चुनाव हरियाणा और जम्मू कश्मीर में हुए हैं। इन पंक्तियों के लेखक की, परोक्ष रूप से कार्यस्थली इन दोनों प्रांतों में नहीं हैं, लेकिन ये दोनों प्रान्त उस देश का अभिन्न अंग हैं, जो मेरे जैसे करोड़ों साधारण लोगों की साँसों में रचा बसा है। जो हमारी पहचान है, हमारा मान है और जिसके राजनीतिक और आर्थिक तापमान के साथ इस देश के आम और लगभग असहाय हो चुके एक ऐसे तबके की धड़कनों की रफ़्तार तय होती है, जिसकी अपने समूचे व्यक्तित्व से भारतीय होने या देश का एक अधिकृत नागरिक होने के बावजूद लगता है अब कोई औकात बची नहीं है।
बतौर दुष्यंत कुमार - ये वो ‘हम’ हैं… जो आज से लगभग पचास बरस पहले - उनकी एक रचना में - “ जिस तरह चाहे बजाओ इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं “ … के रूप में चिन्हित हुए थे और आज आधी सदी के बाद भी उसी तरह पिट रहे हैं…।
क्योंकि अब ये महसूस होने लगा है कि देश के मौजूदा परिदृश्य में भिन्न भिन्न राजनीतिक दलों की उठापटक अब इतनी घातक हो गयी है कि चुनाव चाहे उत्तर के सबसे ऊपरी सूबे कश्मीर में हो या सुदूर दक्षिण के आखिरी छोर के किसी प्रान्त में, देश का साधन-संपन्न मीडिया जो हमें दिखाता है और देश का सोशल मीडिया जो हमें समझाता है, इसके पीछे किसको सही समझें, किस के दावे या प्रस्तावना पर भरोसा करें - ख़तरनाक हद तक - संशय के घेरे में है।
ये तो तय है कि जिसे गोदी मीडिया की उपाधि दी गयी है, उसके सुर एक जैसे होंगे। और उनके प्रवचन भी सत्ता के मन्त्रोलाप की ही अनुगूंज होंगे। लेकिन जिस सोशल मीडिया ने आम आदमी के ज़मीर की बात की है, जिसने उन मुद्दों को उठाया है, जिनका देश के आर्थिक और सामाजिक रूप से उस विशाल विरक्त समाज से सरोकार है, और जिसकी देश में मौजूद लगभग हर तथाकथित राजनीतिक दल को कम से कम अपने कथन या भाषणों में तो चिंता है, लेकिन जिसे राहत नहीं मिल रही है, जो पांच किलो राशन के सहारे, या उस तबके की महिलाओं को पंद्रह सौ या दो हज़ार मासिक के लॉलीपॉप के बूते खींच सकते हैं, और मनचाहे ढंग से अपने-अपने प्रपंच रच सकते हैं, उन सब मुद्दों को उठाने वाला सोशल मीडिया भी अब क्यों इतना बेबस दिखने लगा है?
राजनीति के खिलाड़ियों से नैतिकता की बात करना या अपेक्षा रखना क्या इतना दूभर हो गया है कि वो जैसे चाहें वैसा आवरण ओढ़ सकते हैं और सामान्य मतदाता कुछ नहीं कर सकता?
क्या सत्ता में आना या आने की होड़ में किसी भी दल में कभी भी, हर स्थापित राजनीतिक अपेक्षा और नैतिकता की धज्जियां उड़ाते हुए, जैसी हवा हो या जहाँ भी मौका है, घुस जाना या वही रंग अख्तियार कर लेना जिसके वो घोर आलोचक रहे हों, जैसी व्यावहारिक अपेक्षाओं का नंगा नाच अब आम बात हो गयी है और समाज का एक बहुत बड़ा तबक़ा ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधियों को टुकुर टुकुर देखने के लिए अभिशप्त हो चुका है, क्या उन्हें उजागर करने का दम्भ रखने वाला जागरूक मीडिया भी अब उनके सामने अक्षम साबित हो रहा है?
किसी भी लोकतांत्रिक देश में चुनावों में पारदर्शिता एक स्वाभाविक अथवा व्यावहारिक मूलभूत आवश्यकता होनी चाहिए। आजादी के पचहत्तर बरस बाद अब अतीत में किस दल ने क्या किया, निर्वाचन व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए ज़िम्मेदार अधिकारियों की प्राथमिकताएं क्या हो गयी हैं, उस पर आकलन करने के ज़रिये अलग से हैं और होने भी चाहिए।
लेकिन पिछले एक दशक से कुछ ज्यादा समय में जिस तरह स्थापित मूल्यों की धज्जियां उड़ाई गई हैं, हर राजनीतिक दल द्वारा, वहां मेरे जैसे एक सामान्य मतदाता को क्या करना चाहिए या वो कुछ करने योग्य रह भी गया है - उस हवाले से क्यों ये लगने लगा है कि क्या भाजपा, क्या कांग्रेस, क्या आम आदमी पार्टी या क्या स्थानीय राजनीतिक दल - पिछले कई बरसों से क्यों अब ये बात लगातार स्थापित होती चली जा रही है कि इन सब का मूल उद्देश्य सत्ता हथियाना ही है और आम मतदाता तो वही झुनझुना है जिसका ज़िक्र दुष्यंत ने आधी सदी पहले किया था उस पर तुर्रा ये कि सही तस्वीर पहचान पाना भी मुश्किल हो गया है।
वो कैसा मीडिया होगा या वो कैसी व्यवस्था होगी जो दुष्यंत को गलत साबित करने का रास्ता दिखा पाएगी या देश की राजनीतिक धारा अब जिस दिशा में चल निकली है वहां नैतिकता या व्यावहारिक ईमानदारी की अपेक्षा करना भी सरासर बेवकूफी होगा?
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