गीता कोड़ा
बीजेपी - जगन्नाथपुर
हार
गीता कोड़ा
बीजेपी - जगन्नाथपुर
हार
बाबूलाल मरांडी
बीजेपी - धनवार
जीत
क्या कश्मीर समस्या सिर्फ़ एक सैनिक चुनौती है? क्या कश्मीर समस्या का सम्बन्ध आन्तरिक और वैश्विक राजनीति, विदेश नीति और आर्थिक मज़बूती से नहीं है? क्या पाकिस्तान पर हमला कर देने से, उसे एक बार और हरा देने से कश्मीर समस्या का हल निकल आएगा?
सेना को खुली छूट देने की बात कह कर नरेंद्र मोदी एक तीर से कई राजनीतिक निशाने साध रहे हैं! बीते कई वर्षों में अकसर सेना के कुछ अफ़सर ऐसे दावे करते रहे हैं कि अगर उनके 'हाथ बँधे' न होते तो उन्होंने जाने क्या-क्या कर दिया होता! ज़ाहिर है कि इन अफ़सरों का इशारा उनके समय के राजनीतिक नेतृत्व की तरफ़ होता रहा है कि उसने उन्हें ऐन उस समय अपने हाथ खींच लेने को कह दिया और ऐसा तब जब वह पाकिस्तान को बहुत तगड़ी 'चोट' देने के क़रीब थे।
ज़ाहिर है कि चुनावी मौसम में ऐसा तीर मोदी और बीजेपी को बड़ा फ़ायदा पहुँचा सकता है! और नरेन्द्र मोदी तो अभी से ही अपनी सभाओं में पुलवामा हमले को चुनावी रंग देने ही लग गए हैं! दूसरी बात यह कि बीते 5 साल से जारी मोदी सरकार की कश्मीर नीति की विफलताओं पर पर्दा डालने में यह क़दम प्रधानमंत्री के लिए बड़ा सुविधाजनक उपाय भी हो सकता है! यानी अब आतंकवाद और पाकिस्तान का इलाज सेना को ही करना है, राजनीतिक सत्ता को नहीं!
सवाल यह है कि सेना को किस बात की छूट है? कश्मीर से सारे के सारे आतंकवादियों के पूरे सफ़ाये की या सीमा पार चल रहे आतंकी ठिकानों पर हमला बोल देने की या पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ देने की? इसका जवाब स्पष्ट नहीं है।
सेना यह नहीं बता सकती कि उसके पास कितने सीमित संसाधन हैं? बाक़ी देश को तो पता ही है कि सेना में अफ़सरों, गोला-बारूद और अन्य साज़ो-सामान की भारी किल्लत है।
अचानक बिन बुलाए लाहौर पहुँच जाने वालों और पठानकोट में पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के अफ़सरों की अगवानी करने वालों में खोट देखने वालों को तो न जाने कब से राष्ट्रद्रोही बताया ही जा रहा है।
यदि मोदी सरकार की कश्मीर नीति को आँकड़ों के साँचे में ढालकर देखना राष्ट्रद्रोह नहीं हो तो लगे हाथ यह भी जान लीजिए कि कड़े फ़ैसले लेने वालों के शासनकाल में जम्मू-कश्मीर में हुए आतंकी हमलों की संख्या में ख़ासी तेज़ी ही दर्ज़ हुई है। इसकी वजह से इन हमलों में हताहत हुए सैनिकों की संख्या भी बढ़ी है। देखें चार्ट।
यूपीए-2 के मुक़ाबले मोदी राज में आतंकवाद की राह पकड़ने वाले कश्मीरी युवाओं की संख्या भी दस गुना इज़ाफ़ा हुआ है। ये आँकड़े भी उसी सरकारी तंत्र के हैं, जिस पर उसके ही आला अफ़सरों ने आँकड़ों को छिपाने का आरोप लगाते हुए इस्तीफ़ा दे दिया है।
मोदी सरकार की कश्मीर नीति सही है या नहीं? इस सवाल पर अनन्त चर्चा और बहस हो सकती है। लेकिन बीते 5 साल के अनुभव ने इतना तो साफ़ कर ही दिया है कि पूर्ववर्ती सरकारों की नीति ग़लत नहीं थी, क्योंकि नीतिगत स्तर पर तो बयानबाज़ी के सिवाय मोदी राज में कुछ भी नया नहीं हुआ।
सेना की ओर से आतंकवादियों के ख़िलाफ़ पहले भी ज़ोरदार कार्रवाई ही हुआ करती थी। सीमा पार से होने वाली अकारण गोलीबारी का पहले भी मुँहतोड़ जवाब देने की सेना को पूरी छूट हुआ करती थी। सर्ज़िकल हमले भी पहले होते ही रहे हैं। ‘आतंकवाद और बातचीत एक साथ नहीं चल सकते’ वाली नीति भी पुरानी ही है। पाकिस्तान को वैश्विक स्तर पर अलग-थलग करने की नीति में भी नया कुछ नहीं है।
सियासी मोर्चे पर भी बीजेपी-पीडीपी गठबन्धन का हश्र हमारे सामने है। बीजेपी का चुनावी वादा था कि कश्मीरी पंडितों को उनके घरों में वापस भेजा जाएगा। लेकिन बीते 5 साल में एक भी कश्मीरी पंडित की घाटी में वापसी नहीं हुई। मोदी सरकार यह सब जानती है। चुनाव में इन सभी मुद्दों का उभरना स्वाभाविक है। इससे बचाव के लिए ही प्रधानमंत्री ने सेना को ‘पूरी स्वतंत्रता’ देने का दाँव चला है।
हमारे सेनाध्यक्ष पिछले दिनों विदेश नीति, कूटनीति और राजनीति से जुड़े कई मामलों में विवादास्पद बयान देकर ख़ासे चर्चित हो चुके हैं। जबकि ऐसे मामलों पर 'स्टैंड' लेने का काम राजनीतिक नेतृत्व का है, सेना का नहीं। लेकिन 'खुली छूट' की शुरुआत से खुलने वाले रास्ते की मंज़िल कहाँ तक हो सकती है, इस पर गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है।
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