु ही नहीं हैं। हम सभी धर्मों से स्वयं को एकाकार कर देते हैं। हम पारसियों की अग्नि को पूजते हैं। यहूदियों के सिनेगॉग में प्रार्थना करते हैं। मनुष्य की आत्मा की एकता के लिए तिल-तिलकर अपना शरीर सुखाने वाले महात्मा बुद्ध को हम नमन करते हैं। हम भगवान महावीर के रास्ते के पथिक हैं। हम ईसा की सलीब के सम्मुख झुकते हैं। हम हिन्दू देवी देवताओं के विश्वास में बहते हैं।’“
'मैं अपने मानस नेत्रों से देख रहा हूं कि आज के संघात और बवंडर के अंदर से एक सही और अपराजेय भारत का आविर्भाव होगा, वेदांत का मस्तिक और इसलाम का शरीर लेकर।’
स्वामी विवेकानंद
दुनिया का भ्रमण
विवेकानंद ने न सिर्फ पूरे भारत को क़रीब से देखा था, बल्कि दुनिया के कई देशों मसलन जापान, चीन, इंग्लैंड, अमेरिका और यूरोप के कई देशों की भी यात्राएँ की थीं। अमेरिका स्थित शिकागो में साल 1893 में आयोजित ‘विश्व धर्म महासभा’ में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। स्वामी विवेकानंद की वक्तव्य शैली और ज्ञान को देखकर वहां की मीडिया भी हैरान रह गई और उसने उन्हें ‘साइक्लॉनिक हिंदू’ का ख़िताब दिया था।धारा के ख़िलाफ़
भारतीय राष्ट्रवाद की नदी में बहते हुए विवेकानंद एक प्रतिधारा की तरह थे। उन्होंने प्रचलित, पारम्परिक और ऐतिहासिक विचारधाराओं के ख़िलाफ़ हमेशा संघर्ष किया। स्वामी विवेकानंद ऐसे पहले शख्स थे जिन्होंने देश में पिछड़ी जातियों के राज की ऐतिहासिक भविष्यवाणी की थी। अस्पृश्यता का विवेकानंदीय अनुवाद है ‘मतछुओवाद‘।वे कटाक्ष करते हैं, ‘वेदान्त के इस देश में जहाँ मनुष्य की नैसर्गिक आध्यात्मिकता और समानता का दर्शन ईजाद किया गया, वहां अस्पृश्यता की बीमारी एक सामाजिक लक्षण के रूप में अट्टहास करती रहती है।’
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