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पिछले दस साल में क्या बदला, 4 जून के बाद देश किस ओर मुड़ेगा?

चार जून बहुत दूर नहीं है। राजनीतिक रूप से देश किस ओर मुड़ेगा, उसी दोपहर तक उसका एक स्वरूप सामने आ जायेगा। यह आशंका भी अब लगभग दबे-छुपे सामने आ ही रही है कि यदि मौजूदा सत्ताधारी दल को बहुमत से कम सीटें मिलीं या हारने की  नौबत आई तो क्या मोदी जी आसानी से गद्दी छोड़ेंगे?

चुनाव आयोग और ऐसी ही वो तमाम संस्थाएँ, जहाँ-जहाँ मोदी जी ने अपने हाथों से, चुन-चुन कर शीर्ष अधिकारी बिठाये हैं, अगले एक पखवाड़े में उन सबकी अग्नि परीक्षा भी है कि वे किस तरह अपने ‘आका’ की उम्मीदों पर खरा उतरते हैं। 

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मामला मात्र मोदी जी या उन आकाओं के प्रति उनकी श्रद्धा भक्ति का ही नहीं है, बल्कि उन सबके अस्तित्व का भी है। कहीं न कहीं तो वे भी जानते हैं कि पिछले एक दशक में जबसे मोदी जी ने सत्ता संभाली है और देश में प्रशासनिक व्यवस्था के प्रचलित ढाँचे को जैसे चूर चूर कर दिया है, उस नियोजन में परोक्ष-अपरोक्ष रूप से ऐसे सभी अधिकारी भी उतनी ही शिद्दत से शामिल हैं, जितनी शिद्दत से वर्तमान सत्ता या भाजपा का शीर्ष नेतृत्व।

विडंबना ये है कि ये वो लोग हैं, जिन्होंने 2014 से पहले की व्यवस्था के फल खा कर अपना एक मुकाम बनाया था और प्रशासन और व्यवस्था के ज़िम्मेदार पदों पर आसीन हुए थे। राजनीतिक आका तो उनके तब भी थे।

2014 से पहले देश में जिस प्रकार उच्च अधिकारियों का चयन होता था, देश में जो भी शिक्षा व्यवस्था क़ायम थी, सामाजिक स्तर पर जो भी सार्वजनिक सद्भाव था- उसी व्यवस्था में रहते ये अधिकाँश अधिकारी अपने-अपने स्तर पर सफल हुए और सरकारी तंत्र का हिस्सा बन पाए। देश का मूलभूत ढाँचा 1947 से लेकर 2014 तक देश जितनी भी तरक़्क़ी कर पाया और जो कुछ भी  हुआ, उसमें और नया क्या हो सकता है?

लेकिन क्या हुआ? राजनीतिक प्रपंच और धार्मिक भावनाओं की आंधी में 2014 और अत्यंत नाटकीय परिस्थितियों में 2019 में देश जिस राजनीतिक कुचक्र में फंसा उसने इन सब तथाकथित ‘सशक्त’ लोगों की व्यक्तिगत सोचने समझने की क्षमता को कुंद कर दिया!

राजनीतिज्ञों, खासकर मोदी जी जैसे नेताओं की विचारधारा काफी हद तक सार्वजनिक थी। गुजरात के उनके शासन की कहानियां सर्वविदित थीं। और आते ही जिस तरह उन्होंने एक के बाद एक अपनी ही पार्टी के सभी बड़े-बड़े नामों को एक सुनियोजित तरीक़े से हाशिये पर बिठाना शुरू कर दिया, वो भी दिखने लगा था। 

यक़ीनन ये किसी एक राजनीतिक दल का अंदरूनी मामला हो सकता है, लेकिन जब ऐसे प्रपंचों की छाया देश की शासन-व्यवस्था के स्थापित मूल्यों पर भी अपने असर दिखाने लगी, तो उसपर ध्यान जाना चाहिए।

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ये भी माना जा सकता है कि बहुत लम्बे अरसे के बाद एक भिन्न राजनीतिक विचारधारा से जुड़े लोग सत्ता में आये थे, तो परिवर्तन अपेक्षित ही था। लेकिन जिस तरह से नयी सत्ता ने एक एक करके संविधान, स्थापित शिक्षा व्यवस्था और आम जीवन के हर पहलू में, एक निश्चित एजेंडा को लागू करना शुरू कर दिया, तो इन सब अधिकारियों के मनो-मस्तिष्क में आने वाले दिनों में उसके क्या खतरे हो सकते हैं, उस का कोई ख्याल तक नहीं आया? उनके अनुभव ने उन्हें चेताया तक नहीं?
मूल मुद्दों से जनता का ध्यान हटा पाने की क्षमता कोई एक रात में तो नहीं पनपी होगी। आँकड़ों के साथ छेड़छाड़ करने और ख्वाबों के नए नए बिम्ब दिखा कर, कोरी बातों में देश वासियों को उलझाने का हुनर, भी रातों रात तो नहीं पनपा होगा।

व्यवस्था के शीर्ष नेतृत्व पर बैठा कोई भी चुना हुआ राजनीतिज्ञ क्या आते ही इतना शक्तिशाली हो गया था कि शपथ लेते ही उसके सामने सबकी घिग्घी बंध गयी?

कानून और शासकीय व्यवस्था के जानकार जानते हैं कि देश चलाने की जो राजकीय कार्य पद्धति तब तक स्थापित हो चुकी थी, उसमें इतनी क्षमता थी कि यदि कुछ अनियमित हो रहा है तो बड़े अधिकारी उसके बारे में कम से कम अपने राजनीतिक आकाओं  को सचेत तो कर ही सकते थे। लेकिन क्या ऐसा हुआ?

बतौर अब आज के सबसे निरीह राजनीतिज्ञ लाल कृष्ण अडवाणी की ज़ुबान में कहें, जो उन्होंने आपात काल के बाद कहा था,- तब की व्यवस्था ने तो मात्र झुकने के लिए कहा था, आप तो रेंगने लगे। यह शायद कहा तो मीडिया को लेकर गया था, लेकिन लागू सब पर हुआ। क्या अधिकारी और क्या मीडिया का एक बड़ा वर्ग, न सिर्फ रेंगने लगा, बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा निम्न स्तर का प्रदर्शन करने लगा।

क्या मज़बूरी हो सकती थी? नौकरी? चाटुकारिता? बहती गंगा में हाथ धोने का मौका? या डर? जिस चाटुकारिता का बीज 2014 में डाला गया, 2024 तक उसी की जड़ें पूरी व्यवस्था को दूषित कर चुकी हैं।

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इनमें से जितने भी ज़िम्मेदार अधिकारी हैं, वे सभी कम से कम साठ  बरस या उसके आस पास के हैं। पिछले दस बरस में इनमें से कई लोगों को सभी क़ानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए बार बार एक्सटेंशन दिया गया है, ताकि वो उस जगह पर बैठ वही आदेश जारी कर सकें जो उनके राजनीतिक आका चाहते हैं।

उसका सामाजिक स्तर पर क्या असर होगा, देश के भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और इन दस सालों में जो भी वो कर पाए हैं, देश की  आंतरिक और सीमा पार चुनौतियों को लेकर क्या कभी भी उन्होंने अपने तईं कोई आकलन नहीं किया होगा? इस प्रक्रिया में क्या वो ये नहीं समझ पाए कि भाजपा के दस बरस के कार्यकाल में जो भी अच्छा बुरा हुआ है, उसके समग्र प्रभाव से देश अछूता नहीं रह पाएगा तो क्या उनका अपना परिवार उनके अपनी संतान पर भी असर नहीं होगा?

आज देश सामाजिक, राजनीतिक, व्यवस्थात्मक और गंभीर धार्मिक विद्वेष के जाल में फंस चुका है। क्या उन सब विसंगतियों को स्वरूप देने की सारी की सारी ज़िम्मेदारी मात्र एक कुंठित राजनीतिक सोच के माथे पर थोपी जा सकती है, या उसमें वे लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने मात्र अपने और सिर्फ अपने स्वार्थ को सामने रखा और कुव्यवस्था के वे सभी रास्ते भी खोलने में मदद की जिसे आज पूरा देश भुगत रहा है। और वो ये भी भूल गए कि उसका असर उनकी आने वाली पीढ़ियों पर भी होगा?

हमारी शिक्षा प्रणाली बुरी तरह छिन्न भिन्न हो चुकी है, धार्मिक विद्वेष ने वहशी स्वरूप अख्तियार कर लिया है। आम आदमी त्रस्त है। सब जगह घुटन है और घोर अनिश्चितता की काली छाया में देश घिर चुका है।

तो आगामी 4 जून को अगर एक बार फिर, जो भी परिणाम सामने आएंगे, क्या यही शासकीय-व्यवस्था के संचालकों की छोटी लेकिन महत्वपूर्ण ज़मात, यदि मौका मिला, तो जो भी संविधान उनसे से अपेक्षा रखता है, वो करेंगे? कर पाएंगे? बिना डरे.. बेहिचक? 

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दिनेश लखनपाल
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