पंजाब के कृषि मज़दूरों ने अतीत से लेकर वर्तमान तक खेतों को अपना पसीना ही नहीं, लहू भी दिया है। कभी अन्नदाता और हरित क्रांति का जनक कहलाने वाला यह सरहदी सूबा आज किसानों और कृषि मज़दूरों की बड़े पैमाने पर हो रही ख़ुदकुशियों के लिए भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में है। विडंबना है कि किसानों की ख़ुदकुशी बड़ी ख़बर बनती है लेकिन कृषि मज़दूरों की बदहाली और आत्महत्याओंं की ओर वैसी तवज्जो नहीं दी जाती, जिसकी दरकार है। बेजमीन खेत मज़दूरों की हालत किसानों से कहीं ज़्यादा बदतर है और उनका जीवन स्तर भी। बेशक निम्न किसानी के लिए कृषि अब पंजाब में भी मुनाफ़े का धंधा नहीं रही और छोटे किसान भी धीरे-धीरे खेत मज़दूरों में तब्दील हो रहे हैं। यह जितने बड़े पैमाने पर हो रहा है, उतना फ़िलहाल बाहर से दिखाई नहीं देता।

छोटे किसान भी धीरे-धीरे खेत मज़दूरों में तब्दील हो रहे हैं। यह जितने बड़े पैमाने पर हो रहा है, उतना फ़िलहाल बाहर से दिखाई नहीं देता।
पंजाब के खेत मज़दूरों की ऐसी ही रिपोर्ट आई है जो उनकी दुर्दशा को दिखाती है। इसे 'पंजाब खेत मज़दूर यूनियन' द्वारा बठिंडा में करवाए गए एक विशेष सेमिनार में पेश किया गया। इस सेमिनार में प्रसिद्ध कृषि अर्थशास्त्री डॉ. देविंदर शर्मा, डॉ. सुखपाल सिंह, जोरा सिंह नसराली और मानवाधिकारों की हिमायती डॉ. नवशरण सहित कई बुद्धिजीवियों ने शिरकत की। इस विचार, चर्चा और रिपोर्ट के निष्कर्ष आँखें खोल देने वाले हैं।