राजनीति का स्तर जिस तेज़ी से स्खलित होते जा रहा है, वैसे में अब उससे किसी भी तरह की सांस्कृतिक संस्कारी आचार संहिता का पालन करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। राजनीति दिशाहीन, सिद्धांत-विहीन हो गई है। पद और सत्ता का लालच राजनीतिक पार्टियों का अंतिम लक्ष्य हो गया है। आज जिस तरह से राजनीतिक पार्टियाँ राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव की सांध्य बेला पर सांसदों की अफरा-तफरी और विधायकों की खरीद-फरोख्त मैं मशगूल हो रही हैं, जातिवाद, अवसरवाद, पद लोलुपता सिर चढ़कर बोलने लगी है, वैसे में निश्चित तौर पर लोकतंत्र शर्मिंदा होकर खंडित होने लगा है।