आशुतोष ने आम आदमी पार्टी के बदल जाने पर अफ़सोस ज़ाहिर किया है। जिस शरद पवार का नाम भ्रष्ट राजनेताओं की सूची में आम आदमी पार्टी के जनक आंदोलन ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ ने काफ़ी ऊपर रखा था, उनके साथ मंच साझा करने को आज पार्टी बाध्य है। उसी तरह परम भ्रष्ट घोषित कर दिए गए लालू यादव से हाथ मिलाने में आम आदमी पार्टी को गुरेज़ नहीं है। इसमें वह रॉबर्ट वाड्रा का नाम भी जोड़ सकते थे। आज अरविंद केजरीवाल उसी कांग्रेस के साथ दिल्ली और बाहर भी गठजोड़ को तैयार हैं, जिसके संहार के लिए ऐसा लगता था, उन्होंने अवतार लिया है। आशुतोष का कहना है कि आम आदमी पार्टी के अस्तित्व का तर्क था- भ्रष्टाचार विरोध। आज अगर भ्रष्टाचार उसके लिए मुद्दा ही नहीं रह गया तो क्या यह न मान लिया जाए कि उसका वजूद ही बदल गया है। नाम तो वही है लेकिन पार्टी अब वह नहीं है।
आशुतोष इस बदलाव में देश के उन सपनों की मौत देखते हैं, जो आम आदमी पार्टी ने और उसके पहले के आंदोलन ने देश में जगा दिए थे। अब जब आम आदमी पार्टी दूसरी पार्टियों की शक्ल में ढल गई है तो उन सपनों को कौन पूरा करेगा?
अफ़सोस के साथ आशुतोष पूछते हैं कि इन पाँच सालों में क्या बदला है, देश की राजनीति बदली है या देश ही बदल गया है! उनका उत्तर है, दोनों में कोई नहीं बदला है, बदल गए हैं तो सिर्फ़ अरविंद केजरीवाल।
सत्ता का चरित्र ही ऐसा है कि वह सबको अपनी सूरत में ढाल लेती है। वह विश्वनाथ प्रताप सिंह, उनके पहले चंद्रशेखर के हश्र को याद करते हैं। कुछ लोग जॉर्ज का नाम भी इसी सूची में डालना चाहेंगे।
- आशुतोष का अफ़सोस अपनी जगह जायज़ है। लेकिन इस सवाल का उत्तर कि देश बदला है या देश की राजनीति, यह नहीं है कि अरविंद बदले हैं। बदलाव कहीं और हो रहा है।
सिर्फ़ भ्रष्टाचार विरोध कारगर नहीं
अरविंद का चरित्र विश्लेषण एक अलग विषय है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के समय उनकी चहुँदिश प्रशंसा के बीच भी कुछ लोग थे जो उनकी आत्मग्रस्तता और प्रकट अधिनायकवादी रुझान से सावधान कर रहे थे। वे यह भी चेतावनी दे रहे थे कि सिर्फ़ भ्रष्टाचार का विरोध किसी बड़ी राजनीति की शुरुआत नहीं कर सकता। अक्सर भ्रष्टाचार विरोध ऐसी राजनीति के लिए रास्ता हमवार करता जो अपने स्वभाव में जनतंत्र विरोधी होती है।
लोकपाल और संसद
आशुतोष ने एक-दूसरे प्रसंग में गाँधी के धैर्य को याद किया है। वह बिलकुल ठीक कह रहे हैं। लेकिन इस आंदोलन की भाषा अधैर्य के व्याकरण के नियमों से गढ़ी जा रही थी। अरविंद के साथ प्रशांत भूषण जैसे क़ानून के जानकार भी कह रहे थे कि लोकपाल के लिए संसद को अधिक बहस करने की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि उन्होंने इस पर जनमत संग्रह करा लिया है। संसद को बस उस जनमत संग्रह को मान लेने की देर है और क़ानून बन जाएगा। इस पर कोई हैरान न हुआ कि अरविंद और प्रशांत संसद के विचार की जगह अपने जनमत संग्रह को ऊपर रखने की वकालत कर रहे थे।
- सतही तौर पर यह जनतांत्रिक तर्क जान पड़ता है लेकिन हमें मालूम है कि जनतंत्र जैसे जटिल तंत्र को चलाने के लिए जिस दीर्घ विचार-विमर्श की आवश्यकता होती है, उसका अवसर जनमत संग्रह में बहुत कम होता है। लेकिन उस वक़्त पूरी संसद को ही भ्रष्टाचार की गंगोत्री बताया जाता रहा था। यह अधैर्य आख़िर किस दिशा में मुड़ता?
आंदोलन में शुचिता और छल
एक तरफ़ शुचिता का आग्रह लेकिन दूसरी तरफ़ आंदोलन में छलपूर्ण रणनीति, यह भी साधन और साध्य के अंतर का मसला था। यह छल इसे अन्ना आंदोलन की संज्ञा देने में छिपा था। या उसके पहले रविशंकर और रामदेव का सहारा लेने में। अन्ना हज़ारे की वास्तविकता महाराष्ट्र के लोग अधिक जानते हैं लेकिन उसे छिपाकर उन्हें एक पवित्र मूर्ति और नया गाँधी बनाने की मुहिम में धोखा था।
- इस आंदोलन को भ्रष्टाचार विरोध में राष्ट्रवाद से जिस तरह जोड़ा गया, उसे भूलने से हम आज के राष्ट्रवादी उन्माद को समझ नहीं पाएँगे। क्यों उस आंदोलन में एक मुसलमान विरोधी रुझान और हिंदूवादी राष्ट्रवाद को बल मिला, इस प्रश्न पर विचार बाक़ी है।
इस आंदोलन को जिस तरह कॉर्पोरेट दुनिया का समर्थन मिला, उससे भी इसकी दिशा के बारे में कुछ मालूम होता है। इस पूँजीवादी समर्थन के सहारे राजनीति में शुचिता लाई जा सकती है, यह ख़याल ही हास्यास्पद है।
सियासत पूरी तरह बदली
ये सारे सवाल अपनी जगह, यह आशुतोष भी जानते हैं कि इन पाँच सालों के दरम्यान मुल्क़ की सियासत पूरी तरह बदल गई है। इस राजनीति पर आज बहुसंख्यकवाद का ज़बरदस्त दबाव है। इस राजनीति के सत्ता तक पहुँचने में आम आदमी पार्टी के पहले के अरविंद नीत आंदोलन ने कितनी बड़ी भूमिका निभाई, वह अलग चर्चा का विषय है। आज सामने खड़े इस बहुसंख्यकवाद और उसके साथ अधिनायकवाद के ख़तरे को पहचान सकना ही राजनीतिक विवेक है।
- जिस तरह यह अधिनायकवादी बहुसंख्यकवाद एक-एक कर सारी जनतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त कर रहा है, जिस तरह सेना का इस्तेमाल इस बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद के लिए किया जा रहा है, वह अगर जारी रहा तो अभी तो राजनीति की दिशा ही बदलती दीखती है, देश के बदलते देर नहीं लगेगी। आश्चर्य नहीं कि यह सरकार भी ख़ुद को भ्रष्टाचार, काला धन के ख़िलाफ़ धर्मयोद्धा के तौर पर पेश कर रही है।
केजरीवाल की स्थिति
अरविंद ने पहले जो किया हो, पिछले दो वर्षों में उनके दल के भीतर इस ख़तरे की पहचान शुभ लक्षण है। दुनिया भर का अनुभव यह बताता है कि इस ख़तरे का सामना सामान्य राजनीतिक रणनीति से नहीं हो सकता। इसका सामना राजनीतिक विचार की भिन्नता के बावजूद एकजुट हुए बिना नहीं किया जा सकता। आर्थिक भ्रष्टाचार बुरा है लेकिन बहुसंख्यकवाद उससे कहीं बड़ा नैतिक भ्रष्टाचार है। अरविंद जो सरकार में जाने के पहले थे, वही अभी भी हैं। लेकिन कम से कम वह देश के सामने के असली ख़तरे को समझ पाए हैं, यह संतोष का विषय है।
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