क्या कोई एक राजनेता क़रीब 22 बरस के अपने कार्यकाल में उपलब्धियों की वो 10 तारीखें गिनवा सकता है जो यादगार हों और जिस पर सवाल न उठ सके? क़रीब 12 बरस तक पहले नरेंद्र मोदी किसी सूबे का मुख्यमंत्री रहे और बाद में दस बरस से देश के प्रधानमंत्री हैं। और अब वह एक-दो वर्ष में ही वह 75 वर्ष के हो जाएँगे। तो उनके दस वर्ष के प्रधानमंत्रित्व काल में कम से कम दस तारीखें तो ऐसी होनी चाहिए जिनको लेकर शोधकर्त्ता दावे से कह सकें कि हाँ ये उनके जीवन और कार्यकाल में ही हुआ है और जिसकी सत्यता पर कोई उंगली न उठा सके।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के दस बरस तक प्रधानमंत्री का कार्यकाल पूरा कर चुके नरेंद्र मोदी के समूचे व्यक्तिगत और सार्वजनिक एवं राजनीतिक जीवन में ऐसी दस तारीखों का कोई ब्यौरा तैयार करना कोई रॉकेट साइंस की बात नहीं है। यदि हम उनके मुख्यमंत्रित्व काल को भी इसमें शामिल कर लें, तो इनमें तीन वो तारीखें हैं जब उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री शपथ ली। दो वो विरले दिन हैं जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और कम से कम दो या तीन ऐसे अनूठे दिन और हैं जिनका ज़िक्र पूरे विश्वास के साथ किया जा सकता है।
पहला वो, जिस दिन रात आठ बजे उन्होंने नोटबंदी की घोषणा की और एक दिन वो जिस दिन आधी रात को संसद खुलवा कर जीएसटी लागू किए जाने के लिए क़ानून दिया गया। आधी रात को एक बड़े आयोजन के अंतर्गत 14 - 15 अगस्त, 1947 की तर्ज़ पर ‘जीएसटी’ के नाम पर नयी कर व्यवस्था का नया क़ानून बनाया गया। कुछ लोग ये भी मानते हैं कि इसे थोप दिया गया। ये आधी रात को क्यों किया गया इसका कोई भी तर्क न तो सामने आया और न ही शायद किसी विश्लेषक की नज़रों में इस की महत्ता पर विचार किया गया। भाजपा शासन के पिछले दस बरस के इतिहास की ये वो चंद तारीखें हैं।
प्रधानमंत्री का प्रचार तंत्र बेशक बहुत सारे आँकड़े सामने रख सकता है कि फलां दिन आर्टिकल 370 हटाया गया और फलां दिन श्री राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा की गयी या फलां दिन उसका विधिवत उद्घाटन हुआ। लेकिन वही प्रशासन, बावजूद तमाम सुविधाओं और क्षमताओं के आज तक मोदी जी के जीवन से जुड़ी बहुत सी तारीखों की संदिग्धता पर राष्ट्र के सामने एक भी विश्वसनीय आँकड़ा सामने नहीं रख पाया।
इतने ताकतवर प्रधानमंत्री को चुनाव प्रचार में क्यों मंगलसूत्र, किसी के मांस या मछली खाने या राम मंदिर का सहारा लेना पड़ रहा है?
दस बरस तक लगातार बहुमत की सरकार चलाने के बाद भी चुनाव में ठोस मुद्दों का अकाल रहा। उपलब्धियों के नाम पर धार्मिक और बेतुके मुद्दों पर बात की गयी। हर चरण में नए नए ऐसे मुद्दे उठाये गए हैं, जिनका देश की अधिकतर आबादी से कोई सरोकार नहीं है।
क्या आज़ादी का अमृतकाल मना रहे इस देश का आम नागरिक इतना अक्षम हो गया है या कर दिया जाएगा कि वो एक ऐसे माहौल में साँस भी न ले सके, जहाँ उसके खान पान, जीवन यापन जैसी आकांक्षाएँ भी राजनीतिक दल द्वारा तय होगा।
और किसी भी देश के लिए क्या इस तरह की सामाजिक, राजनीतिक और एक सीमा तक ऐसी आर्थिक परिस्थितियां स्वागत योग्य हैं?
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