पंजाब के कृषि मज़दूरों ने अतीत से लेकर वर्तमान तक खेतों को अपना पसीना ही नहीं, लहू भी दिया है। कभी अन्नदाता और हरित क्रांति का जनक कहलाने वाला यह सरहदी सूबा आज किसानों और कृषि मज़दूरों की बड़े पैमाने पर हो रही ख़ुदकुशियों के लिए भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में है। विडंबना है कि किसानों की ख़ुदकुशी बड़ी ख़बर बनती है लेकिन कृषि मज़दूरों की बदहाली और आत्महत्याओंं की ओर वैसी तवज्जो नहीं दी जाती, जिसकी दरकार है। बेजमीन खेत मज़दूरों की हालत किसानों से कहीं ज़्यादा बदतर है और उनका जीवन स्तर भी। बेशक निम्न किसानी के लिए कृषि अब पंजाब में भी मुनाफ़े का धंधा नहीं रही और छोटे किसान भी धीरे-धीरे खेत मज़दूरों में तब्दील हो रहे हैं। यह जितने बड़े पैमाने पर हो रहा है, उतना फ़िलहाल बाहर से दिखाई नहीं देता।
पंजाब के खेत मज़दूरों की ऐसी ही रिपोर्ट आई है जो उनकी दुर्दशा को दिखाती है। इसे 'पंजाब खेत मज़दूर यूनियन' द्वारा बठिंडा में करवाए गए एक विशेष सेमिनार में पेश किया गया। इस सेमिनार में प्रसिद्ध कृषि अर्थशास्त्री डॉ. देविंदर शर्मा, डॉ. सुखपाल सिंह, जोरा सिंह नसराली और मानवाधिकारों की हिमायती डॉ. नवशरण सहित कई बुद्धिजीवियों ने शिरकत की। इस विचार, चर्चा और रिपोर्ट के निष्कर्ष आँखें खोल देने वाले हैं।
इस यूनियन ने राज्य के छह ज़िलों- बठिंडा, मुक्तसर, फरीदकोट, जालंधर, मोगा और संगरुर के 12 गाँवों के 1640 परिवारों पर रिपोर्ट तैयार की। रिपोर्ट के मुताबिक़ खेत मज़दूरों के 444 परिवार बेघर हैं। (प्रसंगवश, इन पंक्तियों को पढ़ते हुए याद रखिए कि सरकार कहती है कि पंजाब में एक भी परिवार बेघर नहीं है)। इनमें से 19 परिवार जागीरदारों के बाड़ों, धर्मशालाओं और सरकारी अस्पतालों के नाकारा लावारिस खोलियों में जैसे-तैसे पनाह लेकर गुजारा कर रहे हैं और दिन काट रहे हैं। इसके अतिरिक्त 425 परिवार भी बेघरों की श्रेणी में हैं। बेघर ज़्यादातर कृषि कामगर नारकिय हालात में उतनी जगह में सपरिवार गुज़र-बसर करते हैं, जितनी जगह में दो लोगों का भी एक साथ रहना मुश्किल हो।
643 परिवार (39.21 फ़ीसदी) एक कमरे के घरों में रहते हैं। जबकि 493 परिवार (30.6 फ़ीसदी) शौचालय से पूरी तरह मरहूम हैं। यह स्थिति स्वच्छ भारत अभियान की भी हक़ीक़त को बयाँ करती है। इन बुनियादी सुविधाओं से वंचित ज़्यादातर परिवार दलित वर्ग से संबंधित हैं।
पंजाब खेत मज़दूर यूनियन के महासचिव लक्ष्मण सिंह सेवेवाला कहते हैं, ‘हमारी यह रिपोर्ट तथाकथित विकास की राह पर रफ़्तार पकड़ते भारत व पंजाब का एक पहलू भर दिखाती है। 1640 कृषि मज़दूरों के परिवारों की यह हालत है तो बाक़ियों की भी इससे ज़्यादा अलग नहीं होगी।’
रिपोर्ट बताती है कि पंजाब के कृषि क्षेत्र में ख़ुदकुशी के मामले कैसे फल-फूल रहे हैं। मंदी और बदहाली खेत मज़दूरों के लिए लगातार कफन बुन रही है।
वे थोड़े से धन के लिए ख़ुद व अपने परिवारों को जागीरदारों, सूदखोरों और फ़ाइनेंसरों के पास गिरवी रखने को मजबूर हैं। इस मज़बूरी का खाता ख़ुदकुशी के बाद भी बंद नहीं होता और परिवार के बाक़ी बचे सदस्यों के ख़ून से नई एंट्री करता रहता है। कई खेत मज़दूर परिवार ऐसे हैं जिनके एक से ज़्यादा सदस्यों ने ख़ुदकुशी की राह अख्तियार की। हालात बेहद भयावह तो हैं ही, यकीनन अंधी सुरंग सरीखे भी हैं।
कृषि अर्थशास्त्री डॉ. सुखवाल सिंह के मुताबिक़, ‘कृषि क्षेत्र के मज़दूरों की ऐसी बदहाली के लिए सीधे तौर पर सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। महँगाई बढ़ रही है और काम का बोझ भी लेकिन मज़दूरी वही है। सरकारों को बड़े किसानों की मुश्किलें तो यदाकदा दीखती हैं लेकिन कृषि मज़दूरों और धीरे-धीरे ख़ुद कृषि मज़दूर बनते छोटे किसानों की दिक्कतें दिखाई नहीं देतींं।’ डॉ. सुखपाल विश्व स्वास्थ्य संगठन के हवाले से कहते हैं कि प्रतिदिन 20 खेत मज़दूर और 40 किसान ख़ुदकुशी की कोशिश करते हैं।
कृषि अर्थशास्त्री डॉ. देविंदर शर्मा कहते हैं, ‘सरकारी विसंगतियों के चलते पंजाब के खेत मज़दूरों का 6 हज़ार करोड़ रुपए का क़र्ज़ माफ़ नहीं किया जा रहा। क़र्ज़ का यह कुचक्र भस्मासुर की मानिंद फैलता जा रहा है। जबकि कारपोरेट बड़े समूहों को 50 लाख करोड़ रुपए की छूट देने के बाद भी अतिरिक्त रियायतों का सिलसिला अनवरत जारी है।’ मानवाधिकारवादी डॉ. नवशरण कहती हैं कि सरकारों का मज़दूरों के साथ दुश्मनी वाला रिश्ता-रवैया ही उनकी बदहाली के लिए गुनाहगार है। जबकि यूनियन के प्रदेशाध्यक्ष जोरा सिंह कहते हैं, ‘पंजाब की कांग्रेस सरकार पंचायती ज़मीनों को औद्योगिक विकास के नाम पर पूंजीपति कॉरपोरेट घरानों को कौड़ियों के दाम पर लुटाने जा रही है। सन 2014 में हाईकोर्ट ने सरकार को आदेश दिया था कि खेत मजदूरों को शामलाट (पंचायती) ज़मीनों में से मकान बनाने के लिए प्लॉट अलॉट किए जाएँ। इसे पाँच साल बीतने के बाद भी लागू नहीं किया जा रहा।’
बहरहाल, खेत मज़दूरों और छोटे किसानों के प्रति केंद्र और राज्य सरकार का सुलूक एक सरीखा है। उनके हितों की हत्या चंडीगढ़ से दिल्ली तक एक जैसी निर्ममता के साथ की जा रही है। कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार मज़दूरों को मिलने वाली पंचायती ज़मीन खुशी-खुशी, उद्योग-धंधों के विकास तथा खुशहाली के नाम पर धनवानों को बाँट रही है तो दिल्ली में बैठे नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री आवास योजना यहाँ कागजों तक में दिखाई नहीं देती!
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