राजनीति का स्तर जिस तेज़ी से स्खलित होते जा रहा है, वैसे में अब उससे किसी भी तरह की सांस्कृतिक संस्कारी आचार संहिता का पालन करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। राजनीति दिशाहीन, सिद्धांत-विहीन हो गई है। पद और सत्ता का लालच राजनीतिक पार्टियों का अंतिम लक्ष्य हो गया है। आज जिस तरह से राजनीतिक पार्टियाँ राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव की सांध्य बेला पर सांसदों की अफरा-तफरी और विधायकों की खरीद-फरोख्त मैं मशगूल हो रही हैं, जातिवाद, अवसरवाद, पद लोलुपता सिर चढ़कर बोलने लगी है, वैसे में निश्चित तौर पर लोकतंत्र शर्मिंदा होकर खंडित होने लगा है।
संविधान की निर्मात्री सभा के सपने चूर चूर हो रहे हैं। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छे दूरगामी परिणामों के संकेत नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जी ने कहा था कि लोकतंत्र या प्रजातंत्र शब्द ग्रीक भाषा से अवतरित अंग्रेजी शब्द डेमोक्रेसी का हिंदी रूपांतरण है, जिसका सीधा सीधा अर्थ होता है प्रजा अथवा जनता द्वारा परिचालित शासन व्यवस्था। किंतु अमेरिकी पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की परिभाषा सर्वमान्य रूप से प्रचलित है जिसके अनुसार “प्रजातंत्र या लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा, शासन है।” उन्होंने इस कथन के तर्क में कहा, “क्योंकि मैं गुलाम नहीं होना चाहता, इसीलिए मुझे शासक भी नहीं होना चाहिए, यही विचार मुझे लोकतंत्र की ओर अग्रेषित करता है।”
पर लखीमपुर खीरी, सिंघु बॉर्डर और जशपुर, भोपाल में हिंसक घटनाओं को देखते हुए लगता है कि सारी की सारी लोकतांत्रिक व्यवस्था चरमरा गई है और समस्त प्रतिमान धराशायी हो गए हैं। लखीमपुर खीरी की वीभत्स घटना जिसमें 7 लोगों को वाहन से रोड पर कुचल कर मार दिया गया, इनमें से कुछ लोगों को भीड़ ने पीट-पीटकर ही मार दिया, एक बेचारा निर्भीक पत्रकार इस हिंसा की बलि चढ़ गया। सिंघु बॉर्डर में कुछ निहंगों ने एक निर्दोष व्यक्ति की पीट पीट कर हत्या कर दी। जशपुर में भीड़ पर गाड़ी चला कर कुछ लोगों की कुचल कर हत्या कर दी गई। महाराष्ट्र में तख्तापलट एवं अन्य राज्यों में सत्ता को हिलाने की कोशिश लोकतंत्र से खिलवाड़ करने की सबसे घटिया कार्रवाई मानी जाएगी।
अफगानिस्तान में तालिबानी आतंकवादियों द्वारा कब्जे के बाद वैश्विक अशांति का दौर चल रहा है, रूस यूक्रेन युद्ध औपनिवेशवाद और विस्तारवादी मंसूबों का परिणाम ही है। इसके अलावा अधिकांश लोकतांत्रिक देश इस अशांति से भयभीत और घबराए हुए हैं और अपनी आंतरिक सुरक्षा को मज़बूत करने में लग गए हैं।
तालिबान आतंकवादियों द्वारा अफगानिस्तान पर कब्जे से तालिबानी सोच पूरे विश्व में धीरे-धीरे फैलने लगी है। खासकर लोकतांत्रिक देश जहाँ बोलने, सुनने, कहने और अपनी मनमर्जी करने की आजादी है, वहां लोकतंत्र का फायदा उठाकर कुछ असामाजिक तत्व हिंसा का घिनौना खेल खेलने से नहीं चूक रहे हैं।
बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं के दुर्गा पंडाल पर हमला कर दिया जाता है, यह तालिबानी सोच का सबसे बड़ा उदाहरण है। पाकिस्तान में सिखों को चुन-चुन कर मारा जाना भी इसी सोच का परिणाम है।
लखीमपुर खीरी में बवाल मचाने वाले अनेक नेता जम्मू कश्मीर में अल्पसंख्यकों के जघन्य हत्याकांड पर अजीब तरीके से चुप हैं और उनकी सहानुभूति के लिए एक शब्द उनके मुंह से नहीं निकल रहे हैं। आज हर व्यक्ति, हर पार्टी, हर समूह के लिए लोकतंत्र के मायने अलग-अलग हैं। जब तक इनका उल्लू सीधा होता रहता है तब तक यह लोकतंत्र की दुहाई देते हैं, इनका स्वार्थ सधने के बाद लोकतंत्र हवा में वाष्पित हो जाता है।
भारत जैसे विशाल देश को विश्व में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश माना जाता है, इस देश में जिसकी मूल आत्मा ही लोकतंत्र है, यहीं पर यदि लगातार अलोकतांत्रिक घटनाएँ होती रहेंगी और अलोकतांत्रिक व्यवहार दर्शित होता रहेगा तो लोकतंत्र की मूल भावना न सिर्फ आहत होगी बल्कि गायब भी होना शुरू हो जाएगी। यहीं से लोकतंत्र के स्खलन की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।
हम सारी अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों पर गंभीरता के साथ विचार करें, तो पाएंगे कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन्मी समस्याओं के पीछे शासन तंत्र नहीं बल्कि जनता के बड़े वर्ग का नेतृत्व करने वाले समूह इसके लिये ज़िम्मेदार है। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था कि जो लोग शासन करते हैं, उन्हें देखना चाहिए कि लोग प्रशासन पर किस तरह प्रतिक्रिया जाहिर करते हैं, क्योंकि लोकतंत्र की मुखिया जनता ही होती है। शास्त्री ने ये भी कहा था, ‘कानून का सम्मान किया जाना चाहिए ताकि हमारे लोकतंत्र की बुनियाद एवं उसकी संरचना बरकरार रहे और मज़बूती से खड़ी रहे।’
भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का भी कहना है कि लोकतंत्र में जनमत हमेशा निर्णायक होता है और हमें इसे विनम्रता से स्वीकार करना पड़ेगा। जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था, “लोकतंत्र और समाजवाद लक्ष्य पाने के साधन हैं, स्वयं लक्ष्य नहीं।”
भारत के संदर्भ में लोकतंत्र के बारे में यही कहा जा सकता है कि यदि जनता अशिक्षित हो या अधिक समझदार ना हो तब लोकतंत्र की खामियाँ सबसे ज्यादा सामने आती हैं। लोकतंत्र की सफलता के लिए जनता को सजग एवं सचेत रहकर अपने अधिकारों का सदुपयोग कर अपने कर्तव्यों का भी निष्ठा से पालन करना चाहिए।
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